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गर्मी

तकरीबन एक महीना गर्मी से बहुत परेशान रहे। दफ्तर और घर दोनों ऊपरी मंज़िल पर। संयोग से वर्षों से ऐसा रहा है। अब जिस कमरे में अस्थायी रुप से बैठ रहा हूँ, वहाँ ए सी है तो कम से कम काम के वक्त राहत है। हर कोई कहता है कि गर्मी बढ़ रही है। हैदराबाद में ए सी की ज़रुरत होनी नहीं चाहिए, पर या तो उम्र बढ़ रही है इस वजह से या सचमुच गर्मी बहुत होने की वजह से इस साल परेशानी ज्यादा है। चारों ओर कंक्रीटी जंगल फैल रहा है। बहुत पहले कभी बच्चों के लिए एक कविता लिखी थी, शीर्षक था 'पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या?' कभी ढूँढ के पोस्ट करेंगे। फिलहाल तो बेटी के ताने सुन रहा हूँ कि बस गर्मी गर्मी रट लगाए हुए हो।

गर्मी ज्यादा हो तो स्वतः अवसाद होता है। जो भी ठीक नहीं है वह कई गुना बेठीक लगने लगता है। स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। कहते ही हैं, ज्यादा गर्मी मत दिखाओ। ऐसे में कभी कभार शाम को ठंडी बयार चल पड़े तो लगता है जन्नत के दौरे पर निकले हैं। ऊपरी मंज़िल होने का यह फायदा है कि बरामदे पर इधर से उधर चलना भी सैर जैसा है। बदकिस्मती से पड़ोस वालों ने मकान पर एक मंजिल और बढ़ा ली है, इसलिए उधर से हवा रुक गई है, फिर भी हवा को बलखाने के लिए कोण मिल ही जाते हैं। और फिर पिछवाड़े में छोटा सा जंगल है, जहाँ ऊँचे पेड़ों के पत्ते सरसराते रहते हैं।

तीन दिनों बाद कुछ हफ्तों के लिए विदेश जाना है। गर्मी से तो राहत मिलेगी, पर यह शाम का मजा मिस करेंगे। और जो अनगिनत लोग इसी गर्मी में मर खप रहे हैं, उनको कैसे भूलें!

आज हिंदू में हर्ष मंदेर का विनायक सेन पर अच्छा आलेख है।

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