बेंगलूरु में आई आई एस सी, आई एस आई, और चेन्नै में आईमैथ्स (इंस्टीटिउट ऑफ मैथेमेटिकल साइँसेस) के वैज्ञानिक साथियों ने नाभिकीय विस्फोटों के खतरों से अवाम को सचेत करने के लिए एक स्लाइ़ड शो तैयार किया था। आई एस आई (इंडियन स्टैस्टिकल इंस्टीटिउट) में मेरा बहुत ही प्रिय दोस्त विश्वंभर पति (प्रख्यात स्त्री-आंदोलन कार्यकर्त्ता कुमुदिनी का भाई) अध्यापक है। उससे स्लाइ़ड्स मँगवाईं। उन्होंने चेन्नै को ग्राउंड ज़ीरो नाभिकीय बम जहाँ गिरता है उसके बिल्कुल पास का क्षेत्र) बनाकर दिखलाया था। चेतन ने इसे बदल कर चंडीगढ़ को ग्राउंड ज़ीरो बनाया। पता नहीं हमलोगों ने कितने स्कूलों, समुदाय केंद्रों में इसे दिखलाया। नाभिकीय विस्फोटों की बात करते हुए हम दक्षिण एशिया में शांति के पक्ष में और सांप्रदायिकता के खिलाफ तर्क रखते। अधिकतर जगह मैं भाषण देता। कहीं कहीं और साथी बोलते। हमने सांप्रदायिकता के खिलाफ मोर्चा बुलंद किया हुआ था। वह बड़ा कठिन समय था। 1998 के विस्फोटों के साल भर बाद कारगिल युद्ध हुआ। हमलोग लगे रहे। गुरशरण सिंह ने स्लाइड शो के आधार पर नाटक लिखा और वह सैंकड़ों जगह खेला गया। चेतन ने हजारों सी डी बनाईं। स्लाइ़ड शो के अलावा गौहर रज़ा की एक छोटी फिल्म ब्रेख़्त की रवानी और यूसुफ सईद की बसंत पर फिल्म और दलजीत अमी की छोटी फिल्म 'ज़ुल्म और अमन' – इन सबकी सी डी बना कर सचमुच हजारों की तादाद में बाँटीं। इस एक मामले में चेतन की कोई अहं की समस्या न थी।
बाद में स्थिति बदली। हिंदुस्तान-पाकिस्तान दोनों ओर के पंजाब में तनाव पिघला और वह कैसा पिघला जो जानते नहीं उनको समझाना मुश्किल है। सरकारी स्तर पर ही नहीं, आम लोगों में जैसे एक दूसरे के प्रति प्यार का तूफान उमड़ आया। राजनैतिक नाटक भी खूब हुए। हमारे पंजाब के मुख्य-मंत्री अमरिंदर सिंह नवाज शरीफ को हाथी उपहार दे आए। उधर के पंजाब में तो जैसे प्यार ही प्यार था।
इस प्रसंग में एक रोचक कहानी यहाँ दर्ज़ की जानी चाहिए। शायद जब से चंडीगढ़ शहर बना है, पंद्रह सेक्टर में तलवार की मिठाई की दूकान है। चेतन वहाँ अकसर कुल्फी खाने जाता था। पता चला कि दूकान के वर्त्तमान मालिक का नाम हरजिंदर सिंह तलवार है। जानते ही उसने मेरी चर्चा उसके साथ की। फिर एक बार हम दोनों जब वहाँ मौजूद थे, तलवार साहब ने कहानी सुनाई। किसी भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के दौरान उनके परिवार ने एक पाकिस्तानी परिवार की मेजबानी की। वह परिवार तलवार परिवार के साथ ऐसे जुड़ गया जैसे वे एक ही परिवार हों। उनके (पाकिस्तान) यहाँ बेटी की शादी होनी थी। तलवार परिवार को समय पर वीज़ा न मिला। उन लोगों ने (पाकिस्तान) शादी रोक दी और कहा कि जब इनको वीज़ा मिल जाएगा तभी शादी करेंगे। यह सब याद कर आँसू बह आते हैं कि जब दोनों तरफ नफ़रत का सैलाब था, तब मैंने और चेतन ने जिस तरह काम किया, गुरशरण जी ने जिस तरह मदद की, और युवा साथियों ने जैसी मदद की, किसको याद है!
1999 में मैं पंजाब विश्वविद्यालय शिक्षक संगठन का सचिव चुना गया। मैं पहले से ही कोशिश में था कि लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय (जिसे चंडीगढ़ वाले अपना मूल विश्वविद्यालय मानते हैं) के शिक्षक संगठन से संपर्क किया जाए। मैं सफल नहीं हो पाया। वैसे भी संगठन की कार्यकारिणी में बाकी लोगों को इस तरह की बातों में कोई रुचि न थी। तीन साल बाद मैं अध्यक्ष चुना गया। इसी बीच मैंने पाकिस्तान में शांति आंदोलन के प्रसिद्ध कार्यकर्त्ता और वैज्ञानिक परवेज हूदभाई से संपर्क किया हुआ था। वे नहीं आ पाए, पर उनके कहने पर लाहौर यूनीवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेस के युवा कंप्यूटर साइंस अध्यापक सरमद अब्बासी और उसके छः छात्रों को मैं चंडीगढ़ ले आने में सफल हुआ। उनके आने पर सारे शहर में उत्तेजना फैल गई। यूनीवर्सिटी में तो जैसे हिंद-पाक दोस्ती का सैलाब उमड़ आया। इस प्रकरण को मैं अपने जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय मानता हूँ। मुझे याद नहीं कि उस वक्त चेतन इसमें शामिल था या नहीं पर इसके पीछे यानी यहाँ तक आने में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। शिक्षक संगठन के काम में मैंने पहली बार कंप्यूटर का भरपूर उपयोग किया था। चेतन ने संगठन के लिए वेबसाइट बनाई और हमने एक वरिष्ठ अध्यापक इंदर मोहन जोशी से उसका उद्घाटन करवाया। संगठन के इतिहास में पहली बार हर कार्रवाई सार्वजनिक हुई और हर ख़तो-किताबत, चाहे वह प्रशासन के साथ था या चाहे आपसी संवाद, हर कार्यक्रम – सास्कृतिक, राजनैतिक – सब कुछ वेबसाइट पर खुला था। मेरे एक साल के अध्यक्ष की अवधि खत्म होते ही मेरी कोशिशों के बावजूद वेबसाइट की यह धारणा आगे नहीं चली। आज तक इतने सालों के बाद शिक्षक संगठन उस तरह की वेबसाइट वापस नहीं बना पाया है। हमारी और यूनीवर्सिटी के और लोगों की औसत दृष्टि में यह फर्क था। यह चेतन का बड़ा योगदान था।
पंजाब विश्वविद्यालय में रह कर काम करते हुए मुझे जिन तकलीफों का सामना करना पड़ रहा था, इससे वह भी परेशान था। जब 1998 में हैदराबाद में ट्रिपल आई टी (आई आई आई टी, जहाँ मैं कार्यरत हूँ और जहाँ से इन दिनों छुट्टी पर हूँ) संस्था खुली तो उसके एक दो साल बाद ही उसने मुझे कहा था कि मैं वहाँ नौकरी के लिए कोशिश करूँ। उसे यह बात बहुत अच्छी लगी थी कि वहाँ के छात्रों ने सड़क चौड़ी करते हुए दरख्तों के काटे जाने का विरोध किया था और उखाड़े गए दरख्तों को कैंपस में फिर से रोपित किया था - संस्था के वेबसाइट पर उसने देखा था। उन दिनों मैंने उसका सुझाव हँस कर उड़ा दिया था। आखिर 2006 की फरवरी में मैं दूसरे कारणों से आई आई आई टी - हैदराबाद आ ही गया।
फिल्में - इस पर विषद् लिखना चाहिए। जैसा मैंने पहले लिखा है, फिल्में चेतन की लाइफ लाइन थीं। आई आई टी कानपुर में छात्रावस्था में ही उसने फिल्म क्लब चलाने में महारत हासिल कर ली थी। फिर टी आई एफ आर में उसके फिल्म विशेषज्ञता का लाभ सभी अनुरागियों ने उठाया। वह अखिल भारतीय फिल्म सोसाइटी फेडरेशन का सदस्य था और देश के विभिन्न हिस्सों में वार्षिक फिल्मोत्सवों में हिस्सा लेता था। 2005 में मेरी कोशिश से दिल्ली की ब्रेकथ्रू संस्था ने पंजाब विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय डॉक्यूमेंट्री फिल्में दिखलाईं। स्क्रीन को लेकर परेशानी हो रही थी। मेरे घर से लाई सफेद चादरों पर साथी छात्रों के साथ मिलकर घंटों काम कर उसने लाजवाब स्क्रीन बनाई। इमटेक में वर्षों की कोशिश के बाद उसने फिल्म सोसाइटी बनाई थी, पर राष्ट्रीय प्रयोगशाला में फिल्म क्लब में बाहर को लोगों को सदस्यता दे पाने में दिक्कतें थीं। फिर जब फिल्में दिखलानी शुरू कीं तो लोगों मे सही रुचि विकसित करने में दिक्कतें आईं। लंबे समय तक सोसाइटी बंद रही। फिर इमटेक में निर्देशक बदलने और मेरे हैदराबाद आने के बाद फिर से शो शुरू हुए तो किसी को मोबाइल पर बातें करने से रोकने में दिक्कत। इसी बात पर किसी एक ऐसी महिला से उसकी लड़ाई हो गई जो किसी सरकारी अमले से जुड़ी थी और काफी प्रभावशाली थी। फिल्मों में उसकी पसंद उम्दा और अव्वल दर्जे की थी। इसलिए कई साथियों को गुरेज हो कि मैंने उसके इस पक्ष पर इतना कम क्यों लिखा। पर जब तक मैं वहाँ था, फिल्म क्लब की सक्रियता सीमित थी - मेरे जाने के बाद वह बढ़ी। हालाँकि मैं सोसाइटी के पहले सदस्यों में से था पर मुझे शोज़ का फायदा कम मिला। बाद में मैंने उससे अपने लिए बहुत सारी फिल्में ली, पर जैसा वह था, उसने जानबूझ कर बिना किसी क्रम में सजाए मुझे ढेर सारी फिल्में हार्ड डिस्क में भर दीं, जिनको आज तक मैं क्रम में सजा नहीं पाया हूँ।
चेतन के बारे में बातें करते हुए मुझे यहाँ रुकना पड़ेगा। करीब के दोस्त जानते हैं कि बदकिस्मती से मेरी और उसकी ज़िंदगी कुछ इस तरह गड्डमड्ड हो गई थी कि जिसमें कई बातें अभी सार्वजनिक नहीं की जा सकतीं क्योंकि इससे औरों की ज़िंदगियाँ प्रभावित होती हैं। चूँकि अब वह गुजर गया है तो शायद इतना उजागर कर सकता हूँ कि 2000 के आस-पास अपने दूर के रिश्ते की किसी भली इंसान से चेतन को भावनात्मक लगाव हो गया। बात काफी गंभीर स्तर तक पहुँच गई। उन दिनों वह घंटों फ़ोन पर होता और फिर मुझे, या जब दलजीत मिलता उसे, अपनी कहानी सुनाता। इसका नतीज़ा यह हुआ कि चेतन ने बलराम गुप्ता की वकालत की मदद से ही कॉनी से तलाक ले लिया। पर वह रिश्ता आगे बढ़ा नहीं और एकाकीपन का तीखा और पीड़ादायक अहसास उसे कचोटता रहता। मेरे हैदराबाद आने के बाद युवा स्त्री मित्रों के साथ उसके संबंधों के उतार-चढ़ाव रहे। मुझमें और उसमें यह भी एक समानता है कि हमें भावनात्मक रिश्तों में अपने साथी की बेइंतहा चिंता रहती है। अपने बारे में तो मैं कहने का हकदार नहीं हूँ, दूसरे लोग ही बतलाएँगे कि सच क्या है, पर उसके बारे में यह कह सकता हूँ।
मुझे नहीं पता कि किन परिस्थितियों में कॉनी वापस आई, पर मैं यह कह सकता हूँ कि पिछली तमाम बातों को भूलकर चेतन ने उसे अपनाया। मैं चंडीगढ़ साल में एक दो बार आता ही रहा हूँ और मेरा अहसास यह है कि दोस्तों में हर कोई इस बात को लेकर उदासीन ही था। सही भी था कि यह उनका निजी मामला था।
उसके चाहने वालों या करीब के दोस्तों की पीड़ा यह थी कि उसकी मदद करना खतरे से खाली न था। हम सब लोग अपनी-अपनी काली कोठरियों को पहचानते हैं। जब कोई मदद का हाथ बढ़ाए और लगे कि कहीं कुछ दाल में काला है तो ज्यादातर लोग चुपके से मदद लेने से इंकार कर देंगे। पर चेतन नहीं। वह खुद परेशान होगा और दूसरों को परेशान करेगा। इमटेक में कुछेक भले लोगों ने उसकी मदद करने की कोशिश की थी, पर चेतन की ज़िद के आगे उन्हें हटना पड़ा। मैं अपने दो दुखद अनुभवों का ज़िक्र यहाँ करता हूँ। इमटेक में चेतन बायोइन्फॉर्मेटिक्स डिवीज़न का प्रभारी था। उसके साथ एक जाहिल किस्म का बंदा था जिसकी बुनियादी समझ कमजोर थी। जब इमटेक ने चेतन से यह कार्य-भार छीन कर उसी को प्रभारी बना दिया तो चेतन के लिए यह अपमानजनक स्थिति थी। हम सब यह समझते थे और चाहते थे कि उसे किसी बेहतर जगह काम करने का मौका मिले। 1999 में एम एम पुरी पं. वि. वि. के कुलपति थे। उन्होंने कंप्यूटर साइंस में चंद्रशेखर मुक्कू की नियुक्ति की। मुक्कू भूतपूर्व कुलपति राम प्रकाश बांबा का दामाद है। मुक्कू अच्छा वैज्ञानिक है, पर जैसा सामंती संस्थाओं में होता है पं. वि. वि. में उसकी धाक उसके अपने गुणों से कम और निजी संबंधों की वजह से ज्यादा थी। विरोध भी था - अदालती कार्रवाइयाँ भी थीं, खैर वो बातें यहाँ प्रासंगिक नहीं हैं। मुक्कू ने कैंपस में ऑप्टिकल फाइबर बिछाकर वाइड एरिया नेटवर्क की योजना बनाई। काफी खर्चीला मामला था। कुछ निजी रास्तों से मैंने कुलपति के पास खबर भिजवाई कि चेतन को यूनिवर्सिटी में लाया जाए और उन्होंने मान लिया। चेतन को कंप्यूटर सेंटर का निर्देशक पद पर नियुक्ति की चिट्ठी भेजी गई। इसी बीच नेटवर्क की योजना पर बनी कमेटी की सभाओं में उसे बुलाया गया। चेतन और मुक्कू की भिड़ंत हो गई। चेतन यह कह रहा था कि कैंपस में नेटवर्क न बनाकर कंप्यूटर सेंटर में बड़े कंप्यूटर लाए जाएँ ताकि शोधकर्त्ताओं को वहाँ आकर काम करने की पूरी छूट हो और अपने विभागाध्यक्षों की मनमानी का शिकार होने से मुक्ति मिले। अपने अनुभव से मैं जानता था कि चेतन ग़लत पोज़ीशन ले रहा है। सारी दुनिया में डिस्ट्रीब्यूटेड कंप्यूटिंग और नेटवर्किंग की दिशा में काम हो रहा था। उसका तर्क यह था कि देखो लाल्टू जैसे लोग विभागीय राजनीति का शिकार हो कर कुछ कर नहीं पा रहे हैं। इसलिए सारी सुविधाएँ कंप्यूटर सेंटर में केंद्रित हों। नवंबर की एक शाम जिमनाज़ियम और ज़ूऔलॉजी और ऐंथ्रोपोलॉजी विभाग के बीच गोल चक्कर के सामने हम तीनों थे। कम से कम तीन घंटे चेतन और मुक्कू बहसते रहे। मैं कभी इधर हाँ तो कभी उधर हाँ करता रहा। अँधेरा घना हो गया, ठंड से मैं काँप रहा था, पर चूड़ीदार में भी चेतन को ठंड न लगती थी। आखिर मैं यह कहकर भागा कि बेटी को हिंदी का होमवर्क करवाना है। जिस दिन चेतन को नियुक्ति की चिट्ठी मिली, उसी दिन उसने कमेटी की मीटिंग में इतनी लड़ाई लड़ी कि कमेटी के अध्यक्ष कुलपति के पास पहुँच गए और कह दिया कि चेतन को कमेटी में बुलाया गया तो वे रीज़ाइन कर रहे हैं। अभी चेतन नियुक्ति की शर्तों को सोच ही रहा था कि दूसरे ही दिन चिट्ठी पहुँच गई कि नियुक्ति रद की जाती है। चेतन ने इसे बैठे बिठाए थप्पड़ माना और अखबारों में बयान दिया कि यूनिवर्सिटी में कंप्यूटर नेटवर्किंग का लाखों का घोटाला हो रहा है। वह सचमुच मानता था कि घोटाला है। मैं समझता हूँ कि उसका मानना बिल्कुल ग़लत था। हमारी सारी कोशिश कि वह इमटेक से निकले और सही तरह के काम पर लग जाए, बेकार गई। कई सालों बाद जब चेतन के रिटायर्मेंट का वक्त आया तो मैंने उसे सुझाव दिया कि अवकाश-प्राप्ति के बाद वह आई आई आई टी में सिस्टम्स एक्सपर्ट की हैसियत से काम करे। उसे एक छात्र के मौखिक इम्तहान के लिए बुलाया और निर्देशक से बात करवाई। निर्देशक स्वयं आई आई टी कानपुर में पढ़े थे और चेतन के अभिन्न मित्र मुकुल के मित्र और शोध-सहयोगी हैं। पहली ही मुलाकात में चेतन ने तिक्तता के साथ इमटेक में अपनी लड़ाइयों का जिक्र शुरू कर दिया और एक बार फिर मेरी कोशिश असफल रही।
तो यह था हमारा चेतन – अपनी, हमारी, दुनिया की लड़ाइयाँ लड़ता हुआ एक शख्स जो चला गया। पहली बार उसे दिल का हल्का दौरा जब पड़ा तब तक मैं हैदराबाद आ चुका था। मजाक में उसका कहना था कि मेरी ग़ल्ती है, मेरे चंडीगढ़ छोड़ देने से उसका नियमित पाँच किलो मीटर साइकिल चला पाना बंद हो गया है। चूँकि तीन साल मैं छुट्टी पर था, मेरी लैब चल रही थी, मेरा छात्र काम कर रहा था। पर पहला मौका मिलते ही तत्कालीन चेयरमैन ने लैब में ताला लगवा कर चेतन का वहाँ आना बंद करवा दिया। सामंती नाटक। सचमुच यही चेतन का सही वर्णन है - एक सामंती समाज में एक आधुनिक दिमाग की पीड़ाओं को झेलने में असमर्थ शख्स।
Comments