यह साल का वह वक़्त है जब हम सोचते रहते हैं कि चलो अब ज़रा फुर्सत मिली और होता यह है कि कोई फुरसत वुर्सत नहीं मिलती. सेमेस्टर ख़त्म हो रहा है तो कापियां देखनी हैं. फिर दम लेते लेते ही अगला सेमेस्टर आ जाता है. इसी बीच में शोध कर रहे छात्रों के साथ समय लगाना पड़ता है. जब यह लिख रहा हूँ तो कहीं गाना चल रहा है - दिल के अरमां आंसुओं में रह गए... फिर भी एक छुट्टी का भ्रम जैसा रहता है. मेरे शहर में तो मौसम भी बढ़िया होता है.
इसलिए सोचता हूँ कि इन दिनों कैम्पस से बाहर निकलने की कोशिश की जाए. तो मन बना रखा है कि आज से जो पुस्तक मेला शुरू हुआ है, कल परसों किसी दिन वहाँ चला जाएगा. पर सोचते ही आतंक भी होता है - इस शहर की ट्राफिक, तौबा - मुझे वैसे भी पेट की समस्याओं के साथ माइग्रेन वगैरह हो जाता है. बहरहाल पुस्तक मेले जाएँगे इस बार. पर पुस्तक मेले में क्या होगा? हाल के सालों में जब भी यहाँ के पुस्तक मेलों में गया हूँ, अधिकतर वही व्यापार धंधों की या अलां फलां कम्पीटीशन की किताबें ही ज्यादा दिखती हैं. पर उम्मीद है कि गलती से कोई दोस्त भटकता हुआ आ टकराएगा. ऐसी जगहों में यह अक्सर होता है - अरे तू इधर क्या कर रहा है? यहाँ कब आया? दस सालों के बाद देख रहा हूँ तुझे. फिर चल पड़ती है वह दास्तान पुराने कामन दोस्त मित्रों की. दुनिया वाकई छोटी है वगैरह.
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यहाँ मार्च काफी गर्म होती है. पर १९९८ की मार्च में मैं ठन्डे इलाके में था. इंद्र कुमार गुजराल के प्रधान-मंत्री बनने या न बनने की चर्चाएँ आम थीं. इस कविता मैं वे सन्दर्भ हैं.
इसलिए सोचता हूँ कि इन दिनों कैम्पस से बाहर निकलने की कोशिश की जाए. तो मन बना रखा है कि आज से जो पुस्तक मेला शुरू हुआ है, कल परसों किसी दिन वहाँ चला जाएगा. पर सोचते ही आतंक भी होता है - इस शहर की ट्राफिक, तौबा - मुझे वैसे भी पेट की समस्याओं के साथ माइग्रेन वगैरह हो जाता है. बहरहाल पुस्तक मेले जाएँगे इस बार. पर पुस्तक मेले में क्या होगा? हाल के सालों में जब भी यहाँ के पुस्तक मेलों में गया हूँ, अधिकतर वही व्यापार धंधों की या अलां फलां कम्पीटीशन की किताबें ही ज्यादा दिखती हैं. पर उम्मीद है कि गलती से कोई दोस्त भटकता हुआ आ टकराएगा. ऐसी जगहों में यह अक्सर होता है - अरे तू इधर क्या कर रहा है? यहाँ कब आया? दस सालों के बाद देख रहा हूँ तुझे. फिर चल पड़ती है वह दास्तान पुराने कामन दोस्त मित्रों की. दुनिया वाकई छोटी है वगैरह.
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यहाँ मार्च काफी गर्म होती है. पर १९९८ की मार्च में मैं ठन्डे इलाके में था. इंद्र कुमार गुजराल के प्रधान-मंत्री बनने या न बनने की चर्चाएँ आम थीं. इस कविता मैं वे सन्दर्भ हैं.
आने वाले बसंत की कविताः १९९८ गुजराल जाएगा या दुबारा आएगा इस खबर के साथ मार्च की एक सुबह हल्के स्वेटर में दफ्तर जाऊँगा हवा के थपेड़ों में होगी बसंत की गंध और देश की फाल्गुनी अँगड़ाइयाँ सड़कों पर लोगबाग बात करेंगे बी जे पी कांग्रेस जनता दल इस इलाके में कम्युनिस्टों से ज्यादा बातें लड़कियों की टाँगों पर होंगी अगली या पिछली शाम बच्चे के साथ मैदान में दौड़ूँगा हाँफूँगा बाद में घर उपन्यास के दो पन्ने लिखूँगा सपनों में रेणु, शरत् या समकालीन नाम होंगे नज़रअंदाज सा करते हुए खबरों में प्रधानमंत्री देखूँगा आखिर अँधेरे में तमाम दुःख सिरहाने सहेजते सोचूँगा जैसे भी हैं दिन भले हैं। (पश्यंतीः अप्रैल-जून २००१)
1 comment:
लाल्टू जी,
आपका यह आत्म संताप सुन अच्छा तो नहीं लगा. मगर हर बात के पीछे एक कभी ना कभी तो कभी तो वो दिन आयेगा. उस दिन का संकल्प तैयार हो रहा है. इसे चलने दें.
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