शुक्रवार पत्रिका के फरवरी के दूसरे अंक में छपी कविता -
आम आदमी
आम आदमी
चाँद,
तू
भी क्या आम आदमी है?
सूरज
शाम मधुशाला में छिप जाता है
तू
बीस रातों को पहरेदारी करता
है
क्या
अमावस तेरा भयकाल है?
अँधेरा
तुझे डराता वैसे ही क्या
जैसे
मैं डरता हूँ भूतों से
भूत
बढ़े चले आ रहे हैं
कितनी
अमावसें छिपेंगे हम तुम
ऐसे
ही चलेगा पूरनमासी और अमावस
का खेल
और
डर से ही भिड़ने
तुझे
साथ लेने निकला हूँ
अँधेरे
के भूतों देख लो
कि
आम आदमी क्या बला है।
(शुक्रवार - 2014)
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