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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Tuesday, November 22, 2011

स्याही फैल जाती है


इशरत

1
 इशरत!सुबह अँधेरे सड़क की नसों ने आग उगली
तू क्या कर रही थी पगली!लाखों दिलों की धडकनें बनेगी तू
इतना प्यार तेरे लिए बरसेगा
प्यार की बाढ़ में डूबेगी तू
यह जान कर ही होगी चली!सो जा
अब सो जा पगली.

2

 इन्तज़ार है गर्मी कम होगी
बारिश होगी
हवाएँ चलेंगी
उँगलियाँ चलेंगी
चलेगा मन
इन्तज़ार है
तकलीफें कागजों पर उतरेंगी
कहानियाँ लिखी जाएँगी
सपने देखे जायेंगे
इशरत तू भी जिएगी
गर्मी तो सरकार के साथ है.

3

एक साथ चलती हैं कई सड़कें.सड़कें ढोती हैं कहानियाँ.कहानियों में कई दुख.दुखों का स्नायुतन्त्र.दुखों की आकाशगंगा
प्रवाहमान.
इतने दुख कैसे समेटूँ
सफेद पन्ने फर-फर उडते.
स्याही फैल जाती है
शब्द नहीं उगते. इशरत रे!
(दैनिक भास्कर – 2005; वर्त्तमान साहित्य -2007; 'लोग ही चुनेंगे रंग' में संकलित)
















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