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Showing posts from 2008

सबको नया साल मुबारक

लंबे समय से ब्लॉग लिखा नहीं। इधर कुछ कविताएँ पत्रिकाओं में आती रहीं तो लगा कि चलो कुछ तो लिखा। ऐसा होना नहीं चाहिए। जो लोग लिख रहे हैं अच्छा लिख रहे हैं। हालाँकि कभी कभी कुछ चीज़ें पढ़ कर हताशा होती है, फिर भी जो लिख रहे हैं, उनको धन्यवाद और बधाई। धरती पर बकवास करने वालों के लिए भी जगह है। किसी जनाब ने मेल भेजी कि हमारा ब्लॉग पढ़ो। चलो भई देख लिया। क्या, कि इस मुल्क में गीता पढ़ना सांप्रदायिक माना जाता है, और अमरीका में किसी कालेज में सबको गीता पढ़ाई जा रही है। मैं तकरीबन एक लाख हिंदुस्तानियों को तो जानता ही हूँगा, बहुत कोशिश की कि कोई ऐसा व्यक्ति याद आए जो मुझे इस वजह से सांप्रदायिक मानता हो कि मैंने गीता पढ़ी है। जिन हजारों अमरीकी लोगों को जानता हूँ उनमें से याद करने की कोशिश की कि कितने लोग गीता पढ़े होंगे। चूँकि मैं भारतीय हूँ तो जानकार अमरीकी लोगों में बहुत बड़ी तादाद उन लोगों की है जिनकी भारत में रुचि है। फिर भी ज़िंदा लोगों में से कोई याद न आया जिसने अंग्रेज़ी में भी गीता पढ़ी हो। वैसे नाभिकीय बम के पहले प्रोजेक्ट मैनहाटान प्रोजेक्ट के डिरेक्टर प्रख्यात वैज्ञानिक राबर्ट ओपेनहाइ...

दो कवितायें

वागर्थ के नवंबर अंक में छः कविताएँ आयी हैं। आखिरी दो कवितायें मिलकर एक हो गयी हैं। यानी कि छठी कविता के शीर्षक का फोन्ट साइज कम हो गया है। यहाँ दुबारा पोस्ट कर रहा हूँ। कल चिंताओं से रातभर गुफ्तगू की कल चिंताओं से रातभर गुफ्तगू की बड़ी छोटी रंग बिरंगी चिंताएँ गरीब और अमीर चिंताएँ स्वस्थ और बीमार चिंताएँ सही और गलत चिंताएँ चिंताओं ने दरकिनार कर दिया प्यार कुछ और सिकुड़ से गए आने वाले दिन चार बिस्तर पर लेटा तो साथ लेटीं थीं चिंताएँ करवटें ले रही थीं बार बार चिंताएँ सुबह साथ जगी हैं चिंताएँ न पूरी हुई नींद से थकी हैं चिंताएँ। *************************** वैसे सचमुच कौन जानता है कि वैसे सचमुच कौन जानता है कि दुःख कौन बाँटता है देवों दैत्यों के अलावा पीड़ाएँ बाँटने के लिए कोई और भी है डिपार्टमेंट ठीक ठीक हिसाब कर जहाँ हर किसी के लेखे बँटते हैं आँसू खारा स्वाद ज़रुरी समझा गया होगा सृष्टि के नियमों में बाकायदा एजेंट तय किए गए होंगे जिनसे गाहे बगाहे टकराते हैं हम घर बाज़ार और मिलता है हमें अपने दुःखों का भंडार। पेड़ों और हवाओं को भी मिलते हैं दुःख अपने हिस्से के जो हमें देते हैं अपने कंधे वे ...

शब्दः दो कविताएँ

1 जैसे चाकू होता नहीं हिंस्र औजार हमेशा शब्द नहीं होते अमूर्त्त हमेशा चाकू का इस्तेमाल करते हैं फलों को छीलने के लिए आलू गोभी या इतर सब्ज़ियाँ काटते हैं चाकू से ही कभी कभी गलत इस्तेमाल से चाकू बन जाता है स्क्रू ड्राइवर या डिब्बे खोलने का यंत्र चाकू होता है मौत का औजार हमलावरों के हाथ या उनसे बचने के लिए उठे हाथों में कोई भी चीज़ हो सकती है निरीह और खूँखार पुस्तक पढ़ी न जाए तो होती है निष्प्राण उठा कर फेंकी जा सकती है किसी को थोड़ी सही चोट पहुँचाने के लिए बर्त्तन जिसमें रखे जाते हैं ठोस या तरल खाद्य बन सकते हैं असरदार जो मारा जाए किसी को शब्द भी होते हैं खतरनाक सँभल कर रचे कहे जाने चाहिए क्या पता कौन कहाँ मरता है शब्दों के गलत इस्तेमाल से। 2 सीखो शब्दों को सही सही शब्द जो बोलते हैं और शब्द जो चुप होते हैं अक्सर प्यार और नफ़रत बिना कहे ही कहे जाते हैं इनमें ध्वनि नहीं होती पर होती है बहुत घनी गूँज जो सुनाई पड़ती है धरती के इस पार से उस पार तक व्यर्थ ही कुछ लोग चिंतित हैं कि नुक्ता सही लगा या नहीं कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन कह रहा है देस देश को फर्क पड़ता है जब सही आवाज नहीं निकलती जब किस...

चलो मन आज खेल की दुनिया में चलो

बिहार में बाढ़ की स्थिति और उड़ीसा के दंगों से मन ऐसा बेचैन था कि कई बार लिखते लिखते भी कुछ लिख न पाया। इसी बीच एक धार्मिक प्रवृत्ति के सहकर्मी ने कैंपस में हुई गणेश पूजा पर एक कविता लिखी। आम तौर पर मैं छंद में बँधी कविता में रुचि नहीं लेता, पर मुझे साथी की चिंताएँ ज़रुरी लगीं। उसे यहाँ दे रहा हूँ। गणपति बप्पा ************************** गणपति बप्पा लाये गये, सत्कार किया गया उनका . व्यवस्थित सज्जित कमरे में, आसन तैयार हुआ उनका. बैठाकर लोग जो लाये थे, कुछ इधर हुये कुछ उधर हुये. पता ही न चला उनका, जो लाये थे वे किधर गये. सुना गणपति जी ने सत्कार घोष, मन में मोद मनाया. क्षणिक थी वह घोष गर्जना,फिर छा गई चुप्पी छाया. सोचा मन में क्यों लोगों ने, लाकर यहां बैठाया. क्षणिक ही है यह श्रद्धा, सबने अपना व्यापार चलाया. कोई नहीं समय है देता, भक्ति श्रद्धा पूजा में, समय गंवाते मानव हैं सब, अपना पराया दूजा में. भूला भटका कोई आया, माथ नवाकर चला गया. कोई-२तो आकर बस, हाथ हिलाकर चला गया. यूं ही आते जाते हैं, कदाचित् फल फूल भोग चढा गये. एकान्त निर्जन कमरे में, लोग मुझे बस बिठा गये. क्यों बिठाया कुछ न क...

कामयाब ग़ज़ल

मैं आम तौर पर ग़ज़ल लिखता नहीं। भला हो उम मित्रों का जिन्होंने सही चेतावनी दी है समय समय पर कि यह तुम्हारा काम नहीं। पर कभी कभी सनक सवार हो ही जाती है। तो गोपाल जोशी के सवाल का जवाब लिखने के बाद से मन में कुछ बातें चल रही थीं, उनपर ग़ज़ल लिख ही डाली। कमाल यह कि यह ग़ज़ल दोस्तों को पसंद भी आई। साथ में जो दूसरी ग़ज़लें लिखीं, उन को पढ़कर लोग मुँह छिपाते हैं, भई अब दाढ़ी सफेद हो गई है, दिखना नहीं चाहिए न कि कोई मुझ पर हँस रहा है। तो यह है वह कामयाब ग़ज़लः बात इतनी कि हाइवे के किनारे फुटपाथ चाहिए कुछ और नहीं तो मुझे सुकूं की रात चाहिए मामूली इस जद्दोजहद में कल शामिल हुआ यह कि शहर में शहर से हालात चाहिए आदमी भी चल सके जहाँ मशीनें हैं दौड़तीं रुक कर दो घड़ी करने को बात चाहिए गाड़ीवालों के आगे हैसियत कुछ हो औरों की ज्यादा नहीं बेधड़क चलने की औकात चाहिए कहीं मिलें हम तुम और मैं गाऊँ गीत कोई सड़क किनारे ऐसी इक बात बेबात चाहिए ज़रुरी नहीं कि हर जगह हो चीनी इंकलाब छोटी लड़ाइयाँ भी हैं लड़नी यह जज़्बात चाहिए। **************************** तो यह तो ठहरी ग़ज़ल। अब ताज़ा हालात परः ********************...

एक क्षण होता है ऐसा

देशभक्त दिन दहाड़े जिसकी हत्या हुई जिसने हत्या की। जिसका नाम इतिहास की पुस्तक में है जिसका हटाया गया जिसने बंदूक के सामने सीना ताना जिसने बंदूक तानी। कोई भी हो सकता है माँ का बेटा, धरती का दावेदार उगते या अस्त होते सूरज को देखकर पुलकित होता, रोमांच भरे सपनों में एक अमूर्त्त विचार के साथ प्रेमालाप करता । एक क्षण होता है ऐसा जब उन्माद शिथिल पड़ता है प्रेम तब प्रेम बन उगता है देशभक्त का सीना तड़पता है जीभ पर होता है आम इमली जैसी स्मृतियों का स्वाद नभ थल एकाकार उस शून्य में जीता है वह प्राणी देशभक्त । वही जिसने ह्त्या की होती है जिसकी हत्या हुई होती है । मार्च २००४ (पश्यंती २००४)

अंत में लोग ही चुनेंगे रंग

गोपाल जोशी ने सवाल उठाया है कि सिर्फ समस्याओं को कहना क्यों, समाधान भी बतलाएँ। अव्वल तो समाधान की कोशिश ब्लॉग पर करना या ढूँढना मेरा मकसद नहीं है, मैं तो सिर्फ अपनी फक्कड़मिजाज़ी के चलते चिट्ठे लिखता हूँ। फिर भी अब बात चली है तो आगे बढ़ाएँ। समस्याओं के साथ जूझने का हम सबका अपना अपना तरीका है। एक ज़माना था जब लोग लाइन या एक निश्चित वैचारिक समझ की बात करते थे। हमलोगों ने कभी दौड़ते भागते पिटते पिटाते जाना कि हम मूलतः स्वच्छंदमना प्राणी हैं और लाइन वाला मामला हमलोगों पर फिट नहीं बैठता। ऐंड वाइसे वर्सा। दूसरे हमने यह भी जाना कि कुछ बुनियादी बातें हैं, जैसे बराबरी पर आधारित समाज, सबको न्यूनतम पोषकतत्वयुक्त भोजन, शिक्षा और आश्रय, आदि बातें, जिनके लिए कोई खास समझ की ज़रुरत नहीं होती, बस यह जानना ज़रुरी होता है कि आदमी आदमी है। जानवरों के साथ भी अच्छा सलूक करना है, यह भी बुनियादी बात है, पर मैं मांसाहारी हूँ, इसलिए .....। बहरहाल बात हो रही है समाधान की। भाई, जहाँ अंतरिक्ष और नाभिकीय विज्ञान जैसी चुनौतियों पर लोग भिड़े हुए हैं, वहाँ अगर गरीबी कैसे कम करें या गाँव गाँव में बेहतर स्कूल क्यों नहीं...

नहीं समझ सकते

बीस साल पहलेः उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी अपार्थीड वाली सरकार थी। नहीं समझ सकते कितने अच्छे हो सकते हैं हम उठ सकते कच्ची नींद सुबह पहुँच सकते दूर गाँव भीड़ भरी बस चढ़ भूल सकते दोपहर-भूख एक सुस्त अध्यापक के साथ बतियाते पी सकते एक कप चाय समझ सकते हैं पाँच-कक्षाएँ-एक-शिक्षक पैमाना समस्याएँ लौटते शाम ढली थकान ब्रेड आमलेट का डिनर पढ़ते नई किताब पर नहीं समझ सकते हम कि है अध्यापक नाखुश अपनी ज़िंदगी से कितने अच्छे हो सकते हैं हम बेसुरी घोषित कर सकते सोलह-वर्ष-अंग्रेज़ी शिक्षा फटी-चड्ढी-मैले-बदन-बच्चों से सीख सकते नए उसूल भर सकते आँकड़े रचे दर परचे सभा बुला सकते हैं सबको साथी मान साझा कर सकते हैं देश विदेश अपनी उनकी बातें मौका दे सकते हैं सबको बोलने का लिख सकते डायरी में मनन कर सकते फिर भी नहीं समझ सकते कि हैं कम पैसे वाले लोग नाखुश अपनी ज़िंदगी से कितने अच्छे हो सकते हैं हम दारु, फिल्में, कॉफी-महक-परिचर्चाएँ एक-एक कर छोड़ सकते हैं बन सकते आदर्श कई भावुक दिलों में हो सकते इतने प्रभावी कि लोग भीड़-धूल-सड़क में भी दूर से पहचान लें आकार लें हमारे शब्दों से गोष्ठियाँ, सुधार-मंच, मैत्री संघ...

गाओ गीत कि कोई नहीं सर्वज्ञ, कोई नहीं भगवान

पूछो कि क्या तुम्हारी साँस तुम्हारी है क्या तुम्हारी चाहतें तुम्हारी हैं क्या तुम प्यार कर सकते हो जीवन से, जीवन के हर रंग से क्या तुम खुद से प्यार कर सकते हो धूल, पानी, हवा, आस्मान शब्द नहीं जीवन हैं जैसे स्वाधीनता शब्द नहीं, पहेली भी नहीं युवाओं, मत लो शपथ गरजो कि जीवन तुम्हारा है ज़मीं तुम्हारी है यह ज़मीं हर इंसान की है इस ज़मीं पर जो लकीरें हैं गुलामी है वह दिलों को बाँटतीं ये लकीरें युवाओं मत पहनो कपड़े जो तुम्हें दूसरों से अलग नहीं विच्छिन्न करते हैं मत गाओ युद्ध गीत चढ़ो, पेड़ों पर चढ़ो पहाड़ों पर चढ़ो खुली आँखें समेटो दुनिया को यह संसार है हमारे पास इसी में हमारी आज़ादी, यही हमारी साँस कोई स्वर्ग नहीं जो यहाँ नहीं जुट जाओ कि कोई नर्क न हो देखो बच्चे छूना चाहते तुम्हें चल पड़ो उनकी उँगलियाँ पकड़ गाओ गीत कि कोई नहीं सर्वज्ञ, कोई नहीं भगवान हम ही हैं नई भोर के दूत हम इंसां से प्यार करते हैं हम जीवन से प्यार करते हैं स्वाधीन हैं हम।

क्या मैं विक्षोभवादी हूँ?

क्या मैं विक्षोभवादी हूँ? मैं माँग करता हूँ हवा से पानी से कि उनमें घुलते मिलते रंग गंध हों और कोई कह रहा है कि मैं विक्षोभवादी हूँ मुल्क में किसी भी समझदार व्यक्ति को पुकारा जाता है मार्क्सवादी कहकर दाल रोटी ज्यादा ज़रुरी है जीवन के लिए जानना मुश्किल कि मार्क्स कितना समझदार था क्या मैं समझदार हूँ? वैसे विक्षोभवादी होने में क्या बुरा है? सोचो तो रंग अच्छा है मार्क्सवादी भी कहलाना अच्छी बात है बशर्ते यह बात समझ में आ जाए कि इसका मतलब गाँधीजी का अपमान नहीं है हालांकि इसका मतलब यह ज़रुर है हम गाँधी के साथ खड़े हो जनता जनार्दन की जय कहते हैं चलो तय हुआ कि मैं विक्षोभवादी हूँ प्रबुद्ध जन तालियाँ बजाएँ वक्ता की बातें सुन इसी बीच एक वक्ता को यह चिंता है कि दूसरा उसका पर्चा छापेगा या नहीं मैं विक्षोभवादी हूँ मैं बाबा को याद करता गाता हूँ 'जली ठूँठ पर बैठ कर गई कोकिला कूक बाल ना बाँका कर सकी शासन की बंदूक'।

What have we done

हिरोशिमा पर एक पुराना स्लाइड शो छात्रों ने देखा और चर्चा की। १९९८ के हिंद-पाक नाभिकीय विस्फोटों के बाद मुख्यतः चेन्नई के इंस्टीच्यूट आफ मैथेमेटिकल साइंसेस आदि और बैंगलोर के विभिन्न विज्ञान शोध संस्थानों से वैज्ञानिकों ने मिलकर 'साइंटिस्ट्स अगेंस्ट न्यूक्लीयर वेपन्स' के लिए ये स्लाइड्स तैयार की थीं। शीर्षक था 'हिरोशिमा कैन हैपेन हीयर'। हमलोग चंडीगढ़ में युद्ध विरोधी और हिंद-पाक शांति के आंदोलनों में जुड़ कर प्रयास कर रहे थे। हमलोगों ने इन स्लाइड्स को अपनी स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार बदल कर कई स्कूलों में, सामुदायिक केंद्रों में, गाँवों में दिखलाया। प्रसिद्ध नुक्कड़ नाटक हस्ती गुरशरण सिंह ने भी हमें काफी मदद की और हमलोगों ने जगह जगह नुक्कड़ नाटक किए। यहाँ हैदराबाद में इतने साल बाद उन स्लाइड्स का प्रभाव वैसा ही रहा जैसा उनदिनों देखा था। हिबाकुशा (नाभिकीय विस्फोटों से प्रभावित बच गए लोग) के बयानों और उनके खींचे फोटोग्राफ्स और उनके अंकित तस्वीरों को देखकर भला कौन नहीं प्रभावित होगा। चर्चा के दौरान ऐसी बातें भी सामने आईं कि अगर ईराक के पास नाभिकीय बम होते तो क्या अमरीका की...

खोजते रहो, हर जगह होमो सेपिएन्स

'भारत' की खोज पता चला कि भजन गायन के लिए साप्ताहिक सभा होती है, अब उसमें विचार विमर्श भी होगा। विमर्श का उद्देश्य 'भारत' की खोज है। बड़ी आशा और उत्सुकता के साथ मैं गया। मुझे भजन अच्छे लगते हैं। पिछले तीस सालों में प्रचलित हुए भौंडी आवाज में सुबह सुबह कुदरती शांति को नष्ट करने वाले, उत्तर भारत के फिल्मी पैरोडियों वाले भजन नहीं, पारंपरिक भक्ति गीत, खास कर अगर राग में बँधे हों, सुन कर अच्छा लगता है। जिस दिन मैं गया, भजन गाए गए। एक भजन में प्रभु को गोप्य कहा गया था, मैंने सवाल उठाया कि ऐसा क्यों तो थोड़ी चर्चा हुई। इसके बाद विचार के लिए चाणक्य श्लोक पढ़े गए। मुसीबत यह थी कि जिस पुस्तक से श्लोक पढ़े जा रहे थे, उसमें श्लोक और उनके हिंदी में अर्थ के अलावा टीका भी थी। यह टीका जिस स्वामी ने लिखी थी, स्पष्ट था कि वह पूर्वाग्रह-ग्रस्त और पुरातनपंथी है। टीका में भिन्न स्रोतों से उद्धरण थे। कुछ पंचतंत्र जैसे स्रोत थे तो कुछ महज लोकोक्ति। तीसरे ही श्लोक में मेरा धैर्य टूटने लगा। मैंने साथियों से कहा कि हमें श्लोक और उनके अर्थ पढ़कर अपने आप चर्चा करनी चाहिए, न कि टीकाकार पर निर्भर...

कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हें अँधेरा निगलता जा रहा है

चेतन ने खबर भेजी कि विकी पर तुम्हारी कविताएँ हैं - देखा तो पुरानी तस्वीर के साथ कुछेक कविताएँ। उनमें से आखिरी कविता इशरत पर है। इशरत जहान को 2004 में जून के महीने में गुजरात की पोलीस ने मार गिराया था। मैं भूल ही गया था , कविता टुकड़ों में है और संभवतः दैनिक भास्कर के चंडीगढ़ संस्करण में आयी थीं। याद करने के लिए गूगल सर्च किया तो एक जनाब का गुजरात की पोलीस के पक्ष में लिखा यह तर्क मिलाः The law in most countries assumes that the accused is 'innocent until proven guilty beyond reasonable doubt'. Both Ishrat Jahan and Javed Ghulam Sheikh undoubtedly deserve this protection, especially since they are no longer around to speak for themselves. But to the professional 'secularists' it is not these two who stand accused of intent to murder, it is the Gujarat police that is guilty of 'state terrorism'. So why are they unwilling to grant the same presumption of innocence to the Gujarat police? मैंने कोई पच्चीस साल पहले प्रख्यात बाल चिकित्सक , नस्लवा...

'क्या यह व्यक्ति अँधेरावादी है?'

अँधेरा होता देखकर उसने कहा कि देखो अँधेरा गहरा रहा है। जिन्हें अँधेरे से फायदा है , वे तलवारें खींच लाए। जिन्हें अँधेरे से कोई परेशानी नहीं , वे लोग कहने लगे कि यह आदमी अँधेरे की ही बात करता रहता है। सबसे मजेदार वे लोग हैं जिन्हें अँधेरे से चाहे अनचाहे फायदा होता है तो भी वे छिपाना चाहते हैं और कहना चाहते हैं कि वे अँधेरे के खिलाफ हैं , वे सब उठकर कहने लग गए , कि यह आदमी अँधेरे का एजेंट है। कई तरह से वे इस बात को कहते हैं , कोई बहस छेड़ता है , ' क्या यह व्यक्ति अँधेरावादी है ?' शीर्षक से वह उसकी अँधेरे के खिलाफ रचनाएँ चुन चुन कर ब्लॉग पर डालता है। कोई साफ कहता है कि देखो इस आदमी ने अँधेरे के बारे में इतनी बातें की हैं , इसकी नज़र धुँधली हो गई है। इसी बीच अँधेरा घना होता रहता है। अँधेरे में भले से भले लोग फिसलते गिरते रहते हैं। उससे रहा नहीं जाता तो वह प्रतिवाद करता है कि यह क्या , मैंने तो बहुत कुछ कहा है , अँधेरा तो है ही सबके सामने। अँधेरे का जिक्र न करने से अँधेरा गायब तो नहीं होगा। मजेदार लोग , मुल्क की तमाम संकीर्णताओं से उपजे लोग , घर - बाहर पुरुष , समाज में उच्च , ...

एर्नेस्तो गुएवारा दे ला सर्ना

हाल में कई उम्दा फिल्में देखीं। इनमें वाल्टर सालेस की चे गुएवारा पर बनाई फिल्म 'द मोटरसाइकिल डायरीज़' है। सालेस ब्राज़ीलियन है, जहाँ पुर्तगाली भाषा बोली जाती है, पर फिल्म का कथानक स्पानी भाषा में है और मूल स्रोत आर्ख़ेन्तीना के एक लेखक की किताब है। स्पानी भाषा में होने के बावजूद ब्राज़ील की ओर से यह फिल्म कई अंतर्राष्ट्रीय उत्सवों में पेश हुई। फिल्म में चे के दाढ़ी और टोपी वाले चे बनने से पहले की कहानी है। आर्ख़ेन्तीना के एर्नेस्तो गुएवारा दे ला सर्ना और उसका मित्र आल्बर्तो ग्रानादो डाक्टरी की पढ़ाई के आखिरी पड़ाव पर मोटर साइकिल पर दक्षिण अमरीकी देशों की सैर पर निकल पड़ते हैं। युवाओं का सफर जैसा होता है, बहुत कुछ वैसा ही है, कहानी में रोमांच है, प्रेम है, मस्ती है, पर यह चे की कहानी है और इसमें बीसवीं सदी के एक महान मानवतावादी क्रांतिकारी का बनना है। एक भावुक युवा का क्रांतिकारी बनना है, जिसने हमसे पहले और बाद तक की पीढ़ियों को प्रेरित किया। यात्रा के दौरान चे ने जाना कि दुनिया के मेहनती लोग किस तरह अन्यायपूर्ण सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। फिल्म के बेहतरीन दृश्...

सबको जेल में डाल दो

हाशिया का ब्लॉग खोलते ही बिनायक सेन की तस्वीर दिखती है। दाढ़ी वाली मुस्कराती शक्ल। बहुत गुस्सा आता है कि ऐसा खूबसूरत शख्स जेल में बंद है। शायद देश के सभी भले लोगों को छत्तीसगढ़ चलना चाहिए और सरकार से कहना चाहिए कि हम सबको जेल में डाल दो। हम सबको बंद कर लो, सरकार बहादुर हम सब कभी कभी गलती से भले खयाल सोच लेते हैं। हमने जेल में नक्सलियों से मुलाकात नहीं की गाँधी को भी नहीं देखा, पर क्या करें जनाब आते जाते इधर उधर की चर्चियाते कोई न कोई अच्छी बात दिमाग में आ ही जाती है। साँईनाथ, अरुंधती राय, अग्निवेश अभी बाहर खड़े हैं, हममें से कोई कुछ पढ़ा रहा है, कोई गीत गा रहा है, कोई और कुछ नहीं तो मंदिर मस्जिद जा रहा है। हम सबको बंद कर लो, सरकार बहादुर हम सब देश के लिए खतरनाक हैं हमें गरीबी पसंद नहीं, पर गरीब पसंद हैं हम यह तो नहीं सोचते कि गरीबों को पंख लग जाएँ पर यह चाहते हैं कि गरीब भी इतना खा सकें कि वे कविताएँ पढ़ने लगें इतनी खतरनाक बात है यह कानून की नई धाराएँ बनाइए मालिक हमें बाहर न रखें, देश को देश से बचाएँ बहुत बड़ा सा जेल बनाएँ, जिसमें हमारे अलावा आस्मान भी समा जाए, इतनी रोशनी न होने दो सर...

हिंसा

कला में क्या वाजिब है? हिंदी फिल्मों में अक्सर हिंसा को ग्लैमराइज़ किया जाता है, पर कृत्रिमता की वजह से उसमें कला कम होती है। पर हिंसा को कलात्मक ढंग से पेश किया जाए और देखने में वह बिल्कुल सच लगे तो क्या वह वाजिब है? मेरा मकसद सेंशरशिप को वाजिब ठहराने का नहीं है, मैं तो अभिव्यक्ति पर हर तरह के रोक के खिलाफ हूँ (बशर्ते वह स्पष्ट तौर पर किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए न की गई हो)। पर यह एक पुरानी समझ है कि जब पेट भरा हो, तो चिताएँ अगले जून का भोजन ढूँढने की नहीं होतीं। रुप और कल्पना के ऐसे आयाम दिमाग पर हावी होते हैं, जो जीवन की आम सच्चाइयों से काहिल व्यक्ति को बकवास लगेंगे। हाल में १९९२ में बनी एक बेल्जियन फिल्म - मैन बाइट्स डॉग - देखी। बहुत ही सस्ते बजट में बनी इस फिल्म में एक साधारण सा दिखते आदमी पर 'mocumentary' या ब्लैक कामेडी बनाई गई। यह आदमी वैसे तो आम लोगों सा है, पर उसकी विशेषता यह है कि वह बिना वजह लोगों की हत्या करता है। हत्या करने में उसकी कुछ खासियतें हैं, जैसे वह बच्चों की हत्या उस तादाद में नहीं करता, जिस तादाद में बड़ों की करता है। उसे कविता का शौक है। वह भावुक और...

वाटर

23 मई: १९९९ में दीपा मेहता की फिल्मों को लेकर हंगामा हो रहा था, मैंने पंजाब विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की ओर से एक परिचर्चा आयोजित की थी। दीपा की मित्र और प्रख्यात नाट्य निर्देशक नीलम मानसिंह चौधरी ने बड़े जोरदार लफ्जों में सांस्कृतिक फासीवाद का विरोध किया था। मुझे वह परिचर्चा इसलिए याद है क्योंकि जिस साथी को मैंने नीलम को बुलाने का भार दिया था, वह स्वयं उन दिनों के सुविधापरस्त बुद्धिजीवियों में से था, जो गाँधीवादी राष्ट्रवाद जैसे किसी नए मुहावरे से दक्षिणपंथी व्यवस्था को भुनाने में लगे थे और उस दिन आखिरी क्षण में पता चला था कि नीलम को सूचना तक नहीं मिली। संयोग से नीलम तभी दिल्ली में दीपा में मिल कर आई थी और इस विषय पर भावुकता से भरी थी। मेरे कहने पर वह तुरंत पहुँची और गहराई और गंभीरता से विषय पर बोली। बहरहाल, तब से कई बार मौका मिलने पर भी दीपा मेहता की फिल्में देख नहीं पाया हूँ। कभी कभार कहीं टुकड़ों में कुछ हिस्से देखे थे। आज इतने सालों के बाद 'वाटर' देखी। कहानी तो खैर पहले से मालूम थी। छोटी बच्ची 'चुहिया' बाल-विधवा होने पर जबरन बंगाल के गाँव से उठाकर काशी में आश्रम मे...

बढ़िया रे बढ़िया!

अफलातून, सुकुमार राय की एक और कविता (आबोल ताबोल से): बढ़िया रे बढ़िया! भाई जी! देखा दूर तक सोचकर - इस दुनिया में सबकुछ बढ़िया, असली बढ़िया नकली बढ़िया, सस्ता बढ़िया महँगा बढ़िया, तुम भी बढ़िया, मैं भी बढ़िया, छंद यहाँ गीतों के बढ़िया गंध यहाँ फूलों की बढ़िया, मेघ लिपा आस्माँ बढ़िया, लहर नचाती हवा है बढ़िया, गर्मी बढ़िया बरखा बढ़िया, काला बढ़िया गोरा बढ़िया, पुलाव बढ़िया कुर्मा बढ़िया, परवल-मच्छि मसाला बढ़िया, कच्चा बढ़िया पक्का बढ़िया, सीधा बढ़िया टेढा बढ़िया, ढोल बढ़िया घंटा बढ़िया, टिक्की बढ़िया गंजा बढ़िया, ठेला बढ़िया ठेलना बढ़िया, ताजी पूड़ी बेलना बढ़िया, ताईं ताईं तुक सुनना बढ़िया, सेमल की रुई बुनना बढ़िया, ठंडे जल में नहाना बढ़िया, एक चीज है सबसे बढ़िया - पाँवरोटी और गुड़ शक्कर।

गर्मी

तकरीबन एक महीना गर्मी से बहुत परेशान रहे। दफ्तर और घर दोनों ऊपरी मंज़िल पर। संयोग से वर्षों से ऐसा रहा है। अब जिस कमरे में अस्थायी रुप से बैठ रहा हूँ, वहाँ ए सी है तो कम से कम काम के वक्त राहत है। हर कोई कहता है कि गर्मी बढ़ रही है। हैदराबाद में ए सी की ज़रुरत होनी नहीं चाहिए, पर या तो उम्र बढ़ रही है इस वजह से या सचमुच गर्मी बहुत होने की वजह से इस साल परेशानी ज्यादा है। चारों ओर कंक्रीटी जंगल फैल रहा है। बहुत पहले कभी बच्चों के लिए एक कविता लिखी थी, शीर्षक था 'पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या?' कभी ढूँढ के पोस्ट करेंगे। फिलहाल तो बेटी के ताने सुन रहा हूँ कि बस गर्मी गर्मी रट लगाए हुए हो। गर्मी ज्यादा हो तो स्वतः अवसाद होता है। जो भी ठीक नहीं है वह कई गुना बेठीक लगने लगता है। स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। कहते ही हैं, ज्यादा गर्मी मत दिखाओ। ऐसे में कभी कभार शाम को ठंडी बयार चल पड़े तो लगता है जन्नत के दौरे पर निकले हैं। ऊपरी मंज़िल होने का यह फायदा है कि बरामदे पर इधर से उधर चलना भी सैर जैसा है। बदकिस्मती से पड़ोस वालों ने मकान पर एक मंजिल और बढ़ा ली है, इसलिए उधर से हवा रुक गई है...

विनायक सेन जेल में क्यों है?

विनायक सेन जेल में क्यों है? - इसलिए कि दो हजार आठ में भी हिंदुस्तान एक पिछड़ा हुआ मुल्क है, जहाँ ढीठ सामंती हाकिमों और अफसरशाही का राज है। सोचने पर कमाल की बात लगती है कि मामला इतनी दूर तक पहुँच गया कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दबाव आना लाजिमी हो गया। - इसलिए भी कि जनपक्षधर लोगों में भी एकता नहीं है और काफी हद तक हम सब लोग सामंती सोच से ही ग्रस्त हैं। जयपुर के धमाकों से हर कोई जैसे खुमारी से जागा है और हमें याद आया है कि क्रिकेट के हंगामे से अलग हिंदुस्तान की सच्चाई कुछ और भी है। मीडिया में बार बार सवाल उठाया जा रहा है कि जयपुर क्यों? कैसा बेकार सवाल है जैसे कि और कुछ पूछने को नहीं है तो यही पूछ लें। जैसे कि जयपुर न होकर कोई और शहर होता तो ठीक था। सोचता हूँ कि आज के युवाओं और बच्चों में भविष्य के लिए क्या उम्मीदें होंगी? आश्चर्य होता है कि सब कुछ अपने नियमं से चलता ही रहता है। एक जमाना वह भी था जब कोई टी वी नहीं था। पता चलता कि शहर में कहीं दंगा हो गया है। लोग अपने मुहल्लों में टिके रहते। चर्चाएँ, बहसें होतीं और लगता जैसे धरती परिधि पर कहीं रुक गई है। अब हम बार बार मृत और घायलों को देखत...

So how should I presume?

हल्की ठंडक भरी पठारी हवा। तपने को तैयार कमरा, अभी अभी बिजली गई है। खबरें। मानव मूल्य। नैतिकता। कछ दिनों पहले किसी ने अरस्तू और अफलातून के संवादों का जिक्र किया था। -क्या नैतिकता सिखाई जा सकती है। अगर हाँ तो कैसे? -मै नही जानता कि नैतिकता है क्या, सिखाना तो दूर की बात। कुछ लोग जबरन मानव मूल्य नामक एक कोर्स पर बहस करते हैं। जिनका वर्चस्व है, वे चाहते हैं कि वे युवाओं से चर्चा करें कि भला क्या है, बुरा क्या है। विरोध करता हूँ तो कभी औचित्य पर सवाल उठते हैं तो कभी 'प्रोफेसर साहब बहुत विद्वान हैं' सुनता हूँ। सुन लेता हूँ, और समझौतों की तरह यह भी सही। तकरीबन सौ साल के बाद भी एलियट की पंक्तियाँ ही सुकून देती हैं। For I have known them all already, known them all:— Have known the evenings, mornings, afternoons, I have measured out my life with coffee spoons; I know the voices dying with a dying fa...

इक्कीसी कानून

जब समय कम हो और लग रहा हो कि बहुत वक्त बीत गया, कुछ पोस्ट नहीं किया, तो या तो अपनी कोई प्रकाशित कविता या फिर सुकुमार राय - यही फिलहाल। तो दोस्तो, आबोल-ताबोल से एक और अनुवाद। इक्कीसी कानून शिव ठाकुर के अपने देश, आईन कानून के कई कलेष। कोई अगर गिरा फिसलकर, प्यादा ले जाए पकड़कर। काजी करता है न्याय- इक्कीस टके दंड लगाए। शाम वहाँ छः बजने तक छींको तो लगे टिकट जो छींका टिकट न लेकर, धम धमा दम, लगा पीठ पर, कोतवाल नसवार उड़ाए- इक्कीस दफे छींक मरवाए। जो किसी का हिला भी दाँत चार टके जुर्माना माँग किसी की निकली मूँछ सौ आने की टैक्स पूछ - पीठ कुरेदे गर्दन दबाए इक्कीस सलाम लेता ठुकवाए। चलते हुए कोई देखे अगर दाँए बाँए इधर उधर राजा तक दौड़े खबर उछलें पल्टन बाजबर भरी दोपहर धूप खटाए इक्कीस कड़छी जल पिलाए। जो लोग कविता करते हैं उन्हें पिंजड़ों में रखते हैं पास कानों के नाना सुर में पढ़ें पहाड़ा सौ मुष्टंडे बहीखाते मोदी के पकड़ाए इक्कीस पन्ने हिसाब लगवाए। वहाँ अचानक रात दोपहर भरे खर्राटे नींद में अगर झट जोरों से सिर में रगड़ कसैले बेल में घुला गोबर इक्कीस चक्कर घुमा घुमाकर इक्कीस घंटे रखें लटकाकर।

प्रोफेशनल अवसादी और धंधा-ए-अवसाद

मैं अपने आप को प्रोफेशनल अवसादी कह सकता हूँ। करें भी क्या - चारों ओर रुलाने के लिए भरपूर सामग्री है। एक मित्र ने पूछा कि सुखी हो - मैंने लिखा कि सुखी तो नहीं हूँ, पर दुःखों के साथ जीना सीख लिया है। यहाँ तक कि अपने दुःखों के साथ जीते हुए दूसरों को सुख देने में भी सफल हूँ। एक और मित्र का कहना है कि फिर मेरा अवसादी होने का दावा ठीक नहीं है। उसके मुताबिक विशुद्ध अवसादी वही हो सकता है जो दूसरों को रुलाने में सफल है। उस तरह से देखा जाए तो बुश और मोदी में अच्छी प्रतियोगिता हो सकती है कि अवसाद विधा में नोबेल पुरस्कार किस को मिलेगा। बहरहाल एक साथी अध्यापक ने इस चिंता के साथ कि मेरे अवसाद को अड्डरेस किया जाना चाहिए, मुझे बतलाया कि मुझे अवसाद मोचन के धंधे में जुटी एक कंपनी द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम की जानकारी पानी चाहिए। वह खुद अपने किसी बुज़ुर्ग अध्यापक के कहने पर इस कंपनी के चार दिवसीय कार्यक्रम को झेल रहा था। आखिरी दिन यानी मंगलवार की शाम को प्रतिभागियों को कहा गया था कि वे अपने किसी परिचित को साथ लाएँ ताकि इस अद्भुत इन्कलाबी शिक्षा की जानकारी मेहमानों को भी मिल सके। बहरहाल मैंने अपने उदारवाद...

साथ रह गए कभी न छूटने वाले इन घावों में

यह जो गाँव पास से गुज़र रहा है इसमें तुम्हारा जन्म हुआ जब भी यहाँ से गुज़रता हूँ स्मृति में घूम जाती हैं तुम्हारी आँखें बचपन में जिन्हें तस्वीर में देखते ही हुआ सम्मोहित तब से कई बार धरती परिक्रमा कर चुकी सूरज के चारों ओर तुम्हारे शब्द कई बार बन चुके बहस के औजार लंबे समय तक कुछ लोगों ने तुम्हारी पगड़ी पर सोचा छायाचित्रों में तुम नहीं तुम्हारी पगड़ी का होना न होना देखा और हमने जाना कि यह वक्त तुम्हें नहीं तुम्हारे नाम को याद रखता है हमारे वक्त में दुनिया बदलती नहीं किसी के आने-जाने से चिंताएँ, हँसी मजाक, दूरदर्शन, खेलकूद सब चलते रहते हैं ब्रह्मांड के नियमों अनुसार यह छायाओं का वक्त है चित्र हैं छायाओं के जिनसे आँखें निकाल दी हैं वक्त के जादूगरों ने रंग दे बसंती गाते हुए हर कोई सीना ठोकता है और फिर या तो जादूगरों की जंजीरों में गला बँधवा लेता है या दृष्टिहीन छायाओं में खो जाता है गीत गाता हुआ आदमी मूक हो जाता है गाँव के पास से गुज़रते हुए देखता हूँ गाँव अब शहर बन रहा है आस पास जो झंडे लगे हैं वह जिन हवाओं में लहरा रहे हैं उनमें खरीद फरोख्त के मुहावरे हैं बीच सड़क गुज़रते हुए सीने से लग...