हमारे भीतर का गुजरात (बारह साल पुराना आलेख)
19 अप्रैल 2002 जनसत्ता दिल्ली
पिछले आम चुनावों के दौरान चंडीगढ़ संसदीय क्षेत्र के प्रत्याशियों का शहर की एक संस्था ने आम लोगों के साथ रूबरू करवाया।
एक प्रार्थी से जब यह पूछा गया कि युवाओं में एड्स और नशे की लत की बढ़ती हुई समस्या के बारे में उसके विचार
क्या हैं तो उसने एक कहानी सुनाई। रामजी की सीताजी के साथ शादी हुई तो सीताजी ने उनसे पूछा कि आप मेरे
लिए क्या उपहार लाए हैं। खाली हाथ आए रामजी ने कहा कि मैं आपके लिए बहुमूल्य उपहार लाया हूं। कैसा उपहार?
यह कि मैं आपको वचन देता हूं कि मैं कभी भी किसी अन्य महिला की ओर नहीं देखूंगा। चंडीगढ़ देश के सबसे अधिक
साक्षरता वाले क्षेत्रों में से है। वहां से लोकसभा का प्रत्याशी जब इस तरह एक गंभीर समस्या पर बात करता है, इसे हम
उसकी आस्था की बात कह कर मान लेते हैं। हम आप जैसे हजारों उदारवादी लोग इसे अनजान व्यक्ति से यौन संबंध न
रखने की एक शालीन अभिव्यक्ति भी मान लेंगे। समस्या यह है कि रामजी और सीताजी का ऐसा इस्तेमाल कर सत्ता
हथियाने वाले लोग वहां रूकते नहीं, ये `'हिंदुस्तान में रहना है तो हिंदू बन कर रहना होगा', `बाबर की औलाद को बाहर
करो' से लेकर `मुसलमानों को सुरक्षित जीवन के लिए हिंदुओं की शुभेच्छा निश्चित करनी होगी' तक की यात्रा करते हुए
हजारों औरतों-बच्चों की हत्याओं तक को सरल ढंग से समझा देते हैं और हम आप कभी आस्था तो कभी स्थिरता
आदि शब्दों का उपयोग कर उन्हें मानते चले जाते हैं।
सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त मानव अधिकार आयोग ने भी, जिसे सामान्यतः अन्य नागरिक अधिकार मंचों कि तुलना में
अपेक्षाकृत अधिक रूढ़िवादी माना जाता है, यह कह दिया कि गुजरात में सरकारी तंत्र दंगों को दबाने में पूरी तरह विफल
हुआ है। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार पर सांप्रदायिकता के गंभीर आक्षेप मानवाधिकार मंच ने लगाए हैं, फिर भी हम
परेशान नहीं हैं कि वह सरकार अभी तक हटाई क्यों नहीं गई। न्यूयार्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ध्वंस की घटना हदय-
विदारक थी। यह भी अच्छी बात थी कि भारत में मुहल्ले-मुहल्ले में, स्कूलों-कालेजों में बच्चों-बड़ों ने आतंकवादियों की
इस करतूत के खिलाफ प्रतिवाद दर्ज किया और संयुक्त राष्ट्र संघ या संयुक्त राज्य अमेरिका को हस्ताक्षरों की शृंखलाएं
भी भेजी गईं, पर गुजरात तो मेरठ, मुंबई आदि जैसी ही एक और वारदात है, इसलिए समय से सब ठीक हो जाएगा, ऐसा
ही हम और आप सोच रहे हैं। सरकारी पक्ष की कुछ पार्टियां कुछ समय तक आवाज उठाती भी हैं तो स्पष्टतः वह महज
सत्ता के गलियारों का खेल ही होता है। जयललिता, अजित पांजा और कई अनेक नेता अगर पोटो का समर्थन करते हैं
तो उसकी वजह यही है कि उनके समर्थकों मे हम आप जैसे लोग ही हैं जिन्हें मुसलमान बच्चों की हत्याओं और औरतों
के बलात्कार से कोई फर्क नहीं पड़ता।
ऐसा नहीं है कि लोग सच नहीं जानते। कहते हैं गोएबल्स ने कहा था कि दस बार झूठ बोलने पर झूठ सच हो जाता है।
गोधरा में ट्रेन पर हुए हमले में मारे गए लोगों के बारे में कोई कुछ नहीं कहता, इस तरह के झूठ भारतीय मिथ्या पार्टी के
नेता ही नहीं, हम लोग भी कहते हैं। दूसरों से ही नहीं, अपने आपसे भी कहते हैं। हिंदू सहनशील है, मुसलमान कट्टर हैं-
इस सरलीकरण पर हमारा विश्र्वास ही हमें लगातार इन नेताओं और पार्टियों को सत्ता में लाने को विवश करता है।
इसीलिए पिछले एक दशक से राम जन्मभूमि जैसा अत्यंत पुरातनवादी और पिछड़ी सोच का मुद्दा आस्था के नाम पर
हमारी बौद्धिक बहस का मुख्य बिंदु बना हुआ है। हम जानते हैं कि लोगों की आस्था न्यूनतम शिक्षा में भी है, हर गरीब
चाहता है कि उसके बच्चे पढ़ें और बेहतर जीवन पाए। हम जानते हैं कि लोगों की आस्था समुचित स्वास्थ्य सुविधाओं में
है। अनपढ़ व्यक्ति भी बीमार होने पर यथासाध्य दवा दारू के लिए मारा-मारा फिरता है। सिंघल और रामचंद्र दास भी
अपनी बीमारियों का अपचार रामजी से नहीं, आधुनिक चिकित्सकों से करवाते हैं। पर हमने आस्था के सवाल को धर्म
की राजनीति तक सीमित रहने दिया है। हमें यह समझ है कि वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था में हर कोई भरपेट नही खा
सकता, पर हम इस असफलता को अपने स्वार्थ और जड़ता से जोड़ कर देखना नहीं चाहते। हमें एक आसान सा कारण
चाहिए- अपनी असंतृप्त भोग और विलासिता की इच्छा हम अपनी सांप्रदायिक सोच से पूरी करते हैं।
गुजरात को गुजरात कह देने से हम बरी नहीं हो सकते। सांप्रदायिक सोच आज की हिंदू मानसिकता में गहरे पैठा हुआ
है। विश्व हिंदू परिषद को आज नहीं, पिछले बीस साल से पैसे मिल रहे हैं। विदेशों में बसे हुए, अधिकतर विदेशी नागारिक
बन चुके हिंदू कट्टरपंथी ही ये पैसे देते हैं। इन सभ्य सुशिक्षित लोगों को अच्छी तरह पता है कि वे क्या कर रहे हैं। देश भर
में कई संगठनों के द्वारा कुप्रचार, आपसी वैमनस्य और हिंसा फैलाने में इन्हें जरा भी संकोच नहीं। इसीलिए वे संगठित
होकर अमेरिका में आनंद पटवर्धन की फिल्म का प्रदर्शन रूकवाते हैं, प्रगतिशील लोगों की वेबसाइट बंद करवाते हैं। हम
और आप यह जानते हैं कि वे लोग यह सब सिर्फ राम-सीता पर आस्था की वजह से नहीं कर रहे। इसके पीछे बुनियादी
हिंसक सांप्रदायिक भावनाएं काम कर रही होती हैं।
दुनिया के किसी भी सभ्य देश में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की सुरक्षा सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी होती है।
चुनावों में नेताओं द्वारा विभित्र संप्रदायों के प्रति प्रत्यक्ष या परोक्ष रियायतों की घोषणाएं भी होती हैं। इसके औचित्य पर
बहस हो सकती है,पर इसे सांप्रदायिक हिंसा का कारण बना लेना भयंकर बौद्धिक पिछड़ापन और उग्र उन्माद की पहचान
है। ऐसा जर्मनी में तीस के दशक में हुआ और आज भारत में हो रहा है। कमजोर मध्य-पंथी दलों का सहारा लेकर
नात्सी दल सत्ता में आया और दो दशकों मे बेशुमार तबाही कर गया। भारत में भी जिम्मेदार पदों पर आसीन राष्ट्रीय
नेता संविधान को धता बता कर अल्पसंख्यकों को डराने-धमकाने में लगे हुए हैं। यह जहर हमारा-आपका
ही है, जो इन नेताओं के होंठों से फूटता है।
आम बोलचाल से लेकर दिल्ली-मेरठ-भिवानी-अमदाबाद के दंगों तक ऐसे अनंत उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनमें
हिंदू सांप्रदायिकता पूर्वग्रह की अभिव्यक्ति से लेकर बर्बरता तक पहुंचती दिखलाई पड़ती है। फिर भी हम यह मानने को
तैयार नहीं हैं। इसीलिए इतिहास लेखन की बहस पर एक प्राय: अनपढ़ मंत्री गैर-जिम्मेदार बयान दे सकता है और प्रमुख
शिक्षा संस्थाओं में पुरातनपंथी प्रशासक थोप कर हस्तरेखाविद्या जैसी मूर्खता लागू करवा सकता है। सन 2002 में हम
आप इस तरह की बातों पर बहस कर सकते हैं और सूचना क्रांति और जैव-प्रौद्योगिकी के इस युग में अपनी तरक्की
दिखलाने के लिए आयातित टेक्नोलाजी से बनाए विध्वंसक शस्त्रों का जिक्र कर सकते हैं। इसी बीच देश के हर रेलवे स्
टेशन के दोनों ओर लाखों लोग हर सुबह निवृत्त होने के लिए बैठे रहते हैं और दुनिया के दो तिहाई देशों से मानव-विकास
आँकड़ों में पीछे खड़ा मेरा भारत महान और भी पीछे खिसक रहा होता है।
`ऐसे जिंदाबाद से मर जाना बेहतर समझता हूं'-कहने वाले अटल बिहारी का ढोंगी वाग्जाल हम सबकी पाखंडी
अभिव्यक्ति है। यही वह शख्स है, जिसने कहा था कि मुसलमानों के वोटों के बिना भी हम चुनाव जीत जाएंगे, इसी को
भुखमरी, अशिक्षा आदि से ऊपर जेहादी इस्लाम सबसे बड़ा दुश्मन दिखता है। सत्ता में आसीन पार्टियों के समर्थक भी
अधिकतर वही सांप्रदायिक लोग हैं, जो मुख्य विपक्षी पार्टी के समर्थक हैं। नही तो विशाल हिंदी क्षेत्र के कई इलाकों में
पिछले पंद्रह साल से `'हिंदुस्तान में रहना है तो हिंदू होकर रहना होगा' जैसे नारे कैसे लिखे हुए हैं? गुजरात की दंगा
पीड़ित औरतों को सांत्वना देने वाली पार्टी के लोगों को जैसे दिल्ली की दर्शन कौर याद नहीं है।
नरेंद्र मोदी के हट जाने पर सब ठीक हो जाएगा, यह सोचना बिल्कुल गलत है। नरेंद्र मोदी को तो हटना ही होगा,
बकौल प्रफुल्ल बिदवई नरेंद्र मिलोसेविच मोदी को जनसंहार के दोषी के रूप में कटघरे में भी खड़ा होना होगा। पर बहुत
कुछ हमें अपने बारे में भी सोचना होगा। कब तक आस्था के नाम पर हम अपने अंदर बसे गुजरात को जीते रहेंगे! अपनी
इंसानियत को हम कब सामने आने देंगे? और फिलहाल तो कोई बहुत बड़ी कोशिश नजर नहीं आती। जिस तरह
पाकिस्तान और बांग्लादेश में कुछ लोग सांप्रदायिकता और कट्टरपंथ के खिलाफ लड़ रहे हैं वैसे ही भारत में भी गिनती
के कुछ लोग मुखर हैं। पर मुख्यधारा और खासकर हिंदी के अधिकतर अखबारों में आज भी `गोधरा की प्रतिक्रिया' का
मुहावरा ही चल रहा है।
यहाँ तात्पर्य यह नहीं कि मात्र हिंदू को सांप्रदायिक सिद्ध किया जाए। सांप्रदायिक लोग हर समुदाय में हैं। एक ही जैसी
सोच विभिन्न समुदायों की सांप्रदायिकता को खाद-पानी देता है। हर व्यक्ति सांप्रदायिकता के वर्चस्व में पलता हुआ कुछ
हद तक सांप्रदायिक है। इसलिए पाकिस्तान में भी और हिंदुस्तान में भी सांप्रदायिकता और कट्टरपंथ विरोधी जद्दोजहद
की जरूरत है। इस भ्रम ने हमें बहुत नुकसान पहूंचाया है कि सांप्रदायिक सिर्फ `वे' हैं `हम' नहीं! वर्तमान सरकार और
इसके साथ जुड़ा कुख्यात परिवार इस सुप्त भावना को इस कदर इस्तेमाल करने और उसे जगाने में सक्षम हुआ है कि
आज देश के टूटने की प्रक्रिया की शुरूआत हो चुकी है। इसलिए इन असली गद्दारों से देश को बचाने के लिए, हिंदुस्तान
और पाकिस्तान को बचाने के लिए, हमें अपने अंदर के गुजरात को पहले नष्ट करना होगा। इतिहास ने हिटलर और
नात्सी जर्मनी को नकारा, पर इसकी कीमत सारी दुनिया को चुकानी पड़ी। इसके पहले कि बहुत देर हो जाए, हमें
समझना होगा कि अमदाबाद के गुजरात को गुजरात कह कर हम बरी नहीं हो सकते।
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