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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Monday, July 21, 2008

'क्या यह व्यक्ति अँधेरावादी है?'


अँधेरा होता देखकर उसने कहा कि देखो अँधेरा गहरा रहा है। जिन्हें अँधेरे से फायदा है,वे तलवारें खींच लाए। जिन्हें अँधेरे से कोई परेशानी नहीं, वे लोग कहने लगे कि यह आदमी अँधेरे की ही बात करता रहता है। सबसे मजेदार वे लोग हैं जिन्हें अँधेरे से चाहे अनचाहे फायदा होता है तो भी वे छिपाना चाहते हैं और कहना चाहते हैं कि वे अँधेरे के खिलाफ हैं, वे सब उठकर कहने लग गए, कि यह आदमी अँधेरे का एजेंट है। कई तरह से वे इस बात को कहते हैं, कोई बहस छेड़ता है, 'क्या यह व्यक्ति अँधेरावादी है?' शीर्षक से वह उसकी अँधेरे के खिलाफ रचनाएँ चुन चुन कर ब्लॉग पर डालता है। कोई साफ कहता है कि देखो इस आदमी ने अँधेरे के बारे में इतनी बातें की हैं, इसकी नज़र धुँधली हो गई है।
इसी बीच अँधेरा घना होता रहता है। अँधेरे में भले से भले लोग फिसलते गिरते रहते हैं। उससे रहा नहीं जाता तो वह प्रतिवाद करता है कि यह क्या, मैंने तो बहुत कुछ कहा है, अँधेरा तो है ही सबके सामने। अँधेरे का जिक्र न करने से अँधेरा गायब तो नहीं होगा।
मजेदार लोग, मुल्क की तमाम संकीर्णताओं से उपजे लोग, घर-बाहर पुरुष, समाज में उच्च, जोर जोर से चिल्लाते रहते हैं कि वह अँधेरे की बात कर रहा है। चारों ओर फैला अँधेरा दानवी हँसी हँसता रहता है। तलवारें खींचे लोग पीछे हट गए यह कहते हुए कि मज़ेदार लोग हमारा काम कर ही रहे हैं।

पिता
वह गंदा सा चुपचाप लेटा है
साफ सफेद अस्पताल की चादर के नीचे
मार खाते खाते वह बेहोश हो गया था
उसकी बाँहें उठ नहीं रही थीं ।
धीरे चुपचाप वह गिरा
पथरीली ज़मीन पर हत्यारों के पैरों पर ।
सिपाही झपटा
और उसका बेहोश शरीर उठा लाया
उसकी भी तस्वीर है अखबारों में
मेरे ही साथ छपी
मैं बैठा वह लेटा
चार बाई पाँच में वह पिता मैं बेटा ।
                                       - अप्रैल 2002

 ठंडी हवा और वह
ठंडी हवा झूमते पत्ते
सदियों पुरानी मीठी महक
उसकी नज़रें झुकीं
वह सोचती अपने मर्द के बारे में ।
बैठी कमरे में खिड़की के पास
हाथ बँधे प्रार्थना कर रही
थकी गर्दन झुकी
वह सोचती अपने मर्द के बारे में ।
शहर के पक्के मकान में
गाँव की कमज़ोर दीवार के पास
दंगों के बाद की एक दोपहर
वह सोचती अपने मर्द के बारे में ।
                                    - मार्च 2002 (पश्यंती 2004) 

हमारा समय
बहुत अलग नहीं सभ्य लोगों के हाल और चाल।
पिछली सदियों जैसे तीखे हमारे दाँत और परेशान गुप्तांग।

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चेहरों में एक चेहरा
वह एक चेहरा हार का
नहीं, ज़िंदगी से हारना क्लीशे हो चुका
वह चेहरा है मौत से हार का
मौत की कल्पना उस चेहरे पर
कल्पना मौत के अलग-अलग चेहरों की

वहाँ खून है, सूखी मौत भी
वहाँ दम घुटने का गीलापन
और स्पीडी टक्कर का बिखरता खौफ भी

ये अलग चेहरे 
हमारे समय के ईमानदार चेहरे
जो बच गए दूरदर्शन पर आते मुस्कराते चेहरे

दस-बीस सालों तक मुकदमों की खबरें सुनाएँगे
धीरे-धीरे ईमानदार लोग भूल जाएँगे चेहरे
अपने चेहरों के खौफ में खो जाते ईमानदार चेहरे।
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जंगली गुलाब जड़ से उखाड़ते पर मशीनों से अब
लाचार बीमार पौधे पसरे हैं राहों पर उसी तरह 

राहें जो पक्की हैं
सदी के अंत में अब।
                                             - (
साक्षात्कार- मार्च 1997)

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3 Comments:

Blogger परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बेहतरीन!

ये अलग चेहरे हमारे समय के ईमानदार चेहरे
जो बच गए दूरदर्शन पर आते मुस्कराते चेहरे
दस-बीस सालों तक मुकदमों की खबरें सुनाएँगें
धीरे-धीरे ईमानदार लोग भूल जाएँगे वे चेहरे

7:18 PM, July 21, 2008  
Blogger अनिल रघुराज said...

दिमाग के जरिए दिल तक पहुंचनेवाली कविताएं। शुरू के गद्य ने बरबस दुष्यंत की ये लाइन याद करा दी कि...
मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

7:43 PM, July 21, 2008  
Anonymous Anonymous said...

This comment has been removed by a blog administrator.

12:05 AM, July 29, 2008  

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