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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Sunday, July 17, 2011

अखिल गति


निकला था कोरियन फिल्में देखने, सड़क पर स्कूटर ठप्प बोल गया। हुआ यह कि एक दिन और
एक रात स्कूटर बेचारा उल्टा गिरा हुआ था। ठहरा स्कूटर – किसको फिकर कि सीधा कर दे।
एक जमाने में अपुन भी गाड़ी वाले थे। जिसके लिए वह गाड़ी ली थी, वह लाड़ली धरती के दूसरी
ओर चली गई तो मैंने गाड़ी को विदा कह दिया। मुहल्ले में ही है, सच यह कि अभी भी कागजी तौर
पर मालिक मैं ही हूँ, पर वह मेरी नहीं है। खैर, स्कूटर अब भी मेरा ही है। हालांकि अब मैं पहले
जैसा  फटीचर टीचर होने का दावा नहीं कर सकता, पर स्कूटर और मैं एक दूसरे के हैं। तो एक
पूरा दिन और एक पूरी रात स्कूटर बेचारा उल्टा गिरा पड़ा रहा। शुकर पड़ोसन का कि उसने
फोन किया (क्या जमाना कि पड़ोसी से भी फोन पर बात होती है) कि मियाँ, भाई जान, यह
आप की ही औलाद लगती है, सँभालिए बेचारे को। जब मैंने सँभालने की शिरकत की तो बेचारा
धूल धूसरित पड़ा हुआ था।

बहरहाल आज बड़ी देर तक मन ही मन वाद विवाद करता रहा। दसेक किलोमीटर चलना है, 
शेयर आटो+बस+ग्यारह नंबर  गाड़ी या अपना बेचारा स्कूटर। आखिर इतवार का दिन 
(मतलब ट्राफिक कम – भारतीय सभ्यता से सामना होने का खतरा  कम) और उम्र के
आतंक के खिलाफ उठती आवाज ने मिलकर निर्णय ले लिया।  स्कूटर चलेगा भी कि नहीं डर
 था, पर ओ हो (यह 'ओ हो'  प्रह्लाद टिपणिया के स्टाइल में बोलना है) वह तो चल पड़ा। 

मनहूस।  

तीन किलोमीटर जाकर रुक गया। एक पेट्रोल पंप पर स्कूटर को खड़ा किया।   तीन घंटे हो गए हैं।
कहीं कोई कारीगर न मिला तो आखिर अपनी संस्था के बंधुओं को फोन किया। तो अब खबर है कि
बारिश का मजा लीजिए, कल स्कूटर की देखी जाएगी। कोरियन फिल्में मेरे बगैर चल ही रहीं होंगीं।
इतिहास एक महत्त्वपूर्ण अध्याय से वंचित रह गया।
बारिश पर यह तीन साल पुरानी रचना– गलती से ग़ज़ल कह दिया तो नंद किशोर आचार्य जी ने कहा
कि आज़ाद  ग़ज़ल कहोः  

ये बारिश की बूँदें टपकती रहीं रात भर 
वो बचपन की यादें टपकती रहीं रात भर  

कहाँ कहाँ हैं धरती पे बिखरे दोस्त मिरे
गीली भीगी यादें सुलगती रहीं रात भर  

मिरे मन को सहलाती रहीं जो परियाँ 
वो मिलती रहीं, बिछुड़ती रहीं रात भर  

कहीं कोई बच्चा क्या रोया जागकर 
यूँ छाती माँ की फड़कतीं रहीं रात भर  

झींगुर की झीं झीं, मेढक की टर्र टर 
आवाजें किस्म की  भटकती रहीं रात भर 

कोई शिकवा हो ज़िंदगी से अब क्यूँकर
यूँ रात उनसे नज़रें मिलती रहीं रात भर।

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 मंदिरों में पैसा कहाँ से आया - राजा जी ने दिया। राजा को पैसा किसने दिया?

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और मुंबई के धमाकों के बावजूद कई प्रार्थी भर्त्ती के लिए आए। अखिल गति के नियम।

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3 Comments:

Blogger अनूप शुक्ल said...

आपके साथी स्कूटर के प्रति सहानुभूति है!
राजा के पास पैसा कहां से आया यह फ़िर से एक सोच का विषय हो गया!

7:41 AM, July 18, 2011  
Blogger चिन्टू said...

मज़ा आ गया, सर आपने इतना अच्छा लिखा है कि दिल खुश हो गया. और आपकी रचना तो सुभान अल्लाह.

बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर - आपका बजाज: मनहूस नहीं सर, आपने भी तो उसकी एक दिन और एक पूरी रात परवाह नहीं की.

1:14 AM, July 19, 2011  
Blogger मसिजीवी said...

अरसे बाद आपको फिर पढ़ा... हमेशा की तरह शानदार

3:59 PM, July 22, 2011  

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