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Showing posts from 2011

तीस साल पहले नया साल

तीस साल पहले कभी ये कविताएँ लिखी थीं. दूसरी वाली शायद 1990 के आसपास जनसत्ता के चंडीगढ़ एडीशन में छपी थी. उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में  नस्लवादी तानाशाही थी. नया साल १ ऐसे हर दिन वह उदास होता है जब लोग नया साल मनाते हैं हाथों में जाम थामे एक दूसरे को चुटकुले सुनाते हैं विडियो फिल्में देखते हँसते हँसते बेहाल होते हैं वह हवाओं में तैरता है ऐसे किनार ढूँढता जहाँ नाचती गाती भीड़ में वह भी शामिल है जब उल्लास के छोर पर पहुँचता है ठंड की चादर आ जकड़ती है बातों में मशगूल लोग उससे दूर चले जाते हैं वह उनकी ओर बढ़ते हुए ज़मीन पर पाँव गाड़ने की कोशिश करता है वह डूबने लगता है हवा उसके नथुनों में जोर से घुसती है दम घुटते हुए सहसा उसे याद आते हैं पुराने उन्माद भरे गीत जो पहाड़ों के बीच अकेले गाए थे हालांकि वह अकेला न था न वो घाटियाँ घाटियाँ थीं। २ हर नए साल में एक बात होती है वह बात पिछले साल के होने की होती है पिछला साल होता है बहुत सारी धड़कनों का समय अक्ष पर बंद हो चुका गणितीय समूह पिछला साल होता है उदासी ...

दुर्घटनाओं और दुस्वप्नों के दो हफ्ते और

तो सोचा यह गया था कि बुक फेयर में घूमेंगे। दो हफ्ते मैंने लिखा नहीं  तो बुक फेयर भी नहीं हुआ। अब कल से शुरू हो रहा है। स्थान भी बदल गया है। इसी बीच तमाम ताज़ा दुर्घटनाओं और पुराने दुस्वप्नों के बीच दो हफ्ते और गुज़र गए। कई साल पहले मेरे पी एच डी सुपर्वाइज़र अमरीका से भारत आए हुए थे और मैं उनसे मिलने चंडीगढ़ से दिल्ली आया था। जे एन यू में उनके भाषण के  बीच हम बातचीत कर रहे थे, मेरे गुरुभाई जो इन दिनों हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, उनके आफिस में बातें हो रही थीं। बातें देश की तरक्की पर हो रही थीं। मैंने हताशा  से कुछ ही दिनों पहले हरियाणा के मंडी डभवाली इलाके में क्रिसमस के एक दिन पहले  एक स्कूल में एक समारोह के दौरान  लगी भयंकर आग का ज़िक्र  किया जिसमें कोई दो सौ लोग मारे गए थे, जिनमें अधिकांश बच्चे थे। सुनकर प्रोफ़ेसर ने कहा कि तुम इन बातों से ज़रा ज्यादा ही प्रभावित होते हो। हाल की कोलकाता की दुर्घटना को लेकर मैं इतना नहीं रोया जितना उन दिनों ऐसी घटनाओं पर सोचता था, तो क्या यह मेरी तरक्की की पहचान है या जमे हुए दुखों की, जिनसे मैं क्रमशः पत्थर बनता ...

जैसे भी हैं दिन भले

यह साल का वह वक़्त है जब हम सोचते रहते हैं कि चलो अब ज़रा फुर्सत मिली और होता यह है कि कोई फुरसत वुर्सत नहीं मिलती. सेमेस्टर ख़त्म हो रहा है तो कापियां  देखनी हैं. फिर दम लेते लेते ही अगला सेमेस्टर आ जाता है. इसी बीच में शोध कर रहे छात्रों के साथ समय लगाना पड़ता है. जब यह लिख रहा हूँ तो कहीं गाना चल रहा है - दिल के अरमां आंसुओं में रह गए... फिर भी एक छुट्टी का भ्रम जैसा रहता है. मेरे शहर में तो मौसम भी बढ़िया होता है. इसलिए सोचता हूँ कि इन दिनों कैम्पस से बाहर निकलने की कोशिश की जाए. तो मन बना रखा है कि आज से जो पुस्तक मेला शुरू हुआ है, कल परसों किसी दिन वहाँ चला जाएगा. पर सोचते ही आतंक भी होता है - इस शहर की ट्राफिक, तौबा - मुझे वैसे भी पेट की समस्याओं के साथ माइग्रेन वगैरह हो जाता है.  बहरहाल पुस्तक मेले जाएँगे इस बार. पर पुस्तक मेले में क्या होगा? हाल के सालों में जब भी यहाँ के पुस्तक मेलों में गया हूँ, अधिकतर वही व्यापार धंधों की या अलां फलां कम्पीटीशन की किताबें ही ज्यादा दिखती हैं.  पर उम्मीद है कि गलती से कोई दोस्त भटकता हुआ आ टकराएगा. ऐसी जगहों में यह अक्सर होता ह...

दो प्रेम कविताएँ

दो प्रेम कविताएँ। पहली का सन्दर्भ पुराना है और दूसरी पुरानी है। नहीं, ये नया ज्ञानोदय के प्रेम विशेषांक में नहीं छपी थीं। वह एक अजीब गड़बड़ कहानी है। मैंने ग्यारह टुकड़ों की प्रेम कविता भेजी, पता नहीं किस बेवकूफ ने बिना मुझसे पूछे दस टुकड़े फ़ेंक दिए और पहले टुकड़े को 'एक' शीर्षक से छाप दिया। यह हिन्दी में संभव है, क्योंकि कुछेक हिंदी की पत्रिकाओं के संपादक ऐसे बेवक़ूफ़ होते हैं। क्या करें, हिंदी है भाई। मैं दो साल से सोच रहा हूं कि सम्पादक से पूछूं कि उसने ऐसा किया कैसे. पर क्या करें, हिंदी है भाई, हिम्मत नहीं होती, कैसे कैसे भैंसों से टकरायें। वैसे नीचे वाली कविता नया ज्ञानोदय में ही छपी थी। ठीक ठाक छपी थी और कइओं ने फोन फान किया था कि बढ़िया कविता है। इस मटमैले बारिश आने को है दिन इस मटमैले बारिश आने को है दिन में सेंट्रल एविनिउ पर तुम्हारी गंध ढूँढ रहा हूँ। मार्बल की सफेद देह पर लेटा हंस झाँक रहा है , मैं दौड़ती गाड़ियों के बीच तुम्हारे पसीने का पीछा करता हूँ जल्दी से पार करता हूँ चाहतों के सागर। पहुँच कर जानता हूँ मैं पार कर रहा था तीस साल। तुम्हारा न ...

स्याही फैल जाती है

इशरत 1   इशरत ! सुबह अँधेरे सड़क की नसों ने आग उगली तू क्या कर रही थी पगली ! लाखों दिलों की धडकनें बनेगी तू इतना प्यार तेरे लिए बरसेगा प्यार की बाढ़ में डूबेगी तू यह जान कर ही होगी चली ! सो जा अब सो जा पगली . 2   इन्तज़ार है गर्मी कम होगी बारिश होगी हवाएँ चलेंगी उँगलियाँ चलेंगी चलेगा मन इन्तज़ार है तकलीफें कागजों पर उतरेंगी कहानियाँ लिखी जाएँगी सपने देखे जायेंगे इशरत तू भी जिएगी गर्मी तो सरकार के साथ है . 3 एक साथ चलती हैं कई सड़कें . सड़कें ढोती हैं कहानियाँ . कहानियों में कई दुख . दुखों का स्नायुतन्त्र . दुखों की आकाशगंगा प्रवाहमान . इतने दुख कैसे समेटूँ सफेद पन्ने फर - फर उडते . स्याही फैल जाती है शब्द नहीं उगते . इशरत रे ! ( दैनिक भास्कर – 2005; वर्त्तमान साहित्य -2007; 'लोग ही चुनेंगे रंग' में संकलित )

निशीथ रात्रिर प्रतिध्वनि सुनी

भूपेन हाज़ारिका का चले जाना एक युग का अंत है । एक तरह से हबीब तनवीर के गुजरने के बाद से जो सिलसिला शुरू हुआ था , वह गुरशरण सिंह और भूपेन हाज़ारिका के साथ युगांत पर आ गया है । यह हमारी पीढी , खासकर कोलकाता जैसे शहरों में साठ के दशक के आखिरी और सत्तर के दशक के शुरुआती सालों में कैशोर्य बिताने वाली पीढी के लोगों के लिए भी जैसे सूचना है कि हम अब बूढ़े हो चले हैं । भूपेन हाज़ारिका हमारे उन प्रारंभिक युवा दिनों की दूसरी सभी बातों के साथ हमारी ज़िन्दगियों के साथ अभिन्न रूप से जुड़े थे । हमलोग रुना गुहठाकुरता का गाया ओ गंगा तुमी सुनते और कहते अरे भूपेन हाज़ारिका जैसी बात कहाँ । यह हमलोगों का आग्रह था जैसे कोई और उनकी तरह गा ही नहीं सकता । हमलोग सीना चौड़ा कर कहते कि पाल रोब्सन के 'ओल्ड मैन मिसिसीपी' को 'ओ गंगा तुमी' गाया है । जैसे वह हमारे परिवार के कोई थे जिनको ऐसी ख़ास बातों के लिए सम्मान मिला हो । रवींद्र, सलिल चौधरी आदि के बाद बांग्ला संगीत में (हालांकि मूलतः वे अहोमिया थे) वे आखिरी इंकलाबी थ...

उनका क्या करें

एक मित्र ने बतलाया कि बंगाली बिरादरी रात को बारह बजे कहीं पूजा के लिए जाने की सोच रही है। काली पूजा है रात को होती है। मैंने कहा कि मैं पूजा आदि में रूचि नहीं रखता। मुझे लगता है कि पूजा का हुल्लड़ बच्चों के लिए बढ़िया या फिर आप धार्मिक प्रवृत्ति के हों। मेरा तो मानना है कि कोलकाता में कानून बनाना चाहिए कि एक वर्ग किलो मीटर के क्षेत्र में एक से ज्यादा पूजा मंडप नहीं होंगे। इससे लोगों में यानी आस पास के मुहल्लों के लोगों में भाईचारा भी बढ़ेगा। पूरे शहर में फिर भी हजार मंडप तो होंगे ही और इतने कम नहीं। आखिर भगवान मानने वालों को थोड़ा सा चल फिर के भगवान तक पहुँचने कि कोशिश तो करनी चाहिए। मुझे कोई आपत्ति नहीं कि कोई ईश्वर अल्लाह रब्ब मसीहा आदि में यकीन करता है। मैं एक हद तक साथ चलने को भी तैयार हूं, पर दूर तक चले गए तो फिर आप कर्मकांडों से अलग नहीं हो सकते। और वहां मुझे दिक्कत है। वैसे काश मेरा भी कोई मसीहा होता, कम से कम अपना रोना सुनाने के लिए तो कोई होता। इसलिए धार्मिक लोगों से मुझे ईर्ष्या ही होती है। कोई ज्यादा तंग करे तो फिर चिढ़ भी होती है। पर ठीक है, वह हमें झेलते हैं, तो हम भी ...

इन बर्बरों का मुकाबला करें

फासिस्ट धड़ल्ले से नंगा नाचन नाच रहे हैं। एक वो जो राम या रहीम के नाम पर हमले करते हैं , जैसा हमारे मित्र प्रशांत पर किया , दूसरे वो जो सरकारी तंत्र में हैं , जिन्होंने सोनी सोरी की हड्डियाँ तोड़ने की कोशिश की है। क्या सचमुच यह देश इतनी तेजी से अँधेरे की ओर बढ़ता जा रहा है। सामान्य नागरिक को शांति से जीने के लिए हत्यारों के साथ सहमत होना पड़ेगा ? इन बर्बरों का मुकाबला जो जहाँ जैसे भी कर सकता है , करें।

मानव मूल्य क्या हैं?

मानव मूल्य क्या हैं ? मैंने एक युवा साथी का सवाल सुना और मुझे बिल्कुल ही बेमतलब तरीके से Walt Whitman की पंक्तियाँ याद आ गईं - A child said, What is the grass? fetching it to me with full hands; How could I answer the child? I do not know what it is, any more than he. वक्त गुजरने के साथ यह शक बढ़ता जा रहा है कि जो यह दावा करते हैं कि उनको मानव मूल्यों की समझ है , पेंच उन्हीं का ढीला है। ' सुना रहा है ये समाँ , सुनी सुनी सी दास्ताँ ' दोस्तों , बुनियादी बात प्यार है , बाकी सब कुछ उसी में से निकलता है। यह हमारी नियति है। हम किसी दूसरे ब्रह्मांड में नहीं जा सकते , कोई और गति के नियम हम पर लागू नहीं हो सकते। आंद्रे मालरो के उपन्यास 'La Condition Humaine ( मानव नियति )' में हेमेलरीख ( नाम ग़लत हो सकता है ; जहाँ तक स्मृति में है ) राष्ट्रवादियों के साथ लड़ाई में कम्युनिस्टों की मदद करने से इन्कार करता है , प्यार की वजह से ; और जब राष्ट्रवादी उसके बीमार बच्चे की हत्या कर देते हैं , तो वह लड़ने मरने के लिए निकल पड़ता है - प्यार की वजह से। ...

भ्रा जी चले गए

भ्रा जी चले गए। लंबी अस्वस्थता के बाद जाना ही था। फिर भी तकलीफ होती है। मार्च में मिला था तो बिस्तर पर लेटे हुए समझाते रहे कि हमें दुबारा सोचना है कि क्या गलतियाँ हुईं हैं हमसे। फिर अपने छात्र जीवन की क्रांतिकारी गतिविधियों के बारे में बतलाने लगे। जुलाई 1983 में विदेश में पी एच डी के दौरान एक महीने के लिए घर आया था। बापू बीमार था। गले का कैंसर था। अंतिम मुलाकात के लिए आया था। उन्हीं दिनों कोलकाता में स्टेट्समैन में पढ़ा कि ' बाबा बोलता है ' शृंखला के नाटकों के जरिए भाई मन्ना सिंह नामक एक व्यक्ति पंजाब में गाँव गाँव में सांप्रदायिक ताकतों और राज्य द्वारा दमन दोनों के खिलाफ चेतना फैला रहा है। फिर 1984 आया। 1985 में मैं देश लौटते ही सितंबर में चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में आ गया। उदारवादी प्रगतिशील छात्रों की एक संस्था ' संस्कृति ' ने भ्रा जी का एक नुक्कड़ नाटक कैंपस के बाज़ार के ठीक सामने हेल्थ सेंटर के पास करवाया। मैंने देखा और तुरंत उन छात्रों के साथ दोस्ती हो गई। उनमें से ज्यादातर जल्दी ही कैंपस छोड़ गए और बाद में वामपंथी राजनैतिक दलों के साथ ज...

साधारण असाधारण

' हिंदू ' में खबर है कि संजय काक ने किसी साक्षात्कार में कहा कि काश्मीर के मसले पर प्रगतिशील भारतीय भी डगमगा जाते हैं। एक काश्मीरी पंडित जिसका पिता देश के सुरक्षा बल में काम करता था , उसने ऐसा क्यों कहा ? जिन्हें संजय काक की बातें ठीक नहीं लगतीं , वे कहेंगे - गद्दार है इसलिए ! ' हिंदू ' में मृत्यु दंड के खिलाफ संपादकीय भी छपा है - अच्छे भले पढ़े लिखे लोग ऐसा क्यों कहते हैं ? अरे , सब चीन के एजेंट हैं , कमनिष्ट हैं। इतने सारे लोग सूचनाओं की भरमार होते हुए भी जटिल बातों का सहज समाधान ढूँढते हुए , जब भी ऐसी कोई खबर पढ़ते हैं , तो आसानी से गद्दार और कमनिष्ट कहते हुए मुँह फेर लेते हैं। इंसान में कठिन सत्य से बचने की यह प्रवृत्ति गहरी है। दर्शन की सामान्य शब्दावली में इसे denial ( अस्वीकार ) की अवस्था कहते हैं। इसका फायदा उठाने के लिए बहुत सारे लोग तत्पर हैं। सरकारें जन - विरोधी होते हुए भी टिकी रहती हैं , दुनिया भर में सेनाएँ और शस्त्रों के व्यापारी करोड़ों कमाते हैं और तरह तरह के अनगिनत हत्यारे आम लोगों की इसी प्रवृत्ति के आधार पर रोटी खाते हैं। आश्चर्य इस बात पर ह...

कास्मिक एनर्जी

आज ' हिंदू ' अखबार में पढ़ा कि येदीउरप्पा ने गद्दी छोड़ने के पहले ' हज्जाम ' शब्द को कन्नड़ भाषा से निष्कासित करने का आदेश दिया है। सतही तौर पर यह इसलिए किया गया कि हज्जाम शब्द के साथ हजामत करने वालों की अवमानना का भाव जुड़ा हुआ है - कन्नड़ भाषा में। हो सकता है कि ' हज्जाम ' की जगह प्रस्तावित ' सविता ' शब्द ठीक ही रहे। पर कन्नड़ भाषा का ज्ञान न होने की वजह से मुझे यह बात हास्यास्पद लगी कि जात पात का भेदभाव रखने वाली ब्राह्मणवादी संस्कृति से उपजे एक शब्द के लाने से अब तक हो रहा भेदभाव खत्म हो जाएगा। जून के महीने में मैं शृंगेरी गया था। वहाँ देखा घने जंगल के बीच ' सूतनबी ' जलप्रपात का नाम बजरंगियों ने बदलकर कुछ और रख दिया है , चूँकि ' नबी ' शब्द इस्लाम के साथ जुड़ा है। बहुत पहले शायद परमेश आचार्य के किसी आलेख में पढा था कि उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में कोलकाता विश्वविद्यालय की सीनेट ने प्रस्ताव पारित कर बांग्ला भाषा में प्रचलित कई अरबी फारसी के शब्दों के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी थी। यह प्रवृत्ति बंकिमचंद्र के लेखन से शुरू हुई थी ...

सभी अंग्रेज़

आगे आती थी हाले दिल पे हँसी अब किसी बात पर नहीं आती यह अच्छा मौका है कि जब वे सब लोग जो चार महीने पहले आधी रात के बाद पटाखे फोड़ कर मेरे जैसों की नींद हराम कर रहे थे और अब हाय हाय कर अपनी नींद पूरी नहीं कर रहे , ऐसे वक्त इस बदनसीब मुल्क की कुछ खूबियों को गिना जाए। मेरे जैसे मूल्यहीन व्यक्ति को इन दिनों जबरन मानव मूल्यों नामक अमूर्त्त विषय पर सोचने और औरों से चर्चा करने की जिम्मेदारी दी गई है। इसी प्रसंग में चर्चा छिड़ी कि स्वाधीनता दिवस क्यों मनाया जाए। वैसे तो ज्यादातर लोगों के लिए यह ध्रुवसत्य है कि यह दिन एक बड़ी जीत की स्मृति में ही मनाया जाता है ; पर मजा किरकिरा करते हुए बंदे ने जनता को सलाह दी कि जीत नहीं हार मानकर भी यह दिन उत्सव मनाने लायक है। बार बार हार कर भी फिर से अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए उठ पड़ने का जो अनोखा उन्माद मानव मस्तिष्क में है , यह दिन उस उन्माद का उत्सव मनाने के लिए है। और चूँकि यही बात पाकिस्तान के चौदह अगस्त पर और टिंबकटू के भी ऐसे ही किसी नियत दिन पर भी लागू होती है , इसलिए उन दिनों को भी इसी खयाल से बराबर जोश के साथ मनाया जाना चाहिए। इस मुल्क...

मुंबई हो या ओस्लो

पिछले चिट्ठे में हल्के मिजाज में मैंने लिखा था कि गंभीर फ्रांसीसी फिल्म याद नहीं आ रही। इस पर मित्रों ने याद दिलाया कि भइया त्रुफो गोदार्द को मत भूलो। अरे यार ! मैं मजाक कर रहा था। दोपार्दू भी मेरा प्रिय अभिनेता रहा है। नार्वे में हुई भयानक घटना के साथ भारत की समकालीन राजनीति का जो संबंध उजागर हो रहा है , उसे जानकर एक ओर तो कोई आश्चर्य नहीं होता , साथ ही अवसाद से मन भर जाता है। अवसाद इसलिए भी कि हमारे बीच कई लोग ऐसे हैं जिन्हें उस आतंकी की बातों से सहमति होगी। उसकी एक बात जो हैरान करने वाली है , वह है कि लोगों में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए मुसलमानों को मत मारो , ऐसी आतंक की घटनाओं को अंजाम दो , जिसमें आम लोग बड़ी तादाद में मारे जाएँ। सरकारें अपनी गुप्तचर संस्थाओं के जरिए एक दूसरे के मुल्कों में या कभी अपने ही मुल्क में इस तरह की जघन्य हरकतें करती रहती हैं , यह तो सुना था , पर आतंकवादी ऐसे विचारों से संचालित हो रहे हों तो आदमी कहाँ छिपे। पर जीवन तो चलता ही रहता है। मुंबई हो या ओस्लो , जीवन का संघर्ष निरंतर है। हम उम्मीद करते रहेंगे , वह सुबह आएगी , जब ऐसी बीमारि...

आए! आए आए आए!

दोस्तों ! इस बार स्कूटर चल गया। ओए बजाज , बजाज ओए ! तो शुक्रवार को हमने फ्रांसीसी फिल्लम देखी। Ensemble cest trop – टिपिकल फ्रांसीसी फिल्म। संबंधों पर चुटकी , यौनिकता यानी सेक्सुआलिटी पर चुटकी , यह फ्रांसीसी फिल्मों की खासियत है। मुझे याद नहीं आ रहा कि मैंने कभी कोई गंभीर फ्रांसीसी फिल्म कभी देखी हो। कोई तो ज़रूर देखी होगी। जेरार्द देपार्दू की शक्ल देखते ही लगता है बंदा शरारती है। यह अलग बात कि वह ' दाँतों ' का अभिनय भी कर सकता है। इस दौरान बड़ी बात यह हुई कि प्रत्यक्षा ने लोर्का के ''Pequeño vals vienés' के आना बेलेन द्वारा गायन की लिंक भेजी। मैंने शब्दों के बारे पूछा , तो जो लिंक उसने भेजी , उससे पता चला कि अंग्रेज़ी के प्रख्यात कवि लेनर्ड कोहेन ने भी इसे अंग्रेज़ी में गाया है। फिर वह भी ढूँढा। आए! आए आए आए! ओ हो हो ( वही टिपणिया स्टाइल ) – आए! आए आए आए! क्या बात है !

अखिल गति

निकला था कोरियन फिल्में देखने , सड़क पर स्कूटर ठप्प बोल गया। हुआ यह कि एक दिन और एक रात स्कूटर बेचारा उल्टा गिरा हुआ था। ठहरा स्कूटर – किसको फिकर कि सीधा कर दे। एक जमाने में अपुन भी गाड़ी वाले थे। जिसके लिए वह गाड़ी ली थी , वह लाड़ली धरती के दूसरी ओर चली गई तो मैंने गाड़ी को विदा कह दिया। मुहल्ले में ही है , सच यह कि अभी भी कागजी तौर पर मालिक मैं ही हूँ , पर वह मेरी नहीं है। खैर , स्कूटर अब भी मेरा ही है। हालांकि अब मैं पहले जैसा फटीचर टीचर होने का दावा नहीं कर सकता , पर स्कूटर और मैं एक दूसरे के हैं। तो एक पूरा दिन और एक पूरी रात स्कूटर बेचारा उल्टा गिरा पड़ा रहा। शुकर पड़ोसन का कि उसने फोन किया ( क्या जमाना कि पड़ोसी से भी फोन पर बात होती है ) कि मियाँ , भाई जान , यह आप की ही औलाद लगती है , सँभालिए बेचारे को। जब मैंने सँभालने की शिरकत की तो बेचारा धूल धूसरित पड़ा हुआ था। बहरहाल आज बड़ी देर तक मन ही मन वाद विवाद करता रहा। दसेक किलोमीटर चलना है , शेयर आटो + बस + ग्यारह नंबर गाड़ी या अपना बेचारा स्कूटर। आखिर इतवार का दिन ( मतलब ट्राफिक कम – भारतीय सभ्यता से सामना होने का खतरा ...

झमाझम मेघा और मेधा की मार

अभी पाँच मिनट पहले से झमाझम बारिश हो रही है। यहाँ मानसून आए एक महीना हो गया। इन दिनों लगातार संस्थान में भर्ती लेने आए प्रार्थियों के लिए अलग अलग स्तर की कई साक्षात्कार समितियों में बैठना पड़ रहा है। चूँकि विज्ञान और मानविकी दोनों में मेरा हस्तक्षेप रहा है , इसलिए मेरी दुर्दशा औरों की तुलना में अधिक है। रविवार को भी छुट्टी नहीं। कल से जिन पैनेल्स में बैठा हूँ , उनका संबंध मानविकी और भाषा विज्ञान से है। हमारे यहाँ कुछ अनोखे प्रोग्राम हैं। पाँच साल में कंप्यूटर साइंस में बी टेक और मानविकी या भाषा विज्ञान या प्राकृतिक विज्ञान जैसे किसी डोमेन ( विशेष क्षेत्र ) में एम एस , की दो डिग्रियाँ - शुरू से ही डोमेन विषयों में शोधकार्य पर जोर है। खैर , कल उज्जैन से आए एक छात्र से कुछ कोशिश कर कालिदास का नाम निकलवाया , पर कालिदास की किसी कृति का नाम नहीं निकला। रोचक बात यह थी कि महाकाल मंदिर में जाने पर कैसे एक अलौकिक शक्ति की उपस्थिति का आभास होता है , यह जानकारी उसने हमें दी। आज इलाहाबाद से आयी एक बालिका ने बड़ी कोशिश कर याद किया कि उसने स्कूल के पाठ्यक्रम में किसी स्त्री लेखिका की कुत्ते पर ...

वह जो मुझसे बातें करता है

बातें दिमाग में ही रहने लगी हैं। कम से कम कुछ तो पते की बात लिखनी है , एक दो लाइन नहीं , बात स्पष्ट होने लायक न्यूनतम सामग्री तो होनी ही है , सोचते हुए कुछ भी लिखा नहीं जाता। इसी बीच घटनाएँ होती रहती हैं , दोस्त बाग इतना लिख चुके होते हैं और जो कुछ मैं सोचता हूँ उससे बेहतर लिख चुके होते हैं कि फिर और लिखने का तुक नहीं बनता। मैं जिस संस्थान में काम करता हूँ , यहाँ साल में एक दिन आस - पास पर पर्याप्त दूरी पर कहीं एकांत में जाकर चुनींदा मुद्दों पर चर्चा होती है। इस बार यह दो साल के बाद हुआ। बड़ा विषय था ethos यानी हमारे संस्थान की प्रकृति क्या होनी चाहिए। अधिकतर बहस इस बात पर हुई कि मानव मूल्यों पर पढ़ाया जाने वाला कोर्स अनिवार्य होना चाहिए या नहीं। यह कहना ज़रूरी है कि यह कोर्स अलग अलग समूहों में अध्यापकों द्वारा छात्रों के साथ बातचीत के जरिए पढ़ाया जाता है। समय के साथ स्रोत - सामग्री में सुधार हुआ है , पर मूलतः कोर्स की प्रकृति बातचीत की ही है। हमारे यहाँ यह बहस चलती रहती है। पर इस बार पक्ष विपक्ष में जम कर बातें हुईं। एक ऐसे संस्थान में जहाँ अधिकतर छात्र डिग्री के बाद अच्छी त...