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Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Friday, February 29, 2008

प्रोफेशनल अवसादी और धंधा-ए-अवसाद

मैं अपने आप को प्रोफेशनल अवसादी कह सकता हूँ। करें भी क्या - चारों ओर रुलाने के लिए भरपूर सामग्री है। एक मित्र ने पूछा कि सुखी हो - मैंने लिखा कि सुखी तो नहीं हूँ, पर दुःखों के साथ जीना सीख लिया है। यहाँ तक कि अपने दुःखों के साथ जीते हुए दूसरों को सुख देने में भी सफल हूँ। एक और मित्र का कहना है कि फिर मेरा अवसादी होने का दावा ठीक नहीं है। उसके मुताबिक विशुद्ध अवसादी वही हो सकता है जो दूसरों को रुलाने में सफल है। उस तरह से देखा जाए तो बुश और मोदी में अच्छी प्रतियोगिता हो सकती है कि अवसाद विधा में नोबेल पुरस्कार किस को मिलेगा।

बहरहाल एक साथी अध्यापक ने इस चिंता के साथ कि मेरे अवसाद को अड्डरेस किया जाना चाहिए, मुझे बतलाया कि मुझे अवसाद मोचन के धंधे में जुटी एक कंपनी द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम की जानकारी पानी चाहिए। वह खुद अपने किसी बुज़ुर्ग अध्यापक के कहने पर इस कंपनी के चार दिवसीय कार्यक्रम को झेल रहा था। आखिरी दिन यानी मंगलवार की शाम को प्रतिभागियों को कहा गया था कि वे अपने किसी परिचित को साथ लाएँ ताकि इस अद्भुत इन्कलाबी शिक्षा की जानकारी मेहमानों को भी मिल सके।

बहरहाल मैंने अपने उदारवादी होने के निरंतर दावे के मुताबिक मान लिया कि मुझे एक शाम इस जरुरी काम के लिए बितानी चाहिए। दफ्तर से साढ़े पाँच बजे निकले थे। हैदराबाद की गंदी ट्रैफिक से जंग लड़ते हुए हम दोनों वक्त से पहले ही सभागार पहुँचे। यह तो अच्छा था कि पंद्रह मिनट हाथ में थे, इससे एक कप चाय पीने का वक्त मिल गया। साथी ने बाद में बतलाया कि साढ़े सात से शुरु होने वाला सेशन पौने ग्यारह तक चलेगा और राहत के लिए सिर्फ पानी। वैसे उनके चार दिवसीय कार्यक्रम के लिए फीस है साढ़े छः हजार रुपए।

सेशन की शुरुआत दिल्ली के व्यापारी से पहचानशिला शिक्षा के अग्रणी बने अधेड़ के भाषण से हुआ। कि कैसे जनाब नहीं नहीं करते भी एक बार इस शिक्षा को ले ही बैठे और तब से जीवन बदल चुका है - जीवन में अवसाद की जगह नहीं बची, पत्नी से संबंध बेहतर हो गए हैं आदि आदि। फिर चार दिनों में लाभ उठा चुके दो लोगों ने - एक युवती और एक अधेड़ ने सुनाया कि उन्हें क्या लाभ पहुँचा। सुंदरी युवती दूर शहर से अपनी चचेरी बहन के कहने पर कालेज की परीक्षाएँ न देकर पहचानशिला शिक्षा के लिए आई थी। अधेड़ ने जाना था कि उसे अपने पिता से बात किए लंबा अवसर गुजर चुका था और इन चार दिनों में ही उसने पिता से फोन पर बात की। सुनते हुए मुझे लगा कि मेरी माँ जो रोती रहती है कि मैं उसे फोन नहीं करता मुझे तुरंत उसे फोन करना चाहिए। पर ऐसा निकम्मा हूँ कि इस बात को पाँच दिन हो गए, अभी भी नहीं किया।

बहरहाल, कई बार तालियाँ बजाने के बाद मेहमानों और प्रतिभागियों को अलग अलग कमरों में बाँट दिया गया। गौरतलब यह कि बड़े करीने से सोच समझके जुट बनाए गए। मैं जरा चिढ़ा कि मेरे समूह में ज्यादातर मेरे जैसे खूसट ही दिख रहे थे। फिर दिल्ली की ही (दिल्ली वैसे भी हर कमाल की बात में सामने होती है - या होता है, बाप रे मसिजीवी फिर पकड़ेगा) नितांत प्रवीणा सचमुच की अध्यापिका का दो घंटे का भाषण सुना। जिन बातों को कभी मैं बचपन में उपन्यास पढ़कर सीख चुका हुँ, उनको वृत्त, त्रिभुज आदि आकारों में उभरते देखा। ज्यामिति में जाना कि भविष्य अतीत से मुक्त नहीं होता है। मुसीबत यह कि गलती से ज्यादा पढ़लिख चुकने की वजह से हमेशा की तरह नौसिखियापन की बौछार से चिढ़ता रहा। किसी वजह से कोई कमरे से निकलता तो पीछे पीछे स्वयंसेवक/विका होता/ती। बहुत सारा समय इस बात में लगा कि इस महान शिक्षा से वंचित मत होवो, साढ़े छः हजार से वंचित हो जाओ। मुझे जोर से भूख लगी थी (अवसादी होने का मतलब यह नहीं कि पेट चुप मार जाए या फिर यही सच कि मेरा दावा गलत है)। अंत में मैं धीरे धीरे निकला और अभी तक अचंभित हूँ कि किसी ने पीछा नहीं किया या बाद में मुझे फोन नहीं किया (नंबर पहले ही लिखवा चुके थे)। फिर सोचा कि ये अवसादमोचन के धंधा करने वाले हैं, इन्हें भी यही लगा होगा कि बंदा अवसादी नहीं है। अब तो सचमुच मुझे सोचना ही पड़ेगा।

वैसे अगर सच ही हर कोई सुखी हो जाए, तो अवसाद मोचन के धंधों में जुटे इन ओझा टाइप्स का क्या होगा? सारे बेकार हो जाएँगे।

पारंपरिक सत्संगों और कथाओं की जगह ले रहे ये नए - जीने की कला, पहचानशिला मंच और तमाम ऐसे धंधे - कोई साढ़े छः हजार में और कोई मुफ्त - इन सबको वर्षों के अध्ययन से प्राप्त मनश्चिकित्सा की कुशलता से बहुत दुश्मनी है। वैसे आधुनिक चिकित्सा-तंत्र से चिढ़ मुझे भी है, पर मेरी चिढ़ सही पेशेवर प्रवृत्तियों के अभाव से है (एक गलाकाटू पेशेवर प्रवृत्ति भी होती है, मैं उसकी बात नहीं कर रहा, मैं कठिन श्रम और ईमानदारी की बात कर रहा हूँ), खुली सोच के व्यापक अभाव से है - न कि ज्ञान और अनुसंधान से। बदकिस्मती से बहुत सारे भले लोग अपनी सोच में इतने संकीर्ण हो गए हैं कि आधुनिक विज्ञान की संरचनात्मक संकीर्णता की तलाश करते करते वे अपने किस्म की ओझागीरी और रुढ़ि रचते जा रहे हैं और खुद को और दूसरों को उनका शिकार बनाते जा रहे हैं।

तो दोस्तो, रोने की तो आदत ही है। मेरे साथी ने मुझे बतलाया कि उसके सेशन में भी आगे के अडवांस्ड कोर्स में दाखिला लेना क्यों जरुरी है, यही चलता रहा। और बेचारा मेरे ही जैसा भूख का मारा चुपचाप झेलता रहा। अब वह भी चिढ़ गया है। कोई आश्चर्य है कि मुझे रोना आ रहा है!? यह पूछकर और मत रुलाओ कि क्या उस समझदार साथी ने इस कंपनी को साढ़े छः हजार थमाए थे - मैं जानना नहीं चाहता। इससे भी ज्यादा अत्याचार करना है तो मुझे याद दिला दो कि इस साथी का अध्यापक (जिसके कहने पर वह इस पहचानशिला मंच के प्रपंच में पड़ा) देश की सबसे अग्रणी माने जाने वाली विज्ञान शिक्षण और अनुसंधान संस्था में प्रोफेसर है।

प्रतिभागियों को भूखे रखने के पीछे वैज्ञानिक कारण है। पेट रोएगा तो दिमाग रोएगा और इससे कंपनी का धंधा बढेगा। मैं ऐसा खड्डूस हूँ कि चाहे जितना भूखा मार लो, साढ़े छः हजार हाथ से निकलने न दूँगा। दे ही नहीं सकता भाई। शायद यह गरीबी चेहरे पे दिखती होगी, इसीलिए तो किसी ने पीछा नहीं किया।

8 Comments:

Blogger मसिजीवी said...

लीजिए पकड़ लिया।। :)

पता नहीं कैसे अवसादी हैं आप हमें तो इस भड़ास अवसाद की रौव्‍वापीटी में आपकी इस पोस्‍ट को पढ़कर मुस्‍कराहट ही आई, अब आप चाहें तो इसे दिल्‍ली वालों का सैडिस्टि‍क होना कह लें।

3:25 PM, February 29, 2008  
Blogger अनिल रघुराज said...

इस धंधा-ए-अवसाद से दूर रहना ही बेहतर है। पढ़कर लगा जैसे एमवे के किसी सम्मेलन का नज़ारा हो। वैसे जो भी हो, आप लिखते अच्छा हैं।

3:59 PM, February 29, 2008  
Blogger ghughutibasuti said...

बहुत समय से आपको पढ़ना चाह रही थी परन्तु ना जाने कैसे रह जाता था। शायद जिस दिन आप लिखते हैं उस दिन मैं नेट से परहेज या नेट चलने से परहेज करता रहा होगा ।
लेख अच्छा लगा । साढ़े छः हजार बचाए रखने के लिए बधाई ।
हैदराबाद का ट्रैफिक जैसा भी हो, मुझे यह शहर बहुत पसंद है ।
घुघूती बासूती

3:15 AM, March 01, 2008  
Blogger Pratyaksha said...

पैसे बचे सो बचे और उससे ज़्यादा नॉन(?)अवसादी का सर्टिफिकेट मिला ...बुरा तो बिलकुल नहीं ..धंधा-ए-अवसाद का इतना फायदा तो हुआ !

7:50 AM, March 01, 2008  
Anonymous Anonymous said...

लाल्टू, इन धंधेवालों ने एक अच्छा काम तो किया ही है: तुम्हें लिखने के लिये प्रेरित (या मजबूर) किया, और यह क्या कम है?

6:27 PM, March 04, 2008  
Blogger rajivlochan said...

is tarah avsad ki baaten padhne se dil khush ho jata hai!! par rahe capitalist ke capitalist, sadhe chhe hazaar rupaye bacha liye.

rajivlochan

9:41 AM, March 08, 2008  
Blogger Sunil Aggarwal said...

लाल्टू भाई
उम्मीद से ज़्यादा दिनों बाद ही सही पर रसीला लेख आपका पढने को मिला। जब आप दस साल पहले ख़ुद को अवसादी कहा करते थे, तो बात समझ में ठीक से नहीं आती थी। आईएस बनने की चाहत थी, फिर सुखी गृहस्थी बनाने की चाहत थी, कुछ प्रसिद्ध होने की भी लालसा भी थी । अब थोड़ा साँस आना शुरू हुआ है अपने आप से। अवसाद की दो-चार गोलियां रोज़ खा लेता हूँ। कल शाम कॉलेज वालों ने भी एक टीका लगा दिया था। बस काम चल रहा है अब तो। निराशा को सात्विक कहने का भी ड्रामा नहीं कर पा रहा हूँ। उम्मीद की रस्सिओं से झूलने की सज़ा बीच-बीच में आकर फिर पकड़ लेती है। उसका अभी तक कोई इंतजाम नहीं हो पाया। शायद काफिर-गिरी करते-करते वो भी कोई रास्ता छोड़ जाए। आप का सारा ब्लॉग पढ़ के ऐसा लगता है की दो कुह्निओं से पहाड़ तो शायद नहीं हिला पर उसे यह अड़चन तो ज़रूर हो रही होगी की यह भाई साहिब, खुजली करने से बाज़ नहीं आ रहे।

7:02 PM, March 08, 2008  
Blogger प्रदीप कांत said...

लाल्टू जी,

बहुत बढिया। लेकिन आपकी परिभाषानुसार तो बुश और मोदी दोनो समान रूप से विशद्ध अवसादवादी हैं। अवसाद विधा का नोबेल पुरूस्कार दोनो को सयुक्त रूप से ही मिलेगा।

बहरहाल, साढ़े छः हज़ार बचा लेने की बधाई।

प्रदीप कान्त

11:45 AM, March 26, 2008  

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