Tuesday, February 04, 2014

धमतरी: दिसंबर 2013

यह चिट्ठा कई दिन पहले लिखा जाना चाहिए था। दिसंबर में रायपुर की एक कार्यशाला में विकास और पर्यावरण पर सत्र करवाना था। पहली बार रायपुर गया था। छत्तीसगढ़ से होकर कई बार गुजरा हूँ, पर कभी वहाँ ठहरा न था। 15 की रात को पहुँचा और बस स्टैंड के पास ही होटल में ठहरने का इंतज़ाम था। जाने से पहले शहर के कुछ साहित्य-संस्कृति कर्मियों के फोन नंबर इकट्ठे किए थे कि हो सके तो उनसे मिलूँ। विनोद कुमार शुक्ल जी से मिलने की इच्छा थी। शहर पहुँचकर इप्टा के किसी साथी से फोन पर संपर्क किया। उसने कहा कि वह बाकी दोस्तों से बात कर वापस संपर्क करेगा। पर किया नहीं। 16 दिसंबर को रायपुर में दिनभर सत्र चला। शाम तक थक भी गया और संकोच भी था तो किसी से मिलने न गया। अप्रेफा रायपुर केंद्र के मुख्य अधिकारी सुनील शाह ने अगले दिन यानी 17 तारीख को धमतरी में कविता पढ़ने के लिए कहा। कुरुद होकर कोई तीन घंटे का सफर था। रास्ते में मगरलोड़ में प्रचार्यों के लिए शिक्षा पर चल रही एक और कार्यशाला में थोड़ी देर बैठा। दो-तीन विभागीय अधिकारी पीछे कुर्सियों पर बैठे थे। शिक्षा क्या है, इस पर लंबी बातचीत के दौरान एक अधिकारी ने अशिक्षित होना क्या होता है, इसे बतलाने के लिए ओसामा बिन लादेन का उदाहरण पेश किया। एक प्राचार्य ने अच्छी शिक्षा के उदाहरण बतौर यह कहा कि भारत कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं करता। मुझे रोचक बात यह लग रही थी कि अच्छी शिक्षा की धारणा को कैसे राष्ट्रवाद के साथ जोड़ कर देखा जा रहा था।

धमतरी में कविताएँ पढ़ने के लिए साथ में अध्यक्षता के लिए माझी अनंत थे। अप्रेफा के साथियों के अलावा शहर के कई लोग सुनने आए थे। कई सारी कविताएँ पढ़ीं। पर ज्यादा मजा उसके बाद हुई चर्चा में आया। कविता के बारे में बहुत सारे सवाल उठाए गए। खासकर युवाओं ने खूब बातें कीं। कविता में छंद होना न होना, विनोद का होना न होना आदि कई सवालों पर खूब चर्चा हुई। बड़े शहरों में इस तरह देर तक बातचीत कम ही होती है। किसी को कोई जल्दी न थी। आराम से हर कोई कह सुन रहा था। एक सज्जन का सवाल था कि कविता में सीधे-सीधे न कहकर लीपापोती कर के बातें क्यों कही जाती हैं। मैंने बतलाया कि मेरी कई कविताओँ में सीधे-सीधे नाम लेकर राजनैतिक बातें कही गई हैं, पर अकसर वे सामयिक रचनाएँ हैं। रोचक सवाल था। पढ़ने के दौरान शहर के एक वरिष्ठ व्यापारी जो साहित्यिक सभाओं की सरपरस्ती करते रहे हैं, उनको भी मंच पर बैठाया गया। चरचा के दौरान उनकी आपत्ति थी कि मेरे जैसे कवि अपनी बातें तो कह देते हैं, पर आम लोगों के लिए कुछ नहीं कहते। फिर उन्होंने बड़ी उत्तेजना के साथ अपनी एक सामाजिक संदर्भ की रचना सुनाई। वे जल्दी चले गए और बाद में फोन पर अफसोस भी जताते रहे कि उनको जल्दी जाना पड़ा।  

मोहन डहेरिया देर से पहुँचे। माझी और मोहन दोनों से पहली बार मिला था। देर तक उनसे वहाँ से लौटा तो चंगे मिजाज खयालों के साथ था। उम्मीद यही कि फिर कभी जल्दी ही वहाँ जाने का मौका मिलेगा। 

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