कई
दोस्तों ने कहा कि यह संस्मरण
पूरा होना चाहिए। यह शायद मेरे
लिए संभव न हो। पर थोड़ा-थोड़ा
जोड़ते चलें तो शायद बात कुछ
बढ़े। आखिर क्या-क्या
लिखें। हिंदी में टाइप करना
भी कहाँ कोई आसान काम है। इसी
बीच हमारे प्रिय, जन-गीतों
के गायक पीट सीगर की मौत हो
गई। जैसे एक जमाना गुजर गया।
कभी उन पर भी लिखना है।
चेतन
से पहली मुलाकात का किस्सा
ई-मेल
के इतिहास से जुड़ा है। अस्सी
के शुरूआती सालों में मैं जब
अमेरिका में पी एच डी के लिए
शोध कार्य कर रहा था,
ई-मेल
तब नई बात थी। और मेल सिर्फ
स्थानीय स्तर पर, अपनी
ही संस्था तक सीमित थी। बाद
में हालाँकि ई-मेल
का इस्तेमाल वैज्ञानिकों ने
ही शुरू किया था, पहले-पहल
व्यापक तौर पर इसका फायदा
अमेरिका और नेटो ताकतों के
साथ जुड़ी सुरक्षा-संस्थाओं
के लोगों को मिला। हमलोग यानी
आम वैज्ञानिक लोग इसका इस्तेमाल
तकरीबन 1989 साल
से ही कर पाए थे। मैंने पहली
बार 1990 में
सांता फे इंस्टीटिउट में एक
समर स्कूल में भागीदारी करते
हुए अपने शहर से बाहर किसी को
ई-मेल
भेजी थी। उसी साल देश लौट आए
तो हमारी बेटी शाना जन्मी।
उसकी गंभीर शारीरिक समस्याओं
की वजह से 1991 में
हमें फिर चिकित्सा की खोज में
अमेरिका लौटना पड़ा। कैरन ने
न्यूयॉर्क के माउंट साइनाई
मेडिकल इंस्टीटिउट में और
थोड़ी देर बाद मैंने प्रिंस्टन
यूनिवर्सिटी में शोध-कर्त्ताओं
के काम किए। तब तक ई-मेल
अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक शुरू
हो गई थी। 1992 में
जब लौट कर आए तो चंडीगढ़ में
सिर्फ एक सरकारी राष्ट्रीय
प्रयोगशाला इमटेक (इंस्टीटिउट
ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलोजी)
में ई-मेल
की व्यवस्था थी। विदेशों से
लौट रहे किसी भी व्यक्ति को
ई-मेल
की आदत पड़ चुकी थी और इसके बिना
उनको बड़ी दिक्कत होती।
इमटेक
में ई-मेल
का जादू चेतन का कमाल था। चेतन
ने 1990 में
इमटेक में नौकरी ली थी। चेतन
प्रेमाणी आई आई टी कानपुर के
इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग
का मेधावी छात्र था। बी टेक
की डिग्री लेने के बाद वह अपने
कई दोस्तों की तरह या तो विदेश
पढ़ने जा सकता था या किसी बड़ी
कंपनी में अच्छी तनख़ाह की
नौकरी ले सकता था। पर कुछ शोध
के प्रति रुचि, कुछ
कम्युनिस्ट विचारधारा के
पिता से मिले देश-प्रेम,
कुछ बड़ा बेटा
होने से परिवार को आर्थिक
सहयोग और कुछ बस अपने झक्की
मिजाज़ की वजह से उसने मुंबई
की प्रख्यात शोध-संस्था
टी आई एफ आर (टाटा
इंस्टीटिउट ऑफ फंडामेंटल
रीसर्च) में
सहयोगी टेकिनिकल स्टाफ की
नौकरी ली। सोलह साल तक वह आणविक
जैवविज्ञान विभाग में प्रख्यात
वैज्ञानिक ओबेद सिद्दीकी
(जिनका
छ: महीने
पहले बंगलौर में दुर्घटना
में दुखद निधन हो गया)
के शोध-दल
के साथ बतौर इलेक्ट्रॉनिक
इंजीनियर काम करता रहा।
राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में
साइंटिस्ट के पद होते हैं -
जो 'ए'
से शुरू होते
हैं और 'जी'
तक चलते हैं।
टी आई एफ आर छोड़ते वक्त चेतन
साइंटिस्ट-सी
पद पर था। आतंकवाद के माहौल
में चंडीगढ़ आने को सहमत होने
पर उसे दो जंप यानी छलाँगें
लगाकर साइंटिस्ट-ई
पद मिला। इस पद पर इमटेक में
आने वाले तीन लोगों में वह एक
था। यह बात महत्त्वपूर्ण है
क्योंकि इस हिसाब से वह संस्था
के तीन वरिष्ठतम लोगों में
से था, पर
2012 में
नौकरी से अवकाश लेते वक्त तक
यानी 22 वर्षों
की नौकरी में उसे कोई पदोन्नति
नहीं मिली थी।
आई
आई टी कानपुर और टी आई एफ आर
में चेतन को जानने वाले कई ऐसे
लोग थे, जिनके
साथ उसका स्थाई भावनात्मक
संबंध था। उनमें से कई 20
फरवरी 2013
को आई सी एस
एस आर सभागृह में मौजूद थे और
उनमें से एक, चेतन
से उम्र में तीनेक साल बड़े,
मुकुल सिन्हा
उसकी याद में कहते हुए रो पड़े
थे। पुराने साथी स्तरीय काम
की माँग (परफेक्शन)
के लिए उसके
ज़िद्दी स्वभाव के अलावा उसकी
ईमानदारी, उसकी
मेधा और फिल्म क्लब चलाने जैसी
उसकी विलक्षणताओं के कायल
थे। इस पर वे ही कभी लिखेंगे।
मैं तो सिर्फ मेरे जीवन में
उसके आने और उसी संदर्भ में
उसकी भूमिका को लेकर ही लिख
सकता हूँ।
उससे
पहली बार बात करने से पहले
मैंने एक बार उसे देखा था।
1990-91 में
मैं 38 सेक्टर
में रहता था। इमटेक का नया
कैंपस 39 सेक्टर
में बन चुका था। उन दिनों
आतंकवाद की वजह से चंडीगढ़ में
जनसंख्या का दबाव कम था -
दिल्ली आदि
से कम ही लोग वहाँ आकर बस रहे
थे। कभी कभी जैसे मैं 37
सेक्टर के
बाज़ार खाने की सामग्री लेने
जाता, वैसे
ही इमटेक से भी लोग वहाँ पहुँचते।
वहाँ एक आम शाकाहारी ढाबा
शक्ति ढाबा था, जहाँ
अक्सर मैं जाता - पास
में ही फर्राटे की अंग्रेज़ी
बोलने वाले एक नरबीर सिंह ने
चीनी खाने की दूकान खोली हुई
थी। वहीं एक बार मैंने चेतन
को अमित घोष (हैजा
पर शोध करने वाले सूक्ष्मजीवी-वैज्ञानिक
जो बाद में इमटेक के निर्देशक
बने) के
साथ देखा था। दोनों की ही शक्लें
आकर्षक थीं। अमित की फ्रेंचकट
दाढ़ी थी और चेतन के छरहरे शरीर
पर माथे पर सफेद बाल। दोनों
ही चश्मुद्दीन और लंबे कुर्ते
पहने हुए बुद्धिजीवी शक्ल का
प्रभाव छोड़ने वाले। चेतन को
कभी पैंट पहने देखा हो याद
नहीं आता। भयंकर ठंड में भी
वह चूड़ीदार पाजामा और नागराई
टाइप के जूते पहनता। बाद के
वर्षों में अमित काफी फूलते
गए पर चेतन वैसा का वैसा आकर्षक
शक्ल का ही बना रहा। उस वक्त
मेरा उनसे परिचय न था,
पर स्थानीय
लोगों की तुलना में उनमें कई
बातें साफ तौर पर अलग दिख रही
थीं और मैं चुपचाप उनकी बातें
सुनता रहा।
साल
बाद 1992 में
जब हम वापस देश लौटे तो मित्र
सत्यपाल सहगल (हिंदी
के कवि और तब तक शायद यूनिवर्सिटी
में अध्यापक लग चुके थे)
ने पहले चेतन
की पत्नी कॉनी का ज़िक्र किया
जो भाषाविद थी और सत्यपाल से
हिंदी सीखने यूनिवर्सिटी आया
करती थी। सत्यपाल का खयाल था
कि हमें चेतन और कॉनी से मिलना
चाहिए क्योंकि हमारी रुचियों
में समानता है। फिर कभी सत्यपाल
ने ही बतलाया कि चेतन ने इमटेक
में ई-मेल
की व्यवस्था की हुई है। उससे
पहली मुलाकात का कारण दरअसल
ई-मेल
ही था।
संभवतः
1992 के
नवंबर में हम उससे इमटेक में
मिलने गए। मदद वह सब की करता
था, पर
चेतन के स्वभाव में उससे ई-मेल
के लिए मदद माँगने वालों के
प्रति चिढ़ सी थी, खासकर
यूनिवर्सिटी से आने वाले लोगों
के प्रति उसमें पूर्वग्रह था।
हम जब मिले तो उसे और कॉनी को
यह जानने में ज्यादा देर न लगी
कि चंडीगढ़ में रहते हुए हम दो
परिवारों में संबंध होना दोनों
की ज़रूरत थी।
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