डायरी के पन्नों से: 1 मार्च 2002
एक
सुबह से लगातार बारिश।
भीगी ठंड।
है भी पर अवांछित किस्म की तपिश।
दफ्तर के काम हैं, बाल भी कटवाने हैं
अहमदाबाद में बढ़े हुए बाल कहां कटेंगे?
जो बाल जल जाते हैं, उनके बारे में चारूल और विनय
ई-मेल में लिखेंगे। चारूल विनय, तुम ठीक हो न?
दो
सौ आदमी चार घंटों में पचास आदमी जलाते हैं
हजार आदमी छीनेंगे कितने सपने चार दिनों में?
कितनों को नंगा करेंगे? कितनों पर डालेंगे तेजाब?
कितनी सूचनाएँ आएँगी?
कितनी शिलाओं पर कितने खून के धब्बों की?
कितनी अयोध्याएँ हैं मेरे देश में?
सोमवार को बेटी का गणित का पर्चा है।
कॉपी पर कलम बना रही तस्वीरें।
तीन
उनकी कोशिशों को मैं हास्यास्पद दौर मानता रहा
हर सुबह नींद टूटती कर्ण विदारक स्तुतियों से।
हिमालय के जंगलों में भी मौजूद थे वे।
मैंने माना कि यह हिटलर का युग नहीं और
बसंत के स्वागत में उड़ाता रहा पतंग।
घुप्प अंधेरे भूकंप के झटकों ने जगाया मुझे।
उन्होंने पहाड़ों पर लगा दी आग।
आग के समंदर में डूब रहे जाने-पहचाने लोग।
हारने से पहले आखिरी हँसी हँस रहा था हिटलर।
(दैनिक भास्कर 2002)
एक
सुबह से लगातार बारिश।
भीगी ठंड।
है भी पर अवांछित किस्म की तपिश।
दफ्तर के काम हैं, बाल भी कटवाने हैं
अहमदाबाद में बढ़े हुए बाल कहां कटेंगे?
जो बाल जल जाते हैं, उनके बारे में चारूल और विनय
ई-मेल में लिखेंगे। चारूल विनय, तुम ठीक हो न?
दो
सौ आदमी चार घंटों में पचास आदमी जलाते हैं
हजार आदमी छीनेंगे कितने सपने चार दिनों में?
कितनों को नंगा करेंगे? कितनों पर डालेंगे तेजाब?
कितनी सूचनाएँ आएँगी?
कितनी शिलाओं पर कितने खून के धब्बों की?
कितनी अयोध्याएँ हैं मेरे देश में?
सोमवार को बेटी का गणित का पर्चा है।
कॉपी पर कलम बना रही तस्वीरें।
तीन
उनकी कोशिशों को मैं हास्यास्पद दौर मानता रहा
हर सुबह नींद टूटती कर्ण विदारक स्तुतियों से।
हिमालय के जंगलों में भी मौजूद थे वे।
मैंने माना कि यह हिटलर का युग नहीं और
बसंत के स्वागत में उड़ाता रहा पतंग।
घुप्प अंधेरे भूकंप के झटकों ने जगाया मुझे।
उन्होंने पहाड़ों पर लगा दी आग।
आग के समंदर में डूब रहे जाने-पहचाने लोग।
हारने से पहले आखिरी हँसी हँस रहा था हिटलर।
(दैनिक भास्कर 2002)
Comments