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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Sunday, February 02, 2014

मित्र नेता के बहाने अपनी संवेदना की पड़ताल


योगेंद्र यादव इन दिनों बड़े राजनैतिक नेता हैं। यहाँ तक पहुँचने के पीछे उनका दीर्घकालीन कर्मठ राजनैतिक अतीत है, जो समाजवादी विचारों से प्रेरित रहा है। साथ ही अकादमिक गलियारों और मीडिया में कई तरह की भूमिकाओं में वे सक्रिय रहे हैं। मेरा योगेंद्र से बहुत पुराना परिचय है। मेरे कठिन क्षणों में उसने मेरी मदद की है और निजी कारणों से मैं आजीवन उसके प्रति कृतज्ञ हूँ।

वर्षों पहले कुछ काम हमने साथ भी किए हैं। मैंने हमेशा उसकी प्रतिबद्धता को सराहा है। निजी हालात की वजह से जिस तरह के समझौते मुझे अपने जीवन में करने पड़े हैं, उनकी वजह से कह सकता हूँ कि ईर्ष्या भी होती है कि मैं उसकी तरह सक्रिय नहीं रहा हूँ। इसलिए जब योगेंद्र की राजनीति की आलोचना करता हूँ तो मन में हिचक होती है कि मैं कहीं ईर्ष्यावश तो ऐसा नहीं कर रहा। साथ ही मैं राजनीति-शास्त्र का अध्येता भी नहीं हूँ। इसलिए वैचारिक बातें कहते हुए झिझकता हूँ।

हाल में आम आदमी पार्टी के वैचारिक कर्णधार के रूप में योगेंद्र की राजनीति सार्वजनिक और व्यापक रूप से लोगों के सामने आई है। सोमनाथ भारती प्रकरण में आआपा के और लोगों की तरह योगेंद्र ने भी भारती के नस्लवादी रवैए की आलोचना तो दूर, उल्टे उसके पक्ष में ही तर्क रखे। स्पष्ट है कि इसमें राजनीति है। सत्ता हथियानी है, तो हवा के रुख के साथ रहना है। पर कितनी दूर तक? खास कर ऐसे लोग जो ईमानदारी को अपना स्लोगन बनाए हुए हैं, उनसे तो यही अपेक्षा होगी कि वे जो भी कहें, उसमें ईमानदारी हो। यहीं समस्या खड़ी होती है। योगेंद्र बेईमानी नहीं कर रहा, वह वाकई खाप पंचायत को ठीक मानता है, उसे वाकई सोमनाथ की करतूत में कोई गड़बड़ी नहीं दिखती। अब नई बात जो हुई है, वह है मानेसर में मारुति कामगरों की लंबी लड़ाई प्रसंग में उनकी एक सभा में योगेंद्र ने एक वक्तव्य दिया है। इस पर अभिषेक श्रीवास्तव ने एक चिट्ठा अपने ब्लॉग परपोस्ट किया है। चिट्ठे के अनुसार 'योगेंद्र यादव ने बोलने की शुरुआत एक डिसक्‍लेमर से की कि उनके पास जब भी कोई पक्ष अपनी बात या शिकायत लेकर आता है, तो सार्वजनिक जीवन के लंबे अनुभव या पुराने संकोच के चलते वे सोचते हैं कि उक्‍त विषय के बारे में दूसरे पक्ष की क्‍या राय होगी। …."जब घटना के बाद मेरे पास मारुति के मज़दूर आए थे और मुझसे कहा था कि हमारे साथ ज्‍यादती हो रही है तो ''मैं आपको ईमानदारी से बताता हूं कि मैंने उस वक्‍त जाने से इनकार कर दिया था,'' वे बोले, ''एक हत्‍या हुई है, एक व्‍यक्ति मरा है, किसी बच्‍चे का बाप मरा है, हमें पहले माफी मांगनी चाहिए।'' ...योगेंद्र यादव यह भूल गए थे कि उनके सामने बैठी महिलाएं जो रो रही थीं, उनके भी घरवाले पिछले डेढ़ साल से जेल में बंद थे और मारे गए अधिकारी के प्रति सद्भावना जताकर वे इन परिजनों के मन में कोई सहानुभूति नहीं पैदा कर रहे होंगे। बात यहीं तक नहीं रही, यादव ने मजदूरों से यह तक कह डाला कि सबसे पहले हत्‍या के दोषियों को पकड़ा जाना चाहिए और बाकी मजदूरों को उनका बचाव नहीं करना चाहिए क्‍योंकि हरियाणा सरकार एक के बदले डेढ़ सौ मजदूरों को जेल में डाले रखना चाहती है। पूरे भाषण में न तो मारुति प्रबंधन का जि़क्र आया, न ही डेढ़ साल से जेल में सड़ रहे मजदूरों का और न ही सरकार व कंपनी की साठगांठ की कोई बात।'

मुझे नहीं पता कि अभिषेक के चिट्ठे में कितना पूर्वाग्रह उनके अपने विचारों की वजह से हो सकता है, पर मैं यकीन कर सकता हूँ कि जैसा चिट्ठे में लिखा है ऐसा हुआ होगा। डेढ़ साल पहले एन सी ई आर टी की पाठ्य-पुस्तक में नेहरू-आंबेडकर कार्टून विवाद में योगेंद्र और अन्य साथियों ने कार्टून के पक्ष में जिस तरह की कट्टरता दिखलाई थी, वह और तमाम दीगर घटनाओं के साथ मारुति प्रसंग में उसका कथन सिर्फ योगेंद्र नहीं, हम जैसे सभी उदारवादियों की संवेदनशीलता पर प्रश्न खड़ा करता है। मारुति के कैद कामगरों को व्यावहारिकता और नैतिकता का पाठ पढ़ाते हुए योगेंद्र ने हमारे वर्ग-जाति-लिंग-चरित्र को ही पेश किया है - वर्षों तक वंचितों के लिए संघर्ष करते हुए भी व्यावहारिक राजनीति हमें असंवेदनशील बना देती है। गौरतलब है कि इस वक्त मारुति घटना से सबसे अधिक उत्पीड़ित स्त्रियाँ और बच्चे हैं

दूसरा पक्ष देखना सही बात है - पर हम कैसे दूसरा पक्ष चुनते हैं, यह सवाल है। नेहरू-आंबेडकर कार्टून विवाद पर हम किस पक्ष में खड़े थे, खाप पंचायत का 'भला' पक्ष देखते हुए हम किस दूसरे पक्ष के साथ खड़े हैं, सोमनाथ भारती के साथ हम किस पक्ष में हैं, यही सिलसिला मारूति कांड में 'दूसरा पक्ष' क्या है, बतलाता है। 'हत्या' एक पक्ष है, हत्या करने वाले पैदाइश हत्यारे नहीं हैं और कैसी स्थितियों में कौन हत्या कर रहा है, यह भी एक पक्ष है। आंद्रे मालरो के उपन्यास 'La Condition Humaine (मानव नियति)' में हेमेलरीख (नाम ग़लत हो सकता है; जहाँ तक स्मृति में है) राष्ट्रवादियों के साथ लड़ाई में कम्युनिस्टों की मदद करने से इन्कार करता है, प्यार की वजह से; और जब राष्ट्रवादी उसके बीमार बच्चे की हत्या कर देते हैं, तो वह लड़ने मरने के लिए निकल पड़ता है -प्यार की वजह से।

यह मान लेना कि मजदूर हत्यारों के साथ हैं, यह शोषकों के समर्थन में भारतीय सामंती बुद्धिजीवियों और मुख्यधारा की मीडिया वाला पहला पक्ष है। दूसरा पक्ष देखने के लिए हम खुद से पूछें कि किस पक्ष के साथ हम खड़े हैं।

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3 Comments:

Blogger लाल्टू said...

अभी खबर पढ़ी कि आआपा के संस्थापक सदस्यों में से एक मधु भादुड़ी ने पार्टी यह कहकर छोड़ दी है कि पार्टी में स्त्री सदस्यों के साथ ऐसा घटिया व्यवहार किया जाता है कि यह पार्टी नहीं खाप पंचायत है और स्त्रियाँ इंसान नहीं हैं।

9:16 PM, February 02, 2014  
Anonymous अमलेन्दु उपाध्याय said...

सत्य वचन

11:39 AM, February 03, 2014  
Blogger Rajeev Godara said...

http://m.thehindu.com/news/national/khap-panchayats-have-no-legal-sanctity-says-yogendra-yadav/article5643559.ece/?maneref=http%3A%2F%2Ft.co%2FX6clRd4fJh

11:00 PM, February 03, 2014  

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