कट्टरपंथ
की ज़मीन कैसे बनती है?
आगामी
चुनावों में नवउदारवाद,
सांप्रदायिकता
और सुविधापरस्ती के गठजोड़ से
निकट भविष्य में नरेंद्र मोदी
के प्रधानमंत्री बनने और संघ
परिवार की जड़ें और मजबूत होने
की संभावनाएँ लोकतांत्रिक
सोच रखने वाले सभी लोगों के
लिए चिंता का विषय हैं। औसत
भारतीय नागरिक घोर सांप्रदायिक
न भी हो,
पर
बढ़ते सांप्रदायिक माहौल के
प्रति उदासीनता से लेकर
सांप्रदायिक आधार पर गढ़े गए
राष्ट्रवाद में व्यापक आस्था
हर ओर दिखती है। आखिर तमाम तरह
की मानवतावादी कोशिशों और
धरती पर हर इंसान की एक जैसी
संघर्ष की स्थिति की असीमित
जानकारी होने के बावजूद
ऐसा क्यों है कि दुनिया
के तमाम मुल्कों में लोग
संकीर्ण राष्ट्रवादी
सोच के बंधन से छूट नहीं पाते!
इस
जटिलता के कई
कारणों में एक शासकों
द्वारा जनता से सच को छिपाए
रख उन्हें राष्ट्रवाद
के गोरखधंधे में फँसाए
रखना है। इतिहास का ऐसा नियंत्रण
महँगा पड़ता है।
पचास
सालों से गोपनीय दो सरकारी
रिपोर्ट्स
पिछले
पचास सालों से गोपनीय रखी गईं
दो सरकारी रिपोर्ट्स पर डेढ़
साल पहले चर्चाएँ शुरू हुई
थीं। इनमें से एक 1962
के
भारत और चीन के बीच जंग पर है।
दूसरी आज़ादी के थोड़े समय बाद
हैदराबाद राज्य को भारतीय
गणराज्य में शामिल करने के
सिलसिले में हुए ऑपरेशन पोलो
नामक पुलिस कारवाई पर है। पहली
रिपोर्ट को लिखने वाले भारतीय
सेना के दो उच्च-अधिकारी
ब्रूक्स और भगत थे। दूसरी
रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री
नेहरू के करीब माने जाने वाले
पंडित सुंदरलाल की अध्यक्षता
में बनी एक समिति ने तैयार की
थी। पहली रिपोर्ट का एक बड़ा
हिस्सा अब सार्वजनिक हो चुका
है। दूसरी रिपोर्ट आज भी गोपनीय
है,
हालाँकि
अलग-अलग
सूत्रों से उसके कई हिस्से
सार्वजनिक हो गए हैं।
हमारे
अपने अतीत के बारे में बहुत
सारी जानकारी हमें चीनी स्रोतों
से मिलती है। प्राचीन
काल से दोनों देशों के बीच
घनिष्ट संबंध रहे हैं। भारत
से बौद्ध धर्म के प्रचारकों
का जाना और चीन से बौद्ध भिक्षुओं
और शोधार्थियों का आना-जाना
सदियों से चलता रहा है। बीसवीं
सदी में दोनों देशों को बाहरी
ताकतों के खिलाफ बड़ी लड़ाइयाँ
लड़नी पड़ीं। चीन में एकाधिक
औपनिवेशिक ताकतों के अलावा
अंदरूनी शोषक वर्गों
के खिलाफ भी जनयुद्ध चला और
साम्यवादी ताकतें सत्ता में
आईं। इस दौरान भारत
से गए डॉ कोटनीस
और उनके सहयोगियों ने चीन के
सामान्य लोगों के लिए अथक काम
किया। इन सब बातों के बावजूद
भारत में चीन
के बारे में सोच शक-सुबहा
पर आधारित है। भारत-चीन
संबंधों पर हम सब ने एकतरफा
इतिहास पढ़ा है। हम यही
मानते रहे हैं कि चीन एक हमलावर
मुल्क है। हम शांतिप्रिय हैं
और चीन ने हमला कर हमारी ज़मीन
हड़प ली। ऑस्ट्रेलियन
पत्रकार नेविल मैक्सवेल
इस विषय पर लंबे अरसे से शोध
करते रहे और उन्होंने कई
पत्र-पत्रिकाओं
में इस पर आलेख छापे। सीमा
विवाद पर भारत के दावे से वे
कभी पूरी तरह सहमत
नहीं थे। चूँकि हमलोग चीन को
हमलावर के अलावा और किसी नज़रिए
से देख ही नहीं सकते,
उनके
आलेखों पर कम ही लोगों ने गौर
किया। अब रिपोर्ट के उजागर
होने पर यह साबित हो गया है कि
मैक्सवेल
ने हमेशा ही सही बात
की थी। रिपोर्ट में भारत की
जिस 'फॉरवर्ड
पॉलिसी'
को
ग़लत ठहराया
गया है,
उसका
सीधा मतलब यही होता है कि भारतीय
फौज ने घुसपैठी
छेड़छाड़ कर चीन को लड़ने को मजबूर
किया। 1962
की
अक्तूबर के उस जंग के कुछ महीने
पहले तक चीन ने कई तरीकों से
कोशिश की कि दोनों देशों के
बीच सीमा विवाद को लेकर बातचीत
हो, पर
भारत का निर्णय यह था
कि हमारी एकतरफा
तय की गईं सीमाओं पर
कोई बातचीत नहीं हो सकती। यह
सबको पता था कि दोनों देशों
के बीच बहुत सारा इलाका बीहड़
क्षेत्र है,
जहाँ
सैंकड़ों मीलों तक कोई नहीं
रहता,
और
सीमा तय करना आसान नहीं है।
बीसवीं सदी के पहले पाँच दशकों
में चीन की हालत बड़ी खराब थी
और खासकर पश्चिमी सीमाओं तक
नियंत्रण रख पाना उनके लिए
संभव न था,
इसलिए
उपनिवेशवादी बर्त्तानवी
अफसरों ने जानबूझ कर भी चीन
की सीमा को पीछे की ओर हटाया
हुआ था। भारत ने स्थिति का
पूरा फायदा उठाते हुए 'फॉरवर्ड
पॉलिसी'
के
तहत घुसपैठ की।
आखिर जंग हुई जिसमें भारत को
शिकस्त मिली। सीमा विवाद पर
आज भी भारत सरकार का रवैया
बदला नहीं है। अपनी
दक्षिणी सीमा पर लगे
तमाम मुल्कों में भारत ही एक
ऐसा देश है,
जिसके
साथ चीन सीमा विवाद सुलझाने
में असफल रहा है। जबकि आज
अंतर्राष्ट्रीय
संस्थाओं की मदद से और
जी पी एस तकनीकों के
द्वारा यह संभव है कि चप्पे-चप्पे
तक ज़मीन मापी जा सके और सीमा
सही सही तय की जा सके। सही ग़लत
क्या है,
इस
पर बहस हो सकती है। पर जब सरकार
पचास सालों तक अपनी ग़लतियों
को नागरिकों से छिपाकर रखती
है तो यह गंभीर
चिंता का विषय है।
हैदराबाद
राज्य के भारत में विलय के
इतिहास के भी
शर्मनाक अध्याय हैं।
हैदराबाद के
निज़ाम के शासन में शहर हैदराबाद
के बाहर रियासत में बेइंतहा
पिछड़ापन था। ज़मींदार (जो
तकरीबन सभी हिंदू थे)
रियाया
पर मध्य-काल
की तरह अत्याचार करते थे। इसी
का परिणाम था कि तेलंगाना में
उग्र साम्यवादी आंदोलन फैला
और आज़ादी के दौरान और तुरंत
बाद के वर्षों में इसने जनयुद्ध
की शक्ल अख्तियार कर लिया।
निज़ाम के सलाहकारों
में इस्लामी कट्टरपंथियों
की अच्छी तादाद थी। हैदराबाद
राज्य ने भारत या पाकिस्तान
में विलय होने की जगह आज़ाद
मुल्क रहना चाहा। सरदार पटेल
के गृह मंत्री रहने के दौरान
सिख और मराठा बटालियन की फौजें
भेजकर पाँच दिनों की लड़ाई के
बाद हैदराबाद
का भारत में विलय कर
लिया गया। निज़ाम की ओर से
लड़ने वाले रज़ाकारों की संख्या
पाँच हज़ार थी। रज़ाकारों ने
क्रूरता से 'भारत
में विलय के समर्थकों'
का
दमन किया। पर यह कम लोग जानते
हैं कि भारतीय फौजें हैदराबाद
के मुसलमानों के साथ
कैसे पेश आईं। जब पंडित सुंदरलाल
की कमेटी ने जाँच की तो पता
चला कि 48,000
मुसलमानों
की हत्या की गई थी,
जिनमें
से अधिकतर निर्दोष थे। बलात्कार
और लूट की इंतहा न थी। चूँकि
यह रिपोर्ट अभी तक सार्वजनिक
नहीं है,
इसलिए
इस आँकड़े की सच्चाई पर सवाल
उठ सकते हैं। पर यह रिपोर्ट
क्यों छिपाई जा रही है?
ऐसी
कई बातें हैं,
जहाँ
सरकार का रवैया लोगों से सच
छिपाने का है। इन दो रिपोर्टों
का उल्लेख प्रासंगिक है। कहा
जा सकता है कि हमारा देश ग़रीब
है और ऐसी जानकारी जिससे लोगों
में सरकार के प्रति आस्था कम
हो,
उसे
गोपनीय ही रहने दिया जाए तो
बढ़िया है। पर
अगर हमारे पास संसाधनों की
कमी है तो हमारी कोशिश यह होनी
चाहिए कि हम सभी ज़रूरी बातों
का खुलासा करें ताकि सामूहिक
और लोकतांत्रिक रूप से ऐसे
निर्णय लिए जाएँ जो सबके हित
में हों। सच यह है कि अगर हम
अपने पड़ोसी देशों के साथ सीमा
विवाद सुलझा लें तो हमारा
सामरिक खर्च बहुत कम हो जाएगा
और हम शिक्षा,
स्वास्थ्य
आदि बुनियादी मुद्दों पर उचित
ध्यान दे पाएँगे। इसी
तरह अतीत की ग़लतियों को हम
मान लें तो समुदायों के बीच
बेहतर संबंध पनपेंगे और देश
सर्वांगीण उन्नति की ओर बढ़ेगा।
इसके विपरीत ऐसा
राष्ट्रवाद
जो हमें भूखे और कमजोर रहकर
पड़ोसी मुल्कों के साथ वैमनस्य
का संबंध बनाए रखने को मजबूर
करता है,
जो
लघु संप्रदायों के खिलाफ हुए
ज़ुल्मों को नज़रअंदाज करता
है,
वह
हमारे हित में कतई नहीं है।
इसका मतलब यह नहीं कि हम पड़ोसी
मुल्कों के सामने
घुटने टेक दें या लघु
संप्रदायों
की खामियों
को अनदेखा करें। पर सच को छिपा
कर और झूठ के आधार पर लोगों को
भड़काए रख कर देश में स्थिरता
और संपन्नता कभी नहीं आ सकती।
आज
हम लगातार ऐसी स्थिति की ओर
बढ़ रहे हैं कि इस तरह का संकीर्ण
राष्ट्रवाद
लोगों के मनों में घर
करता जा रहा है। ऐसा
माहौल बनता जा रहा है कि तथ्यों
को सामने लाने का औचित्य कम
ही दिखता है। एक ओर नफ़रत
की लहर में डूबे लोग
हैं,
दूसरी
ओर उनको सुविधापरस्त लोगों
का साथ मिल रहा है।
पूँजी के सरगना जिनको मानवता
से कुछ भी लेना-देना
नहीं है,
वे
खुलकर ऐसे नेतृत्व का समर्थन
कर रहे हैं जो देश को निश्चित
विनाश की ओर धकेल देगा। एक ऐसा
मुख्य-मंत्री
जो स्वयं जेल जाने से
बाल-बाल
बचता रहा है,
जिसके
मंत्रिमंडल में एक को आजीवन
कारावास मिला हुआ है;
राज्य
के भूतपूर्व पुलिस प्रमुख और
उसके सहयोगी जेल में बंद हैं,
वह
झूठे विकास का नारा देकर और
ऊल-जलूल
झूठी बातें कर लोगों का समर्थन
जुटाने में काबिल हो रहा है।
झूठा
गर्व
पहली
नज़र में ये बातें एक दूसरे
से अलग लगती हैं। पर सचमुच ये
एक-दूसरे
से जुड़ी हुई हैं। एक
बड़े देश का नागरिक और मुख्य-धारा
के साथ होने में एक झूठे गर्व
का अहसास होता है जो हमें अप्रिय
सच को जानने से दूर ले जाता
है। जब तक यह अहसास सीमित रहता
है और सामूहिक जुनून में नहीं
बदलता,
तब
तक कोई समस्या नहीं है। जिस
तरह का जुनून और सांप्रदायिकता
नरेंद्र मोदी के समर्थन में
सक्रिय हैं,
उसका
उदाहरण बीसवीं सदी
के यूरोप के इतिहास
में है। तकरीबन नब्बे साल पहले
इसी तरह की घायल राष्ट्रीयता
की मानसिकता के शिकार इटली
और जर्मनी के लोगों ने क्रमशः
फासीवादियों और नात्सी पार्टी
के लोगों को जगह दी। इनके सत्ता
पर काबिज होने के बाद उन मुल्कों
का क्या हश्र
हुआ वह हर कोई जानता है। आज
तक जर्मन लोग यह सोच कर अचंभित
होते हैं कि एक पूरा राष्ट्र
यहूदियों के खिलाफ नस्लवादी
सोच का शिकार कैसे हो गया?
विनाश
के जो पैमाने तब तैयार हुए और
दूसरी आलमी
जंग में इनके मित्र
देश जापान पर एटमी बमों की जो
मार पड़ी,
उससे
उबरने में कई सदियाँ लगेंगी।
वैसी ही ताकतें भारत में भी
अपनी जड़ें जमाने में सफल हो
रही हैं और अगर वे सफल होते
चले तो अगले दशकों में दक्षिण
एशिया का हश्र क्या होगा,
यह
सोचकर भी भय
होता है।
सिर्फ
चुनावी पटल नहीं
फासीवादी,
नात्सी,
हिंदुत्ववादी,
तालिबानी
और ऐसी दीगर ताकतें
झूठ और हिंसा के जरिए अमानवीकरण
की स्थिति में जी रहे लोगों
को बरगलाने में सफल होती हैं।
कैसी भी राजनैतिक
प्रवृत्ति वाली दलों की हों,
सरकारें
सच को छिपाकर ऐसी स्थितियाँ
पैदा करने में मदद करती हैं
कि भुखमरी
और सामाजिक अन्यायों के शिकार
लोग झूठे
राष्ट्रवादी गौरव में
फँसे मानसिक रूप से
गुलाम बन जाएँ।
लोग यह देखने के काबिल नहीं
रह जाते कि सत्ता में
आते ही कट्टरपंथी ताकतें आम
नागरिकों के लोकतांत्रिक
अधिकारों पर हमला करेंगीं।
शिक्षा में खासतौर पर इतिहास,
राजनीति
विज्ञान और साहित्य जैसे
विषयों में आमूलचूल बदलाव कर
संकीर्ण सांप्रदायिक और
मानव-विरोधी
सोच को डालने की कोशिश करेंगीं।
आज कुछ सच छिपाए जा
रहे हैं तो कल बिल्कुल झूठ
बातों को सच बना कर किताबों
में डाला जाएगा और बच्चों को
वही पढ़ने को मजबूर किया जाएगा।
विरोधियों के साथ
हिंसक रवैया अपनाने में इन
ताकतों को कोई हिचक
नहीं। ऐसी सभी ताकतों
के खिलाफ और सच को सामने लाने
के लिए आवाज़ बुलंद करना ज़रूरी
है। इसलिए सिर्फ चुनावी
पटल पर ही मोदी और संघ परिवार
का विरोध पर्याप्त नहीं;
देश
के इतिहास,
वर्त्तमान
और भविष्य के साथ जुड़े हर सच
को उजागर करने की माँग साथ-साथ
करनी होगी।
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