आखिर
चेतन में ऐसी क्या बात थी कि
उस पर संस्मरण लिखा जाए। यह
तो हर कोई जो उसे जानता था खुद
सोचेगा, पर
मुझे लगता है चेतन के बहाने
मैं अपने ही अतीत की पड़ताल कर
रहा हूँ।
किसी भी दो लोगों की तरह चेतन और मुझमें भी कुछ मिलती-जुलती बातें थीं और कुछ ऐसी जहाँ हमारा स्वभाव एक दूसरे से बिल्कुल अलग था। हम दोनों शहरी ग़रीब मजदूर पिता के बच्चे थे। चेतन के पिता कपड़े सीने का काम करते थे, मेरा बापू सरकारी ड्राइवर था। वे दो भाई एक बहन तो हम तीन भाई एक बहन। वे मुंबई में गुजराती तो हम कोलकाता में आधे पंजाबी। पृष्ठभूमि से वे इस्माइली मुसलमान तो हम आधे सिख। विचारों में दोनों नास्तिक, वाम की तरफ झुके पर अराजक। दोनों का बचपन सामुदायिक आवासों में गुजरा। वैसे पाँच की उम्र से हम सरकारी फ्लैट में आ गए थे।
सबसे बड़ी समानता दोनों में जहालत और सामंती मूल्यों के प्रति असहिष्णुता थी। मैं फिर भी काफी हद तक समझौता कर लेता, पर चेतन भिड़ जाता। साइकिल चलाते हुए अकसर ऐसे लोगों का सामना करना पड़ता है जो आपको साइकिल से भी कम समझते हैं। मैं तो अधिकतर नज़रअंदाज़ कर देता पर चेतन उनके साथ लड़ लेता। माउंट विउ होटल में सामने साइकिल खड़ी न करने देने पर उसने मैनेजर को बुलवाया और उससे लड़ कर साइकिल सामने ही खड़ी की।
फर्क कई थे - मैं भाइयों में छोटा तो वह बड़ा। मेरी बेटी है, उसकी कोई संतान न थी। ये बातें जीवन के प्रति हमारी सोच और समझ निर्धारित करती हैं।
संगठित राजनैतिक गतिविधि में मेरा विश्वास किशोरावस्था से रहा है, उसका टूटा और शायद फिर से बना। आरक्षण पर उसकी समझ आम मध्य-वर्ग के लोगों जैसी विरोध में थी, पर वह बदली। मुझे पता नहीं कब कैसे वैचारिक बदलाव आए या कि बस कुछ करने को चाहिए था, नब्बे के दशक के आखिरी सालों से हमारे काम में कंधे से कंधा मिला कर तो नहीं, पर कंप्यूटर के तकनीकी मामलों और नेटवर्किंग आदि में वह मेरे साथ था।
चंडीगढ़ में मैं कई तरह की गतिविधियों में शामिल था। यूनिवर्सिटी में आते ही वाम पक्ष के अध्यापकों के साथ जुड़ गया था। इनमें शीर्षस्थ कैंपस में सी पी आई एम के पुराने कार्ड होल्डर और प्रतिबद्ध कामरेड केमिकल इंजीनियरिंग के प्रो. धरमवीर थे। मेरे प्रति उनका अपार स्नेह था। कोई दो साल पहले उनकी मृत्यु हुई है। उन्हीं के कहने पर शहर के स्थानीय वाम कार्यकर्त्ताओं के विरोध के बावजूद मैं 1987 में भारत जन विज्ञान जत्था की चंडीगढ़ इकाई का संयोजक बना था। अध्यापक राजनीति में तथाकथित वाम पक्ष वैचारिक रूप से लगातार विचलन का शिकार होता रहा। अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद अकादमिक और वैचारिक मसलों पर मैं अडिग था, इसलिए मेरी छवि एक ईमानदार अध्यापक और कार्यकर्त्ता की थी - इसे कितना निभा पाया यह तो और लोग ही जानते हैं। पर सांगठनिक काम के प्रति चेतन की उदासीनता के कम होने के पीछे और उसकी सक्रियता के बढ़ने के पीछे मेरा कुछ योगदान रहा होगा, ऐसा मैं सोचता हूँ। अध्यापक संगठन के लिए विविध राजनैतिक और वैचारिक विषयों पर सेमिनार करवाने में मैं सक्रिय था। अब लगता है कि उन दिनों पता नहीं क्या-क्या कर रहे थे। चंडीगढ़ शहर के निर्माण के साथ यह ध्यान रखा गया था कि हर किस्म के समुदाय को अपनी गतिविधियों के लिए जगह मिले। इसलिए शहर में कई सामुदायिक केंद्र हैं। इनमें से एक लाजपत राय भवन है। 1921 में लाला लाजपत राय की बनाई 'सर्वेंट्स ऑफ द पीपल सोसाएटी' नामक बुज़ुर्गों की एक संस्था इसका देख-रेख करती है। नब्बे के दशक में वहाँ के पुस्तकालय में नियमित व्याख्यान हुआ करते थे। पहले इसके संयोजक प्रो. हरकिशन सिंह मेहता थे। बाद में उनके कहने पर मैंने यह भार लिया और करीब दो साल इसे सँभाला। शायद 1995 में प्रसिद्ध नाटककार और संस्कृति-कर्मी गुरशरण सिंह की पहल पर शहर के कुछ बुद्धिजीवियों ने 'चेतना मंच' नामक संस्था बनाई। इसके, और बाद में इसी में से निकले सहयोगी संगठन 'चंडीगढ़ साहित चिंतन', के संस्थापक सदस्यों में से मैं था। यानी कि शहर भर में जगह जगह ज़मीनी स्तर पर बौद्धिक हस्तक्षेप करने वालों में मैं शामिल था। इन सभाओं के लिए इश्तिहार तैयार करने और बँटवाने आदि के लिए मुझे भी काफी काम करना पड़ता और दौड़भाग भी करनी पड़ती। शायद यहीं से चेतन ने मेरी मदद शुरू की और संगठित कामों में उसकी भागीदारी बढ़ती चली। गुरशरण सिंह लंबी बीमारी के बाद दो साल पहले गुजर गए, पर साहित चिंतन अभी भी सक्रिय है और इसमें सरदारा सिंह चीमा की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
लाजपत भवन में कई तरह के स्वास्थ्य-सुविधा और तकनीकी प्रशिक्षण केंद्रों में एक युवाओं के लिए कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र भी खुला था। जहाँ तक मुझे याद है मैंने शायद भवन में हो रहे सारे काम को कंप्यूटराइज़ करने पर जोर डाला था। सोसायटी के प्रबंधक ओंकार चंद मुझ पर काफी भरोसा करते थे और मेरे कहने पर चेतन को उन्होंने इस काम का भार दिया। चेतन ने उनके लिए कुछेक मशीनों का एक नेटवर्क भी डिज़ाइन किया। वहीं चेतन की मुलाकात आलोक महेंद्रू से हुई थी, जो चेतन का हमेशा के लिए दोस्त बन गया। आलोक और उसकी फ्रांसीसी पत्नी, जो हिमाचल के गद्दी जनजातियों के लिए एन जी ओ चलाती हैं, पहले मैक्लियोड गंज के ऊपर धर्मकोट नामक गाँव में बसे, फिर कोई नौ साल पहले डलहौज़ी में कहीं रहने लगे हैं। 2001 में मैं और चेतन उनसे मिलने धर्मकोट गए थे। इसके पहले चेतन सपरिवार यानी अपने भाई बहन के परिवारों और माँ के साथ वहाँ गया था। बाद में 2003 में मैं फिर कैरन और शाना के साथ गया हूँ। वहाँ त्रिउंड की चोटी तक चढ़ कर हिमालय दर्शन का अद्भुत आनंद आता है।
'95 के आस-पास ही समाज विज्ञान के छात्रों ने 'क्रिटीक' नामक संस्था बनाई, जिसका मुख्य काम नियमित व्याख्यान-माला का आयोजन था। मैं और दो-एक और अध्यापक उन छात्रों को हौसला दे रहे थे। इसमें भी शुरूआती दौर में चेतन की कोई रुचि न थी, पर बाद में क्रिटीक की हर सभा और उनकी बैठकों में जाना उसकी नियमचर्या में आ गया था और उसने कई चर्चाओं में बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लिया। 'क्रिटीक' के मूल संयोजकों में लल्लन सिंह बघेल कोई दस सालों से दर्शन शास्त्र का अध्यापक है। आशीष अलेक्ज़ेंद्र, जिसने बाद में कुछ समय तक एक और विमर्श समूह को चलाया, वह किसी अंग्रेज़ी प्रकाशन संस्था में काम करता है। दलजीत अमी ए आई एस एफ का पुराना कार्यकर्त्ता था, जो इन दिनों पंजाबी टी वी ऐंकर है। योगेश स्नेही दिल्ली में आंबेडकर यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ा रहा है। दीपा, उसकी पत्नी दिल्ली में ही किसी संस्था में काम कर रही है। कुछ और लड़कियाँ बहुत सक्रिय थीं, जिनके नाम याद नहीं आ रहे।
चेतन और मैंने इकट्ठे सबसे ज्यादा काम शायद सांप्रदायिकता के खिलाफ गतिविधियों में किया। पिछली सदी के आखिरी तीन दशकों में विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना पर हमला जोरों का था। इन बातों पर मैंने इस ब्लॉग पर पहले कई चिट्ठे लिखे हैं। गुरशरण सिंह वाम चिंतन के साथ पुरानी तर्ज़ पर वैज्ञानिक चेतना को जोड़ कर देखते थे। मैं स्वयं जन- विज्ञान आंदोलन से जुड़ा था। इसलिए यह स्वाभाविक था कि हम किसी न किसी तरह के जन-विज्ञान संगठन को चलाते रहें। हमने 1989-90 के आस-पास चंडीगढ़ विज्ञान मंच बनाया था, कहने को कुछ सक्रियता भी थी, 1995 की पहली अप्रैल को एक क्षेत्रीय जन-विज्ञान कर्मियों की दो दिवसीय सभा भी की थी। वहीं अमदाबाद में बसे विनय महाजन और चारुल पहली बार मिले थे और उन्होंने अपने मेज को तबले सा बजाकर सांप्रदायिकता विरोधी गीत गाकर सुनाए थे। इस मंच से इसके बाद किया कोई खास काम याद नहीं आता। मैं इधर उधर भाषण देता - कभी दूर दराज इलाकों में युवाओं की सभाओं में, कभी अध्यापकों के ओरिएंटेशन और विभिन्न विभागों के रीफ्रेशर कोर्सेस में, पर वे सब निजी प्रयास थे। बहरहाल इसी मंच को कभी - अब साल याद नहीं, शायद 1997 में - 'स्टैग' (STAG – साइंस ऐंड टेक्नोलोजी ऐक्टीविटी ग्रुप) नाम से फिर से ज़िंदा किया था, पर कोई खास काम नहीं हो रहा था। फिर 1998 की मई में पोखरन के धमाकों ने इस मंच में जान ला दी। शहर में गुरशरण सिंह और चेतना मंच की पहल से सांप्रदायिकता विरोधी आवाज बुलंद थी। बी जे पी की ताकत बढ़ने के साथ देश भर में हर स्तर पर सांप्रदायिक ताकतें मुखर हो रही थीं। पोखरन का मुद्दा एकसाथ विज्ञान और राष्ट्रवादी संकीर्णता का मुद्दा था। बी जे पी का राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता का ही घिनौना स्वरूप था। हमने इसपर काम शुरू किया। हमें कई लोगों का सहयोग मिला, जिनमें बुज़ुर्ग कॉमरेड प्रेम सिंह बहुत याद आते हैं। इसके बाद चेतन की सक्रियता लगातार बनी रही। इस पर अगली बार।
किसी भी दो लोगों की तरह चेतन और मुझमें भी कुछ मिलती-जुलती बातें थीं और कुछ ऐसी जहाँ हमारा स्वभाव एक दूसरे से बिल्कुल अलग था। हम दोनों शहरी ग़रीब मजदूर पिता के बच्चे थे। चेतन के पिता कपड़े सीने का काम करते थे, मेरा बापू सरकारी ड्राइवर था। वे दो भाई एक बहन तो हम तीन भाई एक बहन। वे मुंबई में गुजराती तो हम कोलकाता में आधे पंजाबी। पृष्ठभूमि से वे इस्माइली मुसलमान तो हम आधे सिख। विचारों में दोनों नास्तिक, वाम की तरफ झुके पर अराजक। दोनों का बचपन सामुदायिक आवासों में गुजरा। वैसे पाँच की उम्र से हम सरकारी फ्लैट में आ गए थे।
सबसे बड़ी समानता दोनों में जहालत और सामंती मूल्यों के प्रति असहिष्णुता थी। मैं फिर भी काफी हद तक समझौता कर लेता, पर चेतन भिड़ जाता। साइकिल चलाते हुए अकसर ऐसे लोगों का सामना करना पड़ता है जो आपको साइकिल से भी कम समझते हैं। मैं तो अधिकतर नज़रअंदाज़ कर देता पर चेतन उनके साथ लड़ लेता। माउंट विउ होटल में सामने साइकिल खड़ी न करने देने पर उसने मैनेजर को बुलवाया और उससे लड़ कर साइकिल सामने ही खड़ी की।
फर्क कई थे - मैं भाइयों में छोटा तो वह बड़ा। मेरी बेटी है, उसकी कोई संतान न थी। ये बातें जीवन के प्रति हमारी सोच और समझ निर्धारित करती हैं।
संगठित राजनैतिक गतिविधि में मेरा विश्वास किशोरावस्था से रहा है, उसका टूटा और शायद फिर से बना। आरक्षण पर उसकी समझ आम मध्य-वर्ग के लोगों जैसी विरोध में थी, पर वह बदली। मुझे पता नहीं कब कैसे वैचारिक बदलाव आए या कि बस कुछ करने को चाहिए था, नब्बे के दशक के आखिरी सालों से हमारे काम में कंधे से कंधा मिला कर तो नहीं, पर कंप्यूटर के तकनीकी मामलों और नेटवर्किंग आदि में वह मेरे साथ था।
चंडीगढ़ में मैं कई तरह की गतिविधियों में शामिल था। यूनिवर्सिटी में आते ही वाम पक्ष के अध्यापकों के साथ जुड़ गया था। इनमें शीर्षस्थ कैंपस में सी पी आई एम के पुराने कार्ड होल्डर और प्रतिबद्ध कामरेड केमिकल इंजीनियरिंग के प्रो. धरमवीर थे। मेरे प्रति उनका अपार स्नेह था। कोई दो साल पहले उनकी मृत्यु हुई है। उन्हीं के कहने पर शहर के स्थानीय वाम कार्यकर्त्ताओं के विरोध के बावजूद मैं 1987 में भारत जन विज्ञान जत्था की चंडीगढ़ इकाई का संयोजक बना था। अध्यापक राजनीति में तथाकथित वाम पक्ष वैचारिक रूप से लगातार विचलन का शिकार होता रहा। अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद अकादमिक और वैचारिक मसलों पर मैं अडिग था, इसलिए मेरी छवि एक ईमानदार अध्यापक और कार्यकर्त्ता की थी - इसे कितना निभा पाया यह तो और लोग ही जानते हैं। पर सांगठनिक काम के प्रति चेतन की उदासीनता के कम होने के पीछे और उसकी सक्रियता के बढ़ने के पीछे मेरा कुछ योगदान रहा होगा, ऐसा मैं सोचता हूँ। अध्यापक संगठन के लिए विविध राजनैतिक और वैचारिक विषयों पर सेमिनार करवाने में मैं सक्रिय था। अब लगता है कि उन दिनों पता नहीं क्या-क्या कर रहे थे। चंडीगढ़ शहर के निर्माण के साथ यह ध्यान रखा गया था कि हर किस्म के समुदाय को अपनी गतिविधियों के लिए जगह मिले। इसलिए शहर में कई सामुदायिक केंद्र हैं। इनमें से एक लाजपत राय भवन है। 1921 में लाला लाजपत राय की बनाई 'सर्वेंट्स ऑफ द पीपल सोसाएटी' नामक बुज़ुर्गों की एक संस्था इसका देख-रेख करती है। नब्बे के दशक में वहाँ के पुस्तकालय में नियमित व्याख्यान हुआ करते थे। पहले इसके संयोजक प्रो. हरकिशन सिंह मेहता थे। बाद में उनके कहने पर मैंने यह भार लिया और करीब दो साल इसे सँभाला। शायद 1995 में प्रसिद्ध नाटककार और संस्कृति-कर्मी गुरशरण सिंह की पहल पर शहर के कुछ बुद्धिजीवियों ने 'चेतना मंच' नामक संस्था बनाई। इसके, और बाद में इसी में से निकले सहयोगी संगठन 'चंडीगढ़ साहित चिंतन', के संस्थापक सदस्यों में से मैं था। यानी कि शहर भर में जगह जगह ज़मीनी स्तर पर बौद्धिक हस्तक्षेप करने वालों में मैं शामिल था। इन सभाओं के लिए इश्तिहार तैयार करने और बँटवाने आदि के लिए मुझे भी काफी काम करना पड़ता और दौड़भाग भी करनी पड़ती। शायद यहीं से चेतन ने मेरी मदद शुरू की और संगठित कामों में उसकी भागीदारी बढ़ती चली। गुरशरण सिंह लंबी बीमारी के बाद दो साल पहले गुजर गए, पर साहित चिंतन अभी भी सक्रिय है और इसमें सरदारा सिंह चीमा की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
लाजपत भवन में कई तरह के स्वास्थ्य-सुविधा और तकनीकी प्रशिक्षण केंद्रों में एक युवाओं के लिए कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र भी खुला था। जहाँ तक मुझे याद है मैंने शायद भवन में हो रहे सारे काम को कंप्यूटराइज़ करने पर जोर डाला था। सोसायटी के प्रबंधक ओंकार चंद मुझ पर काफी भरोसा करते थे और मेरे कहने पर चेतन को उन्होंने इस काम का भार दिया। चेतन ने उनके लिए कुछेक मशीनों का एक नेटवर्क भी डिज़ाइन किया। वहीं चेतन की मुलाकात आलोक महेंद्रू से हुई थी, जो चेतन का हमेशा के लिए दोस्त बन गया। आलोक और उसकी फ्रांसीसी पत्नी, जो हिमाचल के गद्दी जनजातियों के लिए एन जी ओ चलाती हैं, पहले मैक्लियोड गंज के ऊपर धर्मकोट नामक गाँव में बसे, फिर कोई नौ साल पहले डलहौज़ी में कहीं रहने लगे हैं। 2001 में मैं और चेतन उनसे मिलने धर्मकोट गए थे। इसके पहले चेतन सपरिवार यानी अपने भाई बहन के परिवारों और माँ के साथ वहाँ गया था। बाद में 2003 में मैं फिर कैरन और शाना के साथ गया हूँ। वहाँ त्रिउंड की चोटी तक चढ़ कर हिमालय दर्शन का अद्भुत आनंद आता है।
'95 के आस-पास ही समाज विज्ञान के छात्रों ने 'क्रिटीक' नामक संस्था बनाई, जिसका मुख्य काम नियमित व्याख्यान-माला का आयोजन था। मैं और दो-एक और अध्यापक उन छात्रों को हौसला दे रहे थे। इसमें भी शुरूआती दौर में चेतन की कोई रुचि न थी, पर बाद में क्रिटीक की हर सभा और उनकी बैठकों में जाना उसकी नियमचर्या में आ गया था और उसने कई चर्चाओं में बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लिया। 'क्रिटीक' के मूल संयोजकों में लल्लन सिंह बघेल कोई दस सालों से दर्शन शास्त्र का अध्यापक है। आशीष अलेक्ज़ेंद्र, जिसने बाद में कुछ समय तक एक और विमर्श समूह को चलाया, वह किसी अंग्रेज़ी प्रकाशन संस्था में काम करता है। दलजीत अमी ए आई एस एफ का पुराना कार्यकर्त्ता था, जो इन दिनों पंजाबी टी वी ऐंकर है। योगेश स्नेही दिल्ली में आंबेडकर यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ा रहा है। दीपा, उसकी पत्नी दिल्ली में ही किसी संस्था में काम कर रही है। कुछ और लड़कियाँ बहुत सक्रिय थीं, जिनके नाम याद नहीं आ रहे।
चेतन और मैंने इकट्ठे सबसे ज्यादा काम शायद सांप्रदायिकता के खिलाफ गतिविधियों में किया। पिछली सदी के आखिरी तीन दशकों में विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना पर हमला जोरों का था। इन बातों पर मैंने इस ब्लॉग पर पहले कई चिट्ठे लिखे हैं। गुरशरण सिंह वाम चिंतन के साथ पुरानी तर्ज़ पर वैज्ञानिक चेतना को जोड़ कर देखते थे। मैं स्वयं जन- विज्ञान आंदोलन से जुड़ा था। इसलिए यह स्वाभाविक था कि हम किसी न किसी तरह के जन-विज्ञान संगठन को चलाते रहें। हमने 1989-90 के आस-पास चंडीगढ़ विज्ञान मंच बनाया था, कहने को कुछ सक्रियता भी थी, 1995 की पहली अप्रैल को एक क्षेत्रीय जन-विज्ञान कर्मियों की दो दिवसीय सभा भी की थी। वहीं अमदाबाद में बसे विनय महाजन और चारुल पहली बार मिले थे और उन्होंने अपने मेज को तबले सा बजाकर सांप्रदायिकता विरोधी गीत गाकर सुनाए थे। इस मंच से इसके बाद किया कोई खास काम याद नहीं आता। मैं इधर उधर भाषण देता - कभी दूर दराज इलाकों में युवाओं की सभाओं में, कभी अध्यापकों के ओरिएंटेशन और विभिन्न विभागों के रीफ्रेशर कोर्सेस में, पर वे सब निजी प्रयास थे। बहरहाल इसी मंच को कभी - अब साल याद नहीं, शायद 1997 में - 'स्टैग' (STAG – साइंस ऐंड टेक्नोलोजी ऐक्टीविटी ग्रुप) नाम से फिर से ज़िंदा किया था, पर कोई खास काम नहीं हो रहा था। फिर 1998 की मई में पोखरन के धमाकों ने इस मंच में जान ला दी। शहर में गुरशरण सिंह और चेतना मंच की पहल से सांप्रदायिकता विरोधी आवाज बुलंद थी। बी जे पी की ताकत बढ़ने के साथ देश भर में हर स्तर पर सांप्रदायिक ताकतें मुखर हो रही थीं। पोखरन का मुद्दा एकसाथ विज्ञान और राष्ट्रवादी संकीर्णता का मुद्दा था। बी जे पी का राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता का ही घिनौना स्वरूप था। हमने इसपर काम शुरू किया। हमें कई लोगों का सहयोग मिला, जिनमें बुज़ुर्ग कॉमरेड प्रेम सिंह बहुत याद आते हैं। इसके बाद चेतन की सक्रियता लगातार बनी रही। इस पर अगली बार।
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