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कहाँ है पद्य


मैं क्यों गद्य कविताएँ लिखता हूँ
बहुत दूर से एक आदमी पूछ रहा है
उसकी आवाज़ देर तक आती है
तुम
    क्यों 
        गद्य कविता
                    लिखते हो
मैं गद्य लिखता हूँ मैं रोटी खाता हूँ मैं कविता लिखता हूँ मैं पूरब-पश्चिम होता हूँ मैं क्या लिखता हूँ मैं क्या पढ़ता हूँ मैं 
जो भी करता हूँ उसमें कहाँ है पद्य
कहाँ है पद्य ओबामा ओसामा मनमोहनम चितअंबरम मोदी मोदी मोदी कहाँ है पद्य जानना बहुत ज़रूरी है 
उसकी हताशा दब जाती है मेरी व्याकुलता में कहाँ है पद्य 
'ক্ষুদ্র আশা নিয়ে রয়েছে বাঁচিয়ে, সদাই ভাবনা।
'যা-কিছু পায় হারায়ে যায়, না মানে সান্ত্বনা।'
--तनिक सी आस बची है पास, हर पल चिंता होती ।
जो कुछ पाए वह खोते जाए, तसल्ली हो ना पाती। - - (रवींद्रनाथ ठाकुर)

सब ठीक है।
पूछता चला हूँ कि मैं कौन हूँ और सुनता रहा हूँ कि यही है, इसी का जवाब मिल जाए तो सभी ताले खुल जाएँगे। सृष्टि की शुरुआत से आज तक यही सवाल पूछता रहा हूँ; सूरज उगता देखता हूँ, अस्त होता देखता हूँ, यही पूछता रहता हूँ। ज्ञानपापी हूँ, जानता रहा हूँ कि विशाल है ब्रह्मांड और कि मैं कुछ भी नहीं।
कथाओं-व्यथाओं की भीड़-भाड़ में से बचता बचाता यही लिखना चाहता रहा हूँ कि हे विशाल, मुझे दृष्टि दो।

होता यह है कि हवा धीरे बहती है, रात थमी रहती है. मैं भूल नहीं पाता कि एक स्त्री है जो मेरा कमरा साफ करती है; वह सुबह काम शुरू करती है और दोपहर तक लगातार कमरे ही साफ करती रहती है, मैं यह सोचता रह जाता हूँ कि क्या इसके बच्चे वैसे ही सपने देते हैं जैसे मेरा बच्चा देखता है; मुझे दिखता है एक आदमी बीच सड़क जान की परवाह नहीं मेरी गाड़ी के सामने बदन फैलाए खड़ा हुआ। उसे अठन्नी पकड़ाते हुए सोचता रह जाता हूँ कि यह वही तो नहीं जिसे आधी रात में पैदल नदी पार कर बच्चा जनाने अपनी बीबी को ले जाना पड़ा था...

मैं लिखता हूँ हे विशाल, मुझे दृष्टि दो पर जो दिखता है और नहीं दिखता, उसे देखने की ताकत दो न! ओ सृष्टि के नियमों, कुछ ऐसी भौतिकी चलाओ कि जो दिखे वह सचमुच दिखे।

या कि जैसे ईश्वर ठीक है, वैसे ही ठीक है यह खयाल कि कोई जवाब है जिससे सभी ताले खुल जाएँगे। सब ठीक है। फिलहाल ईश्वर ने जो जंग छेड़ी है मैं उसे देखता रहता हूँ।

मैं विक्षिप्त नंगा नाचता हूँ जब हर दिशा से आती हैं सुसज्जित गद्य में पद्य में लूट बलात्कार की खबरें 
हर तरफ आदमी दिखता है लुटा हुआ 
लूट सुनाई पड़ती है हर भाषा में            हिंदीउर्दूसंस्कृतअंग्रेज़ी में 

तभी निकल पड़ते हैं वे जो प्यार करते हैं जो हमें झंझावात की तरह खींच ले जाते हैं 
पुरानी गंदी गलियों में से गुजरते हुए हम सब मिलकर गीत गाते हैं 
दहकती लू में ठंडी हवाओं में हम सब मिलकर गीत गाते हैं 
शहरों में जंगलों में हम सब मिलकर गीत गाते हैं 
अपने बचपन में वयस्क जीवन में हम सब मिलकर गीत गाते हैं 
स्मृतियों की गड्डमड्ड धक्कमपेल में हम सब मिलकर गीत गाते हैं 
प्रेम की लंबी रातों में          प्रेम जो हमें तड़पाता रुलाता हँसाता रहता है       
प्रेम में जलते हुए खिलते हुए हम सब मिलकर गीत गाते हैं 

इस गद्यमय दुनिया को
धीरे धीरे बदल रही है हमारे स्वरों की रुनझुन। मैं यही तो लिखता हूँ । मैं गद्य के पद्य के सारे बंधन तोड़कर लिखता हूँ । 
अपनी विक्षिप्तता में तुम्हें शामिल करता लिखता हूँ। 

‘‘अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे। तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।’’

(सदानीरा - 2013)

Comments

Unknown said…
lyrical prose, very few people write the way Laltu does. liked it
मैं विक्षिप्त नंगा नाचता हूँ जब हर दिशा से आती हैं सुसज्जित गद्य में पद्य में लूट बलात्कार की खबरें
हर तरफ आदमी दिखता है लुटा हुआ
लूट सुनाई पड़ती है हर भाषा में हिंदीउर्दूसंस्कृतअंग्रेज़ी मे

हाँ, हाँ बिलकुल यही !

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