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वाटर

23 मई:
१९९९ में दीपा मेहता की फिल्मों को लेकर हंगामा हो रहा था, मैंने पंजाब विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की ओर से एक परिचर्चा आयोजित की थी। दीपा की मित्र और प्रख्यात नाट्य निर्देशक नीलम मानसिंह चौधरी ने बड़े जोरदार लफ्जों में सांस्कृतिक फासीवाद का विरोध किया था। मुझे वह परिचर्चा इसलिए याद है क्योंकि जिस साथी को मैंने नीलम को बुलाने का भार दिया था, वह स्वयं उन दिनों के सुविधापरस्त बुद्धिजीवियों में से था, जो गाँधीवादी राष्ट्रवाद जैसे किसी नए मुहावरे से दक्षिणपंथी व्यवस्था को भुनाने में लगे थे और उस दिन आखिरी क्षण में पता चला था कि नीलम को सूचना तक नहीं मिली। संयोग से नीलम तभी दिल्ली में दीपा में मिल कर आई थी और इस विषय पर भावुकता से भरी थी। मेरे कहने पर वह तुरंत पहुँची और गहराई और गंभीरता से विषय पर बोली। बहरहाल, तब से कई बार मौका मिलने पर भी दीपा मेहता की फिल्में देख नहीं पाया हूँ। कभी कभार कहीं टुकड़ों में कुछ हिस्से देखे थे। आज इतने सालों के बाद 'वाटर' देखी। कहानी तो खैर पहले से मालूम थी। छोटी बच्ची 'चुहिया' बाल-विधवा होने पर जबरन बंगाल के गाँव से उठाकर काशी में आश्रम में भेज दी जाती है। वहाँ दूसरी विधवाओं के साथ उसका रहना फिल्म की कहानी है। फिल्म देखता हुआ हमेशा की तरह रो पड़ा। ऐसे मौकों में अपराध बोध, गुस्सा, आक्रोश, अवसाद, सब एक साथ दिमाग पर हावी हो जाते हैं। वृंदावन की विधवाओं पर पहले बनी एक डाक्यूमेंट्री देख चुका हूँ। वह भी विदेश में देखी थी। वैसे बचपन से बांग्ला उपन्यासों में विधवाओं के बारे में पढ़ता रहा हूँ, फिल्मों में भी देखा है। पर संभवतः बच्ची की भूमिका में सरला के अभिनय ने मन पर काफी प्रभाव डाला। आखिर में गाँधी के शब्द '...मैं लंबे समय तक मानता था कि ईश्वर ही सत्य है ....मेरी समझ में आया है कि सत्य ही ईश्वर है,' एकबारगी उन तमाम नव-उदारवादियों को धत्ता बता जाते हैं जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चपेट से अभी तक निकले नहीं हैं। सत्य यह है कि भारत एक ऐसा मुल्क है जहाँ बहुलता दबी-कुचली है। जहाँ बच्चों के साथ अमानवीय सलूक होता है। फिल्म में दीपा ने मूल कहानी के मुताबिक १९३८ का भारत दिखलाया है, पर अभी भी अनगिनत बाल-विवाह होते हैं, विधवाओं के साथ बुरा बर्त्ताव होता है। सवाल सिर्फ विधवा होने न होने का नहीं है, आम तौर पर हमारे समाज शास्त्री जिन सवालों पर कलमें घिसते हैं, उसमें सच्चाई की जगह क्रमशः कम और पुनरुत्थानवादी चिंतन की जगह बढ़ती गई है। फिल्म में एक विधवा कल्याणी आत्महत्या कर लेती है क्योंकि उसका सामाजिक रुप से सचेत प्रेमी ऐसे बाप का बेटा है जिसने कल्याणी की मजबूरी का फायदा उठाकर उसका शरीर भोगा है। हम सब ऐसे ही बापों के बेटे हैं, इसलिए हमारा चिंतन धुंध में खोया है। बाप बेटे को समझाता है कि उस औरत के साथ उसके सोने से औरत का फायदा हुआ है। यह उसी तरह का तर्क है जो बहुत कम पैसों में घर में नौकर रखने के लिए दिया जाता है।

मैं लिखना तो बहुत कुछ चाहता हूँ पर सिर्फ इतना कहकर बात खत्म करुँ कि भारतीय सामाजिक विज्ञान की दुनिया में एक तरह का ढीठपन है, मुझे लंबे समय से लगता है यह हमारी अपनी सुविधापरस्त पृष्ठभूमि की वजह से है। जितना इस पर सोचा जाए, आश्चर्य होता है कि इतनी बड़ी तादाद में लोग एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था के साथ जी रहे हैं और आज तक संसदीय प्रणाली से जुड़े जन-संगठनों पर पाखंडी कुलीनों का वर्चस्व बना हुआ है। मुझे अक्सर लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को सुओ मोटो नोटिस लेना चाहिए कि भारत में अधिकांश बच्चे न केवल अच्छे स्कूल में नहीं जा पाते, उन्हें न्यूनतम पोषक तत्वों से पूर्ण खाना तक नहीं मिलता। यह सरकार की पहली जिम्मेवारी होनी चाहिए कि कम से कम चौदह साल तक की उम्र के बच्चों के लिए सारी और एक जैसी सुविधाएँ उपलब्ध हों। इसके लिए जो खर्च होगा, वह कई अन्य राष्ट्रीय व्ययों से कही ज्यादा कम है (जैसे पारमाणविक शोध, सुरक्षा खाता आदि)। हमारे लोग, हमारे बच्चे हमारे लिए अदृश्य हैं, क्योंकि वे हमारे बच्चे नहीं हैं, वे हम कुलीनों के बच्चे नहीं हैं।

Comments

Pratyaksha said…
सही ..लेकिन कितने लोग हाथ उठाते हैं ? उठाने की सोचते तक हैं ? और अगर सोच लेते हैं तो करते क्या हैं ?... जब तक कुलीन नहीं हैं ज़ोर नहीं है ..जब कुलीन हैं या बन जाते हैं , ताकत आ जाती है तब सब अदृश्य हो जाता है ... आसान रास्ता है , गिल्टफ्री रास्ता है ... ऐसी जगहों पर अवसाद का क्या काम ?
azdak said…
सीधे राष्‍ट्रीय राजनीतिक कार्यक्रम वाली बात है. तो राजनीतिक दलों के एजेंडे में तो अब उन्‍हीं सवालों को जगह मिलती है जिसके लिए सड़कों पर लड़ाई की जाये, सौ-सवा सौ जानें जायें. बच्‍चे तो यह लड़ाई लड़ने से रहे, फिर?
बात सही है किन्तु यह भी सही है कि हमारे नेताओं के लिये बचपन ऐसा विषय है ही नहीं जिस पर एक पल के लिये सोचा भी जा सके

- प्रदीप कान्त

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