नवउदारवाद
और निजीकरण के दौर में जैसे
जैसे विरोध बढ़ रहा है,
व्यवस्था
द्वारा दमन भी बढ़ता जा रहा है।
हाल ही में पंजाब विश्वविद्यालय,
चंडीगढ़,
में फीस बढ़ाने
पर शांतिपूर्ण तरीके से विरोध
कर रहे छात्रों पर पुलिस बुलाकर
क्रूरता से हिंसक दमन की कारवाई
हुई। 18 मार्च
2014 को
विश्वविद्यालय परिसर में
कुलपति के दफ्तर के सामने धरना
और भूख हड़ताल पर बैठे विद्यार्थियों
को पुलिस ने बेरहमी से पीटा।
नौ छात्र नेताओं को गिरफ्तार
किया गया। थाना में भी उनको
बुरी तरह पीटा गया। ये छात्र
मुख्यधारा के राजनैतिक दलों
वाले संगठनों में से नहीं हैं।
अपनी बौद्धिक प्रखरता के लिए
जाने जाने वाले ये छात्र पिछले
कुछ समय से 'स्टूडेंट्स
फॉर सोसायटी' नामक
संगठन के नाम से सामाजिक
विसंगतियों और अन्य समकालीन
मुद्दों पर विश्वविद्यालय
में विमर्श आयोजित कर छात्रों
में जागरुकता फैलाने की कोशिश
करते रहे हैं। कुछ ही दिनों
पहले अंतर्राष्ट्रीय स्त्री
दिवस के अवसर पर इन्होंने
स्त्री-विषयक
मामलों पर सरगर्मी के साथ
गतिविधियाँ की थीं और छात्रों
में स्त्रियों के अधिकारों
के पक्ष में परचे बाँटे थे।
पुलिस ने उन्हीं छात्रों पर
इल्ज़ाम लगाया कि उन्होंने
एक महिला पुलिस कर्मी के साथ
छेड़खानी की है। असलियत यह है
कि ये राजनैतिक रूप से सचेत
छात्र हैं जो चंडीगढ़ और आसपास
के इलाको में लोकतांत्रिक
आंदोलनों जैसे झुग्गियों से
विस्थापन के खिलाफ और ऐसे ही
दीगर आंदोलनों में हिस्सा
लेते रहे हैं और पुलिसी दमन
का विरोध करते रहे हैं।
विश्वविद्यालय प्रशासन के
न्यौते से पुलिस को मौका मिल
गया कि वे इन युवाओं से बदला
लें।
कुलपति
प्रो. अरुण
ग्रोवर लंबे अरसे तक टाटा
इंस्टीटिउट ऑफ फंडामेंटल
रीसर्च (टी
आई एफ आर) में
कार्यरत रहे हैं और अतिचालकता
पर उच्च-स्तर
के प्रायोगिक शोध के लिए जाने
जाते हैं। टी आई एफ आर के
वैज्ञानिक अपनी लोकतांत्रिक
सोच और तरक्कीपसंद माहौल के
लिए जाने जाते हैं। प्रो.
ग्रोवर के
कुलपति बनने पर भी विश्वविद्यालय
में उम्मीद की लहर फैल गई थी
कि बौद्धिक माहौल में बेहतरी
होगी। पर उनके कार्यकाल के
तीन साल भी पूरे होने के पहले
ही आखिर ऐसी क्या गंभीर बात
हो गई कि पंजाब में आतंकवाद
के जमाने में भी जो नहीं हुआ
था, वह
इन मेधावी युवाओं के साथ हो
कर रहा, कि
इनको पुलिस की ऐसी मार पड़ी कि
पूरा क्षेत्र दहल उठा। केवल
विश्वविद्यालय के तरक्कीपसंद
अध्यापक ही नहीं, चंडीगढ़
शहर और आस-पास
के इलाकों में लोकतांत्रिक
सोच रखने वाले और नागरिक
अधिकारों के प्रति सचेत
कार्यकर्त्ताओं को इन
विद्यार्थियों के समर्थन में
उतरना पड़ा और उनके साथ कंधे
से कंधा मिलाकर कुलपति और
विश्वविद्यालय प्रशासन की
भर्त्सना करना पड़ी। जब हम इसकी
पृष्ठभूमि की पड़ताल करते हैं
तो हम शिक्षा में नवउदारवादी
घुसपैठ का घिनौना चेहरा और
उसके खतरनाक परिणामों से वाकिफ
होते हैं।
आज़ादी
की लड़ाई के दौरान और आज़ादी
के बाद के दो दशकों तक किसी ने
यह सोचा भी नहीं था कि सरकार
शिक्षा में अर्थ-निवेश
में भी कटौती कर सकती है। नब्बे
के दशक से आर्थिक सुधारों का
जो दौर शुरू हुआ उसके तहत
शिक्षा-संस्थानों
में निजीकरण की प्रक्रिया
बढ़ती चली। इससे एक ओर तो स्कूली
शिक्षा का स्तर लगातार गिरता
रहा और ग़रीबों के लिए कम
संसाधनों वाली और संपन्नों
के लिए अलग बेहतर सुविधाओं
से संपन्न शिक्षा को मान्यता
मिली; दूसरी
ओर उच्च शिक्षा में निम्न
मध्य-वर्ग
और दरिद्र परिवार के बच्चों
का आना मुश्किल होता चला।
फीसें बढ़ती रहीं और आज अधिकतर
कालेज- विश्वविद्यालयों
की फीस इतनी अधिक हो गई है कि
लगता है कि दो दशकों पहले तक
उच्च-शिक्षा
मुफ्त में दी जाती थी। जबकि
ऐसा नहीं था और उस जमाने में
भी कई छात्र आर्थिक समस्याओं
से पढ़ाई बीच में छोड़ देते थे।
अगर फीसें जितनी थीं,
उससे अधिक
होतीं तो आज के नामी-गरामी
बुद्धिजीवियों और प्रशासकों
में से कई यहाँ तक पहुँच ही न
पाते ।
15 फरवरी
को कुलपति की अध्यक्षता में
विश्वविद्यालय सिंडिकेट की
एक मीटिंग में यह निर्णय लिया
गया कि सभी 'रेगुलर'
कोर्सेस की
फीस 20% और
'सेल्फ
फाइनेंस्ड' कोर्सेस
की फीस 10% बढ़ाई
जाएगी। कई वर्षों से फीस में
नियमित रूप से लगातार बढ़ोतरी
होती रही है। 2008 से
पहले हर साल फीसें बढ़ाई गई
थीं। 2002-06 की
अवधि में हर साल 10% की
बढ़ोतरी होती रही। 2007-08
में भी फीस
5% बढ़ाई
गई। उसके बाद छः साल फीसें बढ़ी
नहीं थीं। उच्च शिक्षा में
पहले ही, खास
तौर पर प्रोफेशनल कोर्सेस का
खर्चा बढ़ता ही रहा हे,
चूँकि किताबों
की कीमतें बढ़ती रही हैं,
मुद्रास्फीति
में लगातार बढ़त से होस्टल में
भोजन का खर्च बढ़ गया है। पिछले
बीस साल में ऐसे कोर्सेस पढ़ने
वाले अधिकतर छात्र अलग-अलग
स्रोतों से 'लोन'
यानी कर्जा
लेकर ही पढ़ाई पूरी कर पाते
हैं। डिग्री पूरी करने पर
तुरंत उनके ऊपर यह दबाव आ जाता
है कि किसी तरह नौकरी लें और
सूद समेत कर्जा चुकाएँ। इसलिए
यह होना ही था कि छात्र फीस की
बढ़त के खिलाफ आवाज उठाएँ और
विरोध प्रकट करें। इस बार
विरोध का कारण सिर्फ संगठन
में सदस्यों को बढ़ाना जैसा
मसला नहीं था, क्योंकि
ये छात्र उस तरह के पेशेवर
छात्र-राजनीति
में हिस्सा लेने वाले लोग न
थे। ये गंभीर छात्र हैं,
जो चाहते
हैं कि युवा वर्ग में देश-समाज
को लेकर गंभीर बौद्धिक विमर्श
का माहौल बने।
छात्रों
ने कुलपति को भेजे अपने पहले
मेमोरेंडम में यह वाजिब बात
लिखी कि विश्वविद्यालय में
पढ़ने वाले छात्रों में 70%
लड़कियाँ हैं
और फीस बढ़ाने पर कई पालक उन्हें
पढ़ाई छुड़वाकर वापस घर बुला
लेंगे। समाज में पहले से ही
लड़कियों के प्रति नकारात्मक
रवैया है और विश्वविद्यालय
के हर समुदाय को इस स्थिति में
बदलाव के लिए पहल करनी चाहिए,
न कि स्त्रियों
के प्रति भेदभाव के माहौल को
बढ़ाना चाहिए। छात्रों ने यह
तर्क रखा कि फीस में बढ़त का
निर्णय ग़लत है और छात्रों
से और पैसे ऐंठने की कोशिश है।
उन्होंने कहा कि यह सबके लिए
समान शिक्षा के उद्देश्य को
नकारता है। ऐसी सूझ से लिखे
गए मेमोरेंडम को पढ़कर किसी
भी अध्यापक को, खास
तौर पर प्रो. ग्रोवर
जैसे प्रबुद्ध वैज्ञानिक और
चिंतक को छात्रों पर गर्व होना
चाहिए; पर
पंजाब विश्वविद्यालय में
उल्टा हुआ।
छात्रों
की माँग को कुलपति ने बिल्कुल
दरकिनार कर दिया। विश्वविद्यालय
प्रशासन का तर्क यह था कि हर
दूसरे विश्वविद्यालय में
फीसें बढ़ाई जा रही हैं। यह
मुखौटा उतरते नवउदारवाद का
भयंकर चेहरा सामने आने की
स्थिति थी। पर चूँकि पिछले
तीन सालों से फीसें बढ़ाई नहीं
गई थीं और होस्टल का खर्च भी
बढ़ाया नहीं गया था, इसलिए
प्रशासन ने छात्रों के साथ
बात तक करना ज़रूरी न समझा और
उनकी माँग को सीधे खारिज कर
दिया। इसकी एक वजह यह भी रही
होगी कि प्रशासन को पता था कि
ये छात्र कांग्रेस, बीजेपी
जैसे दलों के साथ जुड़े संगठनों
वाले हुल्लड़बाज स्वभाव के
नहीं, बल्कि
स्वतंत्र विचारों वाले,
मेधावी और
गंभीर छात्र हैं। यह अनुमान
रहा होगा कि थोड़े ही समय में
अपनी पढ़ाई के दबाव में या वैसे
थक-चूर
कर ये चुप हो जाएँगे।
इस
तरह छात्रों के लिए आंदोलन
शुरू करने के अलावा और कोई
रास्ता न बचा। 24 फरवरी
से 'स्टूडेंट्स
फॉर सोसायटी' के
सदस्यों ने वी सी दफ्तर के आगे
धरना शुरू कर दिया। दृढ़ता के
साथ 23 दिनों
तक छात्रों ने धरना चलाए रखा।
हर दिन धरना दे रहे छात्रों
के सामने से कुलपति गुजरते,
पर एकबार भी
उनसे बातचीत करने की ज़हमत
उन्होंने नहीं उठाई। यह केवल
उदासीन रवैया न था, यह
नवउदारवादी नीतियों से फायदा
उठाने वाली जमात के एक प्रतिनिधि
का संवेदनाहीन क्रूर चेहरा
था। विश्वविद्यालय अनुदान
आयोग (यू
जी सी) ने
विश्वविद्यालयों की मान्यता
के जो नियम बनाए हैं,
उनमें छात्रों
की माँगों के निपटारे के लिए
सधे हुए ढाँचे का भी उल्लेख
है, पर
यह गौरतलब है कि देश के प्रमुख
विश्वविद्यालयों में से एक
पंजाब विश्वविद्यालय में
इसकी कोई ज़रूरत नहीं समझी
गई है।
कई
अध्यापकों में छात्रों की
जायज माँग के प्रति प्रशासन
की उदासीनता को लेकर रोष था।
कुलपति ने अध्यापकों में यह
अफवाह फैलाई की फीस न बढ़ाने
पर सरकार से मिलते अनुदान रोक
दिए जाएँगे और इससे विभागों
में नए अध्यापकों की नियुक्तियाँ
रुक जाएँगी। कहा गया है कि
कुलपति ने 200 अध्यापकों
की नियुक्तियाँ रुकने का डर
दिखलाया। अध्यापकों में आतंक
फैलाने की इस तरह की शर्मनाक
कोशिशों पर क्या कहा जाए?
कहाँ तो
कुलपति को अध्यापकों और छात्रों
के साथ शिक्षा की बिगड़ती हालत
पर जनमत तैयार करने की कोशिश
करनी चाहिए और ऐसा न कर इस तरह
की पलायनवादी प्रवृत्ति का
सहारा लिया गया!
धरना
दे रहे छात्र 23 दिनों
तक शांतिपूर्वक अपना विरोध
प्रकट करते रहे। प्रशासन की
उदासीनता को चुनौती देते हुए
छात्रनेता रमिंदर सिंह ने 12
मार्च से
अनिश्चित कालीन भूख हड़ताल
शुरू कर दी। पालकों के साथ शहर
और आसपास के इलाकों के लोकतांत्रिक
सोच रखने वाले सभी लोगों ने
अपनी चिंता जाहिर करनी शुरू
की, पर
प्राशन टस से मस न हुआ। अखिल
भारत शिक्षा अधिकार मंच भी
इस घटनाक्रम को लेकर चिंतित
हो रहा था और प्रो. अनिल
सदगोपाल, प्रो.
मधु प्रसाद
और मंच के अन्य अधिकारी छात्र
नेताओं के साथ संपर्क में थे।
जैसे जैसे आंदोलन को विश्वविद्यालय
के छात्र समाज से मिलता समर्थन
व्यापक होता गया, प्रशासन
में तनाव बढ़ता चला और आखिरकार
उन्होंने पुलिस को बुलाकर
आंदोलन की रीढ़ तोड़ने का निर्णय
लिया। 18 मार्च
को चार ट्रकों में भर कर पुलिस
की टुकड़ियाँ परिसर में आईं।
एस एच ओ मल्कीयत सिंह की अगवाई
में पुलिस के सिपाहियों ने
भूख हड़ताल पर बैठे रमिंदर सिंह
को ज़बरन उठाने की कोशिश की।
वहाँ मौजूद छात्रों ने इसका
विरोध करना ही था। पुलिस ने
कोई 25 विद्यार्थियों
के उस समूह पर बेरहमी से हमला
कर दिया। लाठियों और बंदूकों
के पिछले हिस्से से उन्हें
पीटते हुए उनमें से 9
छात्रों को
धकेल कर ट्रकों में चढ़ाया गया।
जो छात्र मार खाते हुए ज़मीन
पर गिर जा रहे थे, उन्हें
भी वे पीटते रहे। थाना ले जाते
हुए और सेक्टर 11 के
थाना में पहुँचने के बाद भी
पीटने का यह सिलसिला खत्म न
हुआ। विड़ंबना यह है कि इन
सिपाहियों की तनख़ाहें भी
इतनी कम होती हैं कि उनके अपने
बच्चे बढ़ती फीसों की वजह से
उच्च शिक्षा से वंचित ही रह
जाएँगे।
छात्रों
को अपने बचाव के लिए किसी वकील
से मिलने की इजाज़त न दी गई।
यह सोचकर अचंभा होता है कि यह
सब आज के भारत में हो रहा था।
शहर के तरक्कीपसंद और दूसरे
लोग जो थाना पहुँचकर छात्रों
से मिलने चाहते थे, उन्हें
उनसे मिलने न दिया गया। पुलिसी
अत्याचार का ऐसा नमूना चंडीगढ़
में लंबे समय तक न देखा गया
था। पाँच घंटों तक उनकी डाक्टरी
जाँच न करवाई गई ताकि उनके चोट
के निशान पूरी तरह से न दिख
पाएँ। छात्रों पर भारतीय कानून
की दंड संहिता की धाराएँ 323
(जानबूझकर
किसी को चोट पहुँचाना),
332 (सरकारी
कर्मचारी के काम में बाधा
देना), 353 (सरकारी
कर्मचारी पर हमला करना),
354 (स्त्रियों
को जलील करने के लिए उनपर हला
करना) के
ऊल जलूल आरोप लगाते हुए एफ आई
आर दर्ज़ किए गए।
ज़ख्मी
छात्रों द्वारा बार-बार
माँग करने पर भी उनकी ओर से
कोई एफ आई आर दर्ज़ नहीं की
गई। दो दिनों तक ज़मानत तक
नहीं हो सकी। स्थानीय मीडिया
और नागरिक मंचों ने तीखे स्वर
में विश्वविद्यालय प्रशासन
और पुलिस की आलोचना की। संयोग
से अगले ही दिन, 19 मार्च
को 'स्टूडेंट्स
फॉर सोसायटी' ने
23 मार्च
के अमर शहीद भगत सिंह,
सुखदेव और
राजगुरू को श्रद्धांजलि देने
के लिए सास्क़तिक कार्यक्रम
आयोजित किया हुआ था,
जिसमें
महाराष्ट्र से कबीर कला मंच
और दिल्ली से पंजाब तक के कई
लोक कलाकारों ने अपने गीत और
नाटक पेश करने थे। हालाँकि
अधिकतर छात्र धरने पर बैठे
थे और कुछ जुलूस निकालकर विरोध
प्रकट कर रहे थे, कार्यक्रम
में शहर और बाहर के दो ढाई सौ
लोग शामिल हुए। अंग्रेज़ी के
अध्यापक प्रो. अक्षय
कुमार ने खुल कर विश्वविद्यालय
प्रशासन की आलोचना की और परिसर
में गैरलोकतांत्रिक माहौल
के प्रति चिंता व्यक्त की।
सास्कृतिक कर्मियों ने पूरे
जोश के साथ अपने कार्यक्रम
पेश किए और सामान्य से अधिक
उत्साह के साथ इंकलाब ज़िंदाबद
के नारे हॉल में गूँजते रहे।
दूसरे
ही दिन जम्हूरी अधिकार सभा
की पंजाब इकाई की एक टुकड़ी
जाँच के लिए परिसर में पहुँची।
अधिकार सभा के जाने माने
कार्यकर्त्ता, भगत
सिंह के भानजे प्रो.
जगमोहन सिंह
और वामपंथी विचारक डा.
प्यारेलाल
गर्ग, पत्रकार
दलजीत अमी, शिवेंद्रपाल
सिंह आदि ने छात्रों के समर्थन
में भाषण दिए। शाम तक गिरफ्तार
छात्रों को जमानत पर रिहा किया
गया। उन पर पड़ी बेरहम मार के
निशान देख कर लोगों के दिल दहल
गए।
दो
दिनों बाद 22 मार्च
को विश्वविद्यालय की सीनेट
की मीटिंग के दौरान छात्रों
का हुजूम प्रशासन की मुख्य
इमारत के सामने उमड़ पड़ा। बाहर
चल रहे चार घंटों के उस विरोध
के दौरान अंदर सीनेट के सदस्यों
ने कुलपति की जोरदार आलोचना
की और प्रशासन फीस में बढ़त को
वापस लेने को मजबूर हुआ।
जम्हूरी
अधिकार सभा ने अपनी जाँच में
सभी तथ्य विश्वविद्यालय
प्रशासन के खिलाफ पाए। अपनी
रिपोर्ट में सभा ने छात्रों
पर ज़ुल्म का विरोध करते हुए
यह माँग रखी है कि पुलिस की
कारवाई पर किसी कार्यरत
न्यायाधीश से जाँच करवाई जाए
और दोषियों को सजा दी जाए।
उनकी पाँच माँगों में यह भी
शामिल है कि फीस की बढ़त पर
पुनर्विचार करते हुए छात्रों
के विरोध के अधिकार को स्वीकार
करते हुए विरोध की स्थिति में
उनसे बातचीत करने के उचित
तरीके ढूँढे जाएँ और इसके लिए
लोकतांत्रिक ढाँचे बनाए जाएँ।
गौरतलब
बात यह है कि नवउदारवादी नीतियों
के ऐसे परिणाम अब और दिखेंगे।
खासतौर पर अगले संसदीय चुनावों
में कट्टरपंथी ताकतों को जिस
तरह समर्थन मिलता दिख रहा है
और मुख्यधारा के अन्य दलों
में भी पूँजीवाद के समक्ष
घुटने टेक देने की जो स्थिति
दिख रही है, वह
गंभीर चिंता का विषय है। भारत
में शिक्षा में बराबरी और स्तर
में गुणात्मक बढ़त का संघर्ष
और तीखा होगा, फिलहाल
आगे का परिदृश्य ऐसा ही दिखता
है।
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