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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Wednesday, February 19, 2014

आम आदमी

शुक्रवार पत्रिका के फरवरी के दूसरे अंक में छपी कविता - 
 
आम आदमी

चाँद, तू भी क्या आम आदमी है?
सूरज शाम मधुशाला में छिप जाता है
तू बीस रातों को पहरेदारी करता है
क्या अमावस तेरा भयकाल है?

अँधेरा तुझे डराता वैसे ही क्या
जैसे मैं डरता हूँ भूतों से
भूत बढ़े चले आ रहे हैं
कितनी अमावसें छिपेंगे हम तुम

ऐसे ही चलेगा पूरनमासी और अमावस का खेल
और डर से ही भिड़ने
तुझे साथ लेने निकला हूँ
अँधेरे के भूतों देख लो
कि आम आदमी क्या बला है।

                     (शुक्रवार - 2014)

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