चंडीगढ़
के हमारे युवा दोस्त जो अब
इतने युवा नहीं रहे,
उन्हें जानकर
आश्चर्य होगा कि हमारे परिचय
के शुरूआती अध्याय में चेतन
को न केवल बड़े राजनैतिक मुद्दों
में रुचि न थी, उसे
इनसे चिढ़ थी। इस बात की जानकारी
एक और साथी, मृगांक,
जो एक जुझारू
वाम दल का कार्यकर्त्ता है,
उसे है। इमटेक
में बस एक आदमी मृगांक था,
जिसकी वाम
राजनीति में गहरी रुचि और
भागीदारी थी। बाद में उसने
नौकरी छोड़ दी और वह पार्टी का
पूर्णकालीन कार्यकर्त्ता
बन गया। मेरी ही एक छात्रा से
उसकी शादी हुई। इन दिनों वे
दिल्ली में रहते हैं।
साहित्य
में भी चेतन की रुचि सतही थी।
चूँकि पिता इप्टा के स्वर्ण-युग
के दिनों में मुंबई इकाई के
सचिव रह चुके थे, इसलिए
जन-गीतों
में उसकी रुचि थी। इसके अलावा
फिल्म उसकी लाइफ-लाइन
थी। पर मेरे पहले कविता-संग्रह,
जो 1991
में आ चुका
था, में
उसकी कोई रुचि न थी। कहानियों
में फिर भी थोड़ी रुचि थी।
1995-96 तक
चेतन से मेरा संबंध मुख्यतः
कंप्यूटर और निजी संदर्भों
का था। मैं सैद्धांतिक रसायन
में शोध करता रहा हूँ और कागज़
कलम के अलावा कंप्यूटर ही मेरा
मुख्य उपकरण है। पंजाब
विश्वविद्यालय के रसायन विभाग
में मैं क्यों पहुँचा,
यह एक अलग
कहानी है। अपनी प्रतिबद्धता
के कारण मैं एलीट संस्थाओं
से अलग हट कर किसी साधारण संस्था
में काम करना चाहता था। पंजाब
विश्वविद्यालय के अध्यापकों
को अजीब तो लगेगा, पर
मैं यही सोच कर वहाँ आया था कि
वह नितांत सामान्य यूनिवर्सिटी
है। आते ही वहाँ के घाघ विभागीय
दादा लोगों की नज़र में मैं
बड़ा दुश्मन बन गया। केमिस्ट्री
विभाग उन दिनों काफी बड़ा था
- 46 अध्यापक
थे। इनमें से आधे अकार्बनिक
रसायन के अध्यापक थे। कोई एक
दर्जन तो एक पुराने स्थानीय
दादा रामचंद पॉल के शिष्य थे
और पॉल के विभागाध्यक्ष और
कुलपति के लंबे कार्यकाल में
उनके हाथ पैर पकड़ नौकरी में
लगे थे।। पूरे विभाग में जहालत
की बू थी। तीन-चार अध्यापक कैंपस की राजनीति
में सक्रिय थे। ऐसे में मुझे
दिक्कतें आनी ही थीं। और हालाँकि
मुझे पंजाबी बोलनी आती थी, कोलकाता
में जन्मे-पले
होने के कारण सांस्कृतिक रूप
से मैं बाहर का था। एक बात और
थी कि मैं नाम से 'सिंघ'
था और पंजाब
विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, गुप्ता,
शर्मा,
मलहोत्राओं
की यूनिवर्सिटी है (जैसे
पंजाब के दीगर विश्वविद्यालय
'सिंघों'
की यूनिवर्सिटियाँ
हैं)।
पता नहीं कितने किस्म के भेदभाव
का शिकार मैं था, पर
जवानी के उन दिनों में मुझे
इन बातों की फिक्र कम थी। बेटी
के जन्म के बाद जब आर्थिक दबाव
बढ़े, तो
मैं इन बातों को समझने लगा।
नौकरी
पर लगने के बाद तकरीबन दस साल
मेरे पास न कोई कंप्यूटर था,
न ही कोई शोध
विद्यार्थी। मैंने भी कोई
खास रुचि न ली। शोध के नाम पर
जिस तरह का बकवास काम चारों
तरफ चल रहा था, उसमें
शोध के लिए प्रेरित होना आसान
भी न था। पर अपनी एलीट शैक्षणिक
पृष्ठभूमि की वजह से राष्ट्रीय
स्तर पर मेरी एक छवि बन चुकी थी। इसलिए
अपने आप ही कुछ न कुछ काम करता
रहता और राष्ट्रीय कान्फरेंसों
में शिरकत करता। फिर दो साल
के लिए यू जी सी फेलोशिप लेकर
एकलव्य चला गया। इस उम्मीद
के साथ गया था कि अब ज़मीनी
काम में जुट जाएँगे। पर कई
कारणों से वहाँ से लौटना पड़ा।
मेरे शोध-कार्य
में कठिनाइयाँ बहुत थीं। अपने
विद्यार्थियों का कोई समूह
न था। मैं जिन विषयों पर काम
कर रहा था वे सैद्धांतिक रसायन
के क्षेत्र में विश्व-स्तर
पर समकालीन जटिल सवाल थे। मैं हमेशा
से ही शोध के अलावा एकाधिक
अन्य क्षेत्रों में भी गंभीर
रुचि रखता रहा हूँ। इसलिए शोध
में मेरी प्रतिबद्धता कभी भी
शत-प्रतिशत
नहीं रही।
मेरे
आने के ठीक पहले विभाग में एक
बंगाली प्रोफेसर, बी
एम देब, निजी
कारणों से आई आई टी बॉम्बे से
यहाँ आए थे। वे राष्ट्रीय स्तर
पर सम्मानित थे। मैं उन्हीं
के कमरे में एक कोने में बैठता
था। उनके साथ पहले अच्छी बनी,
खास तौर पर
इसलिए कि हम दोनों स्थानीय
लोगों से एक जैसे पीड़ित थे।
बेटी के जन्म के बाद हमें भयंकर
स्थितियों से गुजरना पड़ा था
और उन्होंने और उनके परिवार
ने हमारी जो मदद की थी,
उसे मैं भूल
नहीं सकता। पर वे भी खुदगर्ज़ी
और भयंकर आत्म-मोह
का शिकार थे। उन्हीं की लैब
में 1991 में
एक अपोलो वर्कस्टेशन पर काम
करता था। मुझसे वरिष्ठ पीढ़ी
के होने के कारण कंप्यूटर के
ऑपरेटिंग सिस्टम और प्रोग्रामिंग
के बारे में उनकी समझ कमजोर
थी। मैं उनके शोध विद्यार्थियों
को इन बातों में मदद करता था।
मैं
अकादमिक काम पर ध्यान केंद्रित
करने की कोशिश करता, पर
कोई न कोई ऐसी बड़ी घटना हो जाती
कि मैं सामाजिक गतिविधियों
में शामिल हो जाता। '92 का
दिसंबर और '93 की
जनवरी में योगेंद्र यादव कैंपस
में 'एकता
मंच' के
बैनर तले सक्रिय था और मैं
उनकी सभाओं में शामिल होता।
योगेंद्र ने '87 में
जन विज्ञान आंदोलन के दौरान
मेरे साथ काम किया था। हमारा
घनिष्ठ परिचय था। शाना के जन्म
के तुरंत बाद जब उसे खून देने
की ज़रूरत पड़ी तो रक्तदान करने
वालों में योगेंद्र भी था।
ऐसे
में चेतन के साथ परिचय होना
हमारे लिए फायदेमंद था। 92
के दिसंबर
महीने में अधिकतर दिनों में
चेतन चंडीगढ़ में नहीं था। पिता
की अस्वस्थता की वजह से मुंबई
गया हुआ था। फिर उनकी मृत्यु
हो गई। चेतन से हमारा परिचय नया-नया
ही था। 1992-93 में
जब हम 38 सेक्टर
के एक कोने में रहने लगे थे,
कई रातों को
कैरन एकलव्य की पाठ्य-पुस्तकों,
बाल-वैज्ञानिक
सीरीज़, का अंग्रेज़ी में
अनुवाद करने और दूसरे काम करने इमटेक जाती और
चौथी पहर में चेतन उसे छोड़
जाता। हमारे लिए कठिन दिन थे,
पर उन दिनों
इस तरह का काम करने का यही सबसे
अच्छा उपाय था। परिवार का जो
बिखराव तब शुरू हुआ, वह
अभी सार्वजनिक करने की इच्छा
मुझमें नहीं है। फिर कैरन और
शाना दो साल के लिए वापस अमेरिका
चले गए।
1993 में
चेतन की मदद से यूनिवर्सिटी
में ई-मेल
की सुविधा आ गई। शहर में अन्यत्र
भी, जैसे
आला पुलिस अफ्सरों के दफ्तरों
में यह सुविधी उसी ने मुहैया
करवाई। 1993 में
अक्तूबर-नवंबर
में मैं वापस अमेरिका गया। उस
दौरान इसी ई-मेल
सुविधा का इस्तेमाल कर मैंने
प्रो. देब
के छात्रों के लिए न्यूमेरिकल
एनालिसिस के दर्जनों प्रोग्राम
भेजे, जो
उन दिनों मुफ्त में नहीं मिलते
थे। पर वापस आने के कुछ ही समय
बाद पता चला कि किसी बेवकूफ
ने कुलपति को समझा दिया है कि आतंकवादी
ई-मेल
का ग़लत इस्तेमाल कर सकते हैं।
कुछ इस कारण से और कुछ इस मामले
पर बनी कमेटी के प्रोफेसरों
के अप्रिय बर्ताव के नतीज़तन
चेतन ने सहयोग करना बंद कर
दिया। फिर यूनिवर्सिटी में
ई-मेल
सुविधा लौटने में दो साल लग
गए और जब वह वापस मिली भी तो
निक-नेट
(एन आई
सी - नैशनल इन्फॉर्मेशन ऐंड
कम्युनिकेशन नेटवर्क)
से मिली और
वह गुणात्मक रूप से घटिया स्तर
की थी।
चेतन
की समस्या यह थी कि भले ही वह
इमटेक में वरिष्ठता अनुसार
उप-निर्देशक
के पद पर पहुँच चुका था,
बाकी लोगों
की नज़रों में वह एक मेधावी
टेक्निकल व्यक्ति था। उसे
प्रोफेसर या वैज्ञानिक जैसा
सम्मान न मिलता था और इसका
तीखा अहसास उसे था। शायद इसी
लिए वह कई वर्षों तक एमीनो-एसिड
कुल बीस ही क्यों होते हैं,
इस बुनियादी
वैज्ञानिक सवाल पर टी आई एफ
आर में कुछ साथियों के साथ
शुरू किए काम को वापस देखता रहता,
हालाँकि
मुझे शक है कि उसने इसके लिए
पर्याप्त अध्ययन कभी किया
हो। पर इस पर कुछ डेटा उसने
सँभाल कर रखा हुआ था। सामान्य
तौर पर विज्ञान में उसकी गहरी
रुचि थी। इमटेक में शोध-पत्रों
को पढ़ कर चर्चा करने के लिए
जर्नल क्लब की शुरूआत भी उसी
की कोशिश से हुई थी। ऐसी ही एक
सभा में 'साइंस'
पत्रिका में
एडेलमैन के डी एन ए कंप्यूटिंग
पर प्रकाशित पर्चे को उसने
स्वयं समझाया था। उस सभा में
मैं मौजूद था। बेहतर शोध-कार्य
करने में मेरी दिक्कतों को
वह करीब से देख-समझ
रहा था और इस पर न केवल उसे मेरे
प्रति सहानुभूति थी,
मेरे आक्रोश
को भी वह साझा कर रहा था।
कॉनी
भी थोड़े समय बाद चली गई। इमटेक
में चेतन के लिए स्थिति बिगड़ती
जा रही थी। पर जब तक बात बहुत
बिगड़ी न थी, हम
सामाजिक रूप से मिलते। मुझे
याद है कि एक बार हमारे मित्र
शुभेंदु घोष जो दिल्ली यूनिवर्सिटी
में बायोफिज़िक्स का प्रोफेसर
है और रामपुर घराने के हाफिज़
खान का शिष्य है, उसका
एक शास्त्रीय संगीत और ग़ज़ल
गायन चेतन के घर हुआ था,
जिसमें ओम
थानवी भी आए थे और इमटेक से भी
कई भले लोग शामिल हुए थे। एक बार इमटेक के कुछ और दोस्तों के साथ मिलकर हम सुखना झील के पीछे जंगलों में पिकनिक करने गए थे। तब
तक शायद अदालती मामलों का दौर
शुरू नहीं हुआ था।
मैं
1994 में
अपने विभाग के एक प्रोफेसर साहब
के अमेरिका जाने पर दो साल के
लिए कैंपस में उनके घर आ गया।
अड़तीस सेक्टर वाले मेरे घर
में स्थानीय एन जी ओ, आई
डी सी (इन्सटीटिउट
ऑफ डेवलपमेंट ऐंड कम्युनिकेशन)
में काम करने
आए भूपेंद्र यादव और उसकी
पत्नी वंदना महाजन रहने लगे।
इस दौरान चेतन अक्सर मेरे घर
आता, कभी
हमलोग अक्षरों से शब्द बनाने
का खेल स्क्रैबल खेलते,
कभी 'द
हिंदू' के
क्रॉसवर्ड पहेली का हल निकालते।
चेतन की अंग्रेज़ी मुझसे बेहतर
नहीं हो सकती थी, क्योंकि
मैं करीब सात साल अमेरिका में
बिता चुका था, पर
मजाल क्या है कि कभी मैंने उसे
स्क्रैबल में पछाड़ा हो या
क्रॉसवर्ड पहेली उससे पहले
हल की हो। स्क्रैबल में सभी
सातों अक्षरों का इस्तेमाल
करने पर दुगुने पॉएंट मिलते
हैं और वह हर बार ऐसा एकाधिक
बार कर लेता! इन
चीज़ों में उसकी पुरानी महारत
थी।
इसी
दौरान '95 में मैं, दलजीत
अमी, भूपेंद्र
यादव, ऑनोहिता
मजुमदार, हरीश
धवन, करम
बरशट और मृगांक ने मिल कर नागरिक
अधिकारों के लिए मंच 'चंडीगढ़
सिटीज़न्स कमिटी' बनाई
और हमने 'न्यू
चंडीगढ़' योजना
और 52 गाँवों
के लोगों के विस्थापन के खिलाफ
काफी काम किया। इसमें चेतन
की कोई रुचि न थी। मेरे घर मंच
की सभाएँ होतीं। मैं सबको गुड़
की चाय पिलाता। ई पी डब्ल्यू
और स्थानीय अखबारों में इस
पर लिखा तो दिल्ली से लोग हमसे
मिलने आने लगे। मैं उन्हें
अपने स्कूटर पर आस-पास
के गाँव घुमाने ले जाता। इन
सभाओं में चेतन ने कभी शिरकत
न की। इसी तरह उन दिनों मेरे घर पर युवाओं के साथ होती कविता-गोष्ठियों में भी उसकी रुचि न थी। अगर ऐसे किसी वक्त वह आ जाता तो या तो थोड़ी देर में चला जाता या अपना कोई काम करता रहता। वह दूसरे वक्त आता,
देर तक ठहरता,
इमटेक और
भारतीय विज्ञान प्रशासन पर
आक्षेप भरी बातें कहता और फिर
चला जाता। ऐसे ही दिनों में एक
रात मेरे समझाने के जवाब
में वह मुझे लताड़ कर यह संकेत
कर गया कि वह विदेश चले जाने
की सोच रहा है। उसकी लताड़ ऐसी
थी जैसे मैं इमटेक निर्देशक
के पक्ष में कह रहा होऊँ। खैर,
'94-'95 के उन
दिनों में हम दोनों में परिवार
के प्रति वफादारी थी और शायद
चेतन कॉनी के साथ मिल-बसने
के खयाल में परेशान था और मैं
अपने परिवार से बिछुड़ा परेशान
था। अवसाद और आक्रोश
जीवन में भरपूर था और आज तक रहा। याद आता है कि शायद '94 की
दीवाली थी जब शहर जश्न मना रहा
था और मैं, चेतन
और मृगांक पूरे परिवेश से कटे
कहीं खाना खाने के लिए मिलने
की जुगत कर रहे थे। तय यह हुआ
था कि अरोमा होटल के सामने
मिलें और फिर किसी छोटे ढाबे
में बैठ कर खाना खाएँ। साइकिल
पर जाना। या कि मैं स्कूटर पर
था। मैं समय पर पहुँचा। ये लोग
पहुँचे न थे। मोबाइल तो होता
न था। अरोमा के रीसेप्शन पर
पैसे देकर फ़ोन किया, पर
किसी ने उठाया नहीं। आखिर तंग
आकर उदास मन अकेले किसी ढाबे
में खाकर लौट आया। फिर शायद
फ़ोन पर बात हुई। दोनों घंटे
भर बाद पहुँच कर मेरा इंतज़ार
कर रहे थे। मुझे याद
है कि '94-'95 की
31 दिसंबर
की रात को मैंने अमेरिका फ़ोन
किया, चार
साल की बेटी से बात की और उत्तेजना
में ओम थानवी को, जिनसे
कुछ दिनों पहले कोई झड़प हो
चुकी थी, यह
बतलाने के लिए फ़ोन किया,
कि हमारे भी
अपने सुख हैं। फ़ोन भाभी जी
ने पकड़ा और हँस कर मेरी बात
सुन ली।
'95 की
गर्मियों में कैरन और शाना
वापस आ गए।
चेतन
से कंप्यूटर के लिए मदद माँगनी
भी एक समस्या थी। मेरे खयाल
से जितने भी लोगों ने उससे मदद
ली है, वे
सब उसका आभार मानते होंगे,
पर साथ ही
हर कोई याद करता होगा कि उसे
एक बार कह देने पर कैसी मुसीबतें
आती थीं। चेतन कोई इलेक्ट्रीशियन
या मेकानिक न था, वह
एक मेधावी इंजीनियर था। इसलिए
उसकी अपेक्षा यह होती कि लोग
विस्तार से मशीन की समस्या
समझें, पर
किसको इतनी फुर्सत या रुचि?
अक्सर वह
मशीन ठीक करते हुए उसे खोलकर
अपने लिए काम बढ़ा बैठता और
दूसरों को समझ न आता कि वह इतने
झंझट में क्यों पड़ रहा है।
उसके
मुरीदों में भूगर्भ विज्ञानी
प्रोफेसर अशोक साहनी थे,
जो भारत में
'राजासॉरस'
नामक डायानोसॉर
के अंडे के जीवाश्म की खोज के
लिए जाने जाते हैं। जब इमटेक
में स्थिति काफी बिगड़ गई और
चेतन के लिए वहाँ वक्त गुजारना
तक कठिन हो गया, तो
वह रातों को नियमित पाँच कि.मी. साइकिल चलाकर प्रोफेसर साहनी
की लैब में आकर काम करने लगा।
उनकी लैब से ई-मेल
की अलग ही व्यवस्था हो गई। एक
दो साल बाद जब तक मेरे प्रति
प्रो. देब
की नाराज़गी काफी तीखी हो चुकी
थी, लड़
झगड़ कर मेरी अपनी लैब (दस
साल के अध्यापन के बाद 1996
में– वह भी
एक रीटायर्ड प्रो. के
साथ साझा) बनी
और मुझे 1 GB हार्ड
डिस्क और 32 kB RAM का
पहला COMPAQ सिस्टम
मिला - तब
वह रातों को मेरी लैब में आकर
काम करने लगा। साल भर में ही
डी एस टी से अनुदान लेकर मैंने
दो मशीनें और ले लीं,
जिनमें सबसे
अधिक RAM शायद
1 MB का
और हार्ड डिस्क 20 GB की
थी। उसके काम को काम कहना ठीक
है या नहीं मुझे नहीं पता।
क्योंकि वह कोई दफ्तरी या पेशे
का काम न था। चेतन कंप्यूटर और
सूचना प्रौद्योगिकी में
समकालीन प्रगति के साथ वाकफियत
रखने की दौड़ में लगा रहता। साथ
ही मेरे जैसे मित्रों के लिए
शोध से जुड़े काम की सूचनाएँ इकट्ठी करनीं,
बाद के सालों में ('99-2000 के आस-पास) कभी कोई गीत,
डाउनलोड करना, यही
करता रहता। फिल्म
डाउनलोड करना उन दिनों संभव न था। ऐसे ही कभी किसी
अमेरिकी रेडियो चैनल पर उसने
के एल सहगल की शैली में गाए
मुकेश के विख्यात गीत 'दिल
जलता है तो जलने दो' का
रीमिक्स ढूँढ निकाला और उसे
सुन-सुन
कर हम हँसते-हँसते
पागल हुए जा रहे थे। शायद वह पहली
बार मैंने कोई रीमिक्स सुना था।
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