Saturday, February 15, 2014

चेतन-3


नब्बे के दशक के पहले सालों में भारत से इंटरनेट पर जाने वाली सारी मेल मुंबई में टी आई एफ आर में मौजूद 'शक्ति' नामक एक सर्वर से होकर जाती थी। चंडीगढ़ से मुंबई के इस गेटवे तक मेल के जाने के लिए एस टी डी (दूर संचार) फ़ोन के अलावा कोई तरीका न था। फ़ोन का खर्चा दिन को अधिक होता, रात को कम। आजकल युवाओं को यह सब अजीब लग सकता है, पर बीसेक साल पहले भी टेक्नोलोजी इसी स्तर की थी। चेतन की रात को काम करने की आदत थी। वह सुबह देर से उठता और ग्यारह-बारह बजे के पहले दफ्तर न आता। पर रात को देर तक सबकी इकट्ठी हुई मेल शक्ति गेटवे तक भेजता। उन दिनों सूचना प्रौद्योगिकी की जो स्थिति थी, कई तरह की गड़बड़ियाँ होती रहतीं। पर चूँकि चंडीगढ़ आने के पहले टी आई एफ आर में जो भी कंप्यूटर और सूचना प्रोसेसिंग की मशीनें थीं, उन पर चेतन ने काम किया हुआ था, कई तो उसने खुद इंस्टाल और कन्फिगर की थीं और उन दिनों देश भर में इस तरह की मशीनों पर काम करने वाले इने गिने लोगों से वह न केवल परिचित था, बल्कि उनको सलाह-मशविरा देता रहता था। इसलिए कहीं कोई दिक्कत होती तो चंडीगढ़ में बैठे ही फ़ोन पर बात कर वह समस्या सुलझा लेता। इसका इमटेक के सभी वैज्ञानिकों को काफी फायदा मिल रहा था। इसलिए सभी चेतन से खुश भी थे।

राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के निर्देशकों के पास एक तरह की असीमित ताकत होती है। मुसीबत यह हुई कि एक नए निर्देशक आए जो लखनऊ की केंद्रीय औषधि शोध संस्था में काम कर चुके थे और वहाँ की लालफीताशाही और गैरबराबरी को सामने रख कर चलने वाली व्यवस्था के आदी थे। उन्होंने नियम कानून पर जोर देना शुरू किया और फरमान जारी किया कि सारे कर्मचारी सुबह नौ बजे तक दफ्तर ज़रूर मौजूद हों। हालाँकि ज्यादातर वैज्ञानिकों को यह खुली सोच के परिवेश के लिए हानिकारक लगा, पर चेतन के अलावा किसी ओर ने इसका विरोध न किया। इमटेक में सुरक्षा-प्रबंध भी टी आई एफ आर की तुलना में काफी सख्त था - राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में ऐसा ही होता है और चंडीगढ़ तो वैसे भी पंजाब के आतंक के साए में था। सुरक्षा अधिकारी दबंग थे और चेतन को उनसे चिढ़ थी। निर्देशक से भिड़ने के कुछ समय पहले चेतन को मौका मिला था कि वह सुरक्षा अधिकारी को हड़का सके। हुआ यह था कि संस्था की मुख्य इमारत पर राष्ट्रीय झंडा उल्टा लहरा रहा था। यह कानून की दृष्टि से अपराध था। चेतन ने सुरक्षा अधिकारी को डाँट तो दिया, पर शिकायत ऊपर पहुँच गई। यह छोटी सी घटना अंततः चेतन के लिए लंबी लड़ाई का सबब बन गई। संस्था में निर्देशक के पक्ष में भी कुछ चापलूस किस्म के लोग थे। कुछ गिरगिट स्वभाव के भी थे, जो सामने कुछ और पीछे कुछ और कहते। सामान्य वैज्ञानिकों में अधिकतर जिनको विज्ञान से सिर्फ रोटी कमानी होती है, इसी स्वभाव के होते हैं। यह माहौल टी आई एफ आर के बौद्धिक माहौल की तुलना में बहुत ही दमघोटू था। टी आई एफ आर में भी चेतन के बारे में यह माना जाता था कि वह सामान्य मुद्दों को गंभीरता से ले बैठता है, पर चूँकि वहाँ का बौद्धिक स्तर उच्च मान का था, लोगबाग इस स्वभाव को नज़रअंदाज़ कर चेतन के गुणों को देखते और सराहते।

वे साल किसी भी उदार सोच के भारतीय के लिए कठिन और दर्दनाक साल थे। चेतन का परिवार गुजराती इस्माइली संप्रदाय के साथ ताल्लुक रखता था। आगा खाँ के अनुयायी इस संप्रदाय में अन्य संप्रदायों के तुलना में कट्टरता कम है। चेतन तो वैसे भी नास्तिक था। पर उन दिनों देश में, खास तौर पर उत्तरी भारत में, सांप्रदायिकता बढ़ती जा रही थी। 1988-89 में मैंने खुद मध्य प्रदेश में हरदा में रहते हुए आँखों के सामने माहौल बिगड़ते हुए देखा था। आखिर 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद टूटने के साथ दंगों का दौर शुरू हुआ। चेतन के पिता की मृत्यु इसके एक हफ्ते बाद हुई थी, जब मुंबई में दंगे के बाद तनाव का माहौल था। उनके शरीर को अस्पताल में चिकित्सा-शोध के लिए दान करना था और इसमें उनके परिवार को शहर में तनाव के चलते कई दिक्कतें आई थीं। मृत्यु के दिन सुबह उन्होंने बेटों को याद दिलाया कि उनके देह को दफनाना नहीं, बल्कि वर्षों पहले औपचारिक रूप से दर्ज़ की गई इच्छा मुताबिक अस्पताल में दान देना है। आज मैंने इस प्रसंग पर चेतन के भाई केतन से जो मुंबई में रहते हैं, उनसे इस प्रसंग पर फिर से सही सूचना प्राप्त की। पिछले साल जब चेतन की मृत्यु हुई, उसका शरीर भी इसी तरह किसी अस्पताल में दान दिया गया। यही उसकी इच्छा थी।

इमटेक में कहने को चेतन के साथ सहानुभूति कऱने वाले लोग कई थे, पर सचमुच उसके साथ खड़े होने का साहस रखने वाले कम ही थे। आखिर इमटेक कोई टी आई एफ आर तो था नहीं। परेशानी लगातार बढ़ती रही। पारिवारिक स्थिति भी बहुत अच्छी न थी। कॉनी के साथ सड़क पर लोगों का व्यवहार अकसर थकाने वाला होता था। एक गोरी औरत के साथ आम उत्तर भारतीय का व्यवहार कैसा होता है, इसका अनुभव हम दोनों परिवारों का एक जैसा था। मेरे साथ यह समस्या इतनी बड़ी न थी, क्योंकि इस मुद्दे पर कैरन की तुलना में मैं ज्यादा बिगड़ता था। पर कॉनी खुद काफी नाराज़ होती थी। उन दिनों हम सब लोग साइकिल पर ही आना जाना करते थे। मैंने कुछ सालों के बाद स्कूटर ले लिया था, पर चेतन आजीवन साइकिल ही चलाता रहा। बाद के वर्षों में जब उस हैसियत का कोई भी आदमी साइकिल चलाता न दिखता था, वह चंडीगढ़ में एक अजूबा सा था, उस पर इसी प्रसंग में अखबार में रिपोर्ताज भी छपा था। साइकिल चलाते हुए कॉनी नीचे नज़रें किए रहती। उसे हर आते-जाते आदमी से 'आई लव यू' किस्म की टिप्पणियाँ सुनते हुए तीखी चिढ़ हो चुकी थी. उसके लिए सड़क पर दिखता-चलता हर हिंदुस्तानी बदमाश था। चेतन की स्मृति सभा में उसने इसी बात को बार बार दुहराया था।

कॉनी के साथ चेतन का परिचय चंडीगढ़ आने के कुछ ही समय पहले ई-मेल के जरिए हुआ था। आज इस तरह के रिश्ते आम बात हैं, पर उस जमाने में सिर्फ टी आई एफ आर जैसी संस्थाओं में काम कर रहे किसी के लिए ही ऐसे प्रेम करना संभव था। कॉनी का भाषा-प्रेम तीव्र था, पर उतनी ही नफ़रत उसे भारतीय ज़मीनी परिस्थितियों से थी। इसलिए इमटेक के फ्लैट में गर्मी और धूल से बचने के लिए ए सी (ए सी का प्रचलन तब कम था, ए सी महँगा होता था और ज्यादातर घरों में पानी वाले कूलर चलते थे), नहाने के लिए बाथ टब, आदि कई प्रबंध उन्होंने किए थे। कॉनी के चले जाने के बाद वही घर विशृंखला का नमूना था। महीनों से इकट्ठे किए अखबार, चारों ओर धूल, हमेशा यही स्थिति थी। हम जब भी जाते, उसे डाँटते, पर खैर...।

बहरहाल परिवार की खिटपिट – दो साल बाद कॉनी अमेरिका वापस चली गई और फिर कोई दस सालों बाद उनमें तलाक हो गया; आखिरी सालों में वह फिर वापस आई – सांप्रदायिक माहौल, और संस्था में निर्देशक की तानाशाही, इन सबके साथ चेतन को अकेले लड़ना था। प्रतिबद्ध पिता को आजीवन सांगठनिक काम में जुटा देखकर और उससे हुए अपने तिक्त अनुभवों से शायद उसे पारंपरिक ट्रेड यूनियन में कोई विश्वास न रह गया था, इसलिए अखिल भारतीय राष्ट्रीय प्रयोगशाला शोधकर्त्ताओं की यूनियन से मदद मिलने पर भी उसने मदद न ली। मुझे यह पता नहीं कि किस साल और निर्देशक के किस विशेष कदम के खिलाफ उसने कानूनी लड़ाई शुरू की थी, पर वह एक कभी खत्म न होने वाली लड़ाई थी। शहर के सबसे प्रसिद्ध वकील बलराम गुप्ता की मदद से केंद्रीय प्रशासन कोर्ट में उसने यह मामला लड़ा। वकील के पास कागज़ात वह खुद ही तैयार कर के ले जाता। कानूनी समझ उसमें कमाल की थी। आखिरी सालों में समझौतों की हर कोशिश को वह ठुकराता रहा, क्योंकि यह उसके लिए सिद्धांतों की लड़ाई थी। समझौता हुआ और यह कुछ उसके और कुछ संस्थान के पक्ष में था, पर वह फिर भी सालों पुरानी किसी तारीख से अपनी वरिष्ठता को बहाल किए जाने को लेकर लड़ता रहा। हम दोस्त-बाग उसे समझाते हुए थक गए कि इस तरह की लड़ाई से उसका अपना ही नुकसान है, पर वह न माना। नब्बे के आखिरी सालों में जब अमित घोष इमटेक के निर्देशक बने, तो उसे उम्मीद थी कि संस्थान उससे औपचारिक रूप से माफी माँग लेगा, पर ऐसा कैसे हो सकता था। इमटेक भारत सरकार की राष्ट्रीय प्रयोगशाला है और उसका निर्देशक एक कर्मचारी के सामने, वह कितना भी वरिष्ठ क्यों न हो, संस्थान को झुका नहीं सकता। चेतन की प्रतिक्रिया यह होती कि वह व्यक्तिगत संबंध बिगाड़ लेता। अमित और संस्था में बाकी लोग कोशिश कर भी उसे मना न पाते। उसके तर्क अकाट्य होते और उसकी माँग यह होती कि कोई समझौता नहीं चलेगा। कभी केंद्र सरकार के किसी मंत्री के पास, कभी विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद के अध्यक्ष के पास अपनी शिकायत ले जाता। उसने कपिल सिब्बल जैसे मंत्रियों से कई बार बात की (राष्ट्रीय प्रयोगशालाएँ मानव संसाधन मंत्रालय के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अधीन हैं)। उन दिनों ओम थानवी चंडीगढ़ में जनसत्ता के स्थानीय संपादक थे। मेरे जरिए उनके साथ भी चेतन का परिचय था। उसे लगता कि मुझे ओम से कहकर उसकी लड़ाई के पक्ष में खबरें छपवानी चाहिए। एक दो बार ओम को - जब वे दिल्ली आ गए, उसके बाद भी - परेशान भी किया। शायद एक दो बार प्रशांतभूषण से भी उसकी बात करवाई थी। मेरा अपना रवैया, जैसा औरों का भी रहा होगा, यह होता कि हम उसकी बातों को सुन लेते, सहानुभूति प्रकट करते, फिर भूल जाते - अंत में उसे अकेले ही लड़ना था। उसकी हम सबके प्रति यह शिकायत थी कि हमने उसकी तकलीफों को कभी उतनी गंभीरता से लिया नहीं जितना उसने चाहा था। यह हम सब जानते थे कि हम सबके जीवन में अपनी-अपनी ऐसी ही लड़ाइयाँ थीं जैसी चेतन लड़ रहा था, पर हम सब जल्दी ही समझौते कर लेते थे, पर वह समझौता करने को तैयार न होता।

यह सब पढ़ कर लग सकता है कि चेतन तो बड़ा खुंदकी आदमी था। सचमुच वह था। उस पर संस्मरण लिखना उसकी झल्लाहटों की लंबी सूची बनाए बिना संभव नहीं। उसे जानने वाले हर किसी को यह अहसास तीखा था। पर मेरा मकसद यहाँ सिर्फ यह बतलाना नहीं कि वह खुंदकी था। मैं उस आदमी को याद कर रहा हूँ जो हम सबके विवेक की प्रतिनिधि पहचान बनकर हमारे जीवन में आया था। वह हमलोगों का इतना करीबी दोस्त था तो उसमें भली बातें भी खूब सारी थीं। उसमें बहुत कुछ ऐसा था जिसने उसके संपर्क में आए हर किसी को गहराई से प्रभावित किया। उसने खुद किसी सामाजिक या राजनैतिक आंदोलन की शुरूआत नहीं की, पर बेहतर और बराबरी पर आधारित समाज निर्माण की लड़ाई में उसकी प्रतिबद्धता आखिरकार उसे हमारे कई सीमित प्रयासों के साथ जुड़ने को मजबूर कर गई और हम जितने भी साथी इस तरह की थोड़ी बहुत कोशिश कर रहे थे, हमें चेतन की भरपूर मदद मिली। चंडीगढ़ के इतिहास में समतावादी इन प्रयासों में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। इस पर अगली बार।

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