Sunday, June 19, 2011

वह जो मुझसे बातें करता है


बातें दिमाग में ही रहने लगी हैं। कम से कम कुछ तो पते की बात लिखनी है, एक दो लाइन नहीं, बात स्पष्ट होने लायक न्यूनतम सामग्री तो होनी ही है, सोचते हुए कुछ भी लिखा नहीं जाता। इसी बीच घटनाएँ होती रहती हैं, दोस्त बाग इतना लिख चुके होते हैं और जो कुछ मैं सोचता हूँ उससे बेहतर लिख चुके होते हैं कि फिर और लिखने का तुक नहीं बनता।
मैं जिस संस्थान में काम करता हूँ, यहाँ साल में एक दिन आस-पास पर पर्याप्त दूरी पर कहीं एकांत में जाकर चुनींदा मुद्दों पर चर्चा होती है। इस बार यह दो साल के बाद हुआ। बड़ा विषय था ethos यानी हमारे संस्थान की प्रकृति क्या होनी चाहिए। अधिकतर बहस इस बात पर हुई कि मानव मूल्यों पर पढ़ाया जाने वाला कोर्स अनिवार्य होना चाहिए या नहीं। यह कहना ज़रूरी है कि यह कोर्स अलग अलग समूहों में अध्यापकों द्वारा छात्रों के साथ बातचीत के जरिए पढ़ाया जाता है। समय के साथ स्रोत-सामग्री में सुधार हुआ है, पर मूलतः कोर्स की प्रकृति बातचीत की ही है। हमारे यहाँ यह बहस चलती रहती है। पर इस बार पक्ष विपक्ष में जम कर बातें हुईं। एक ऐसे संस्थान में जहाँ अधिकतर छात्र डिग्री के बाद अच्छी तनख़ाह की नौकरी का सपना लेकर आते हैँ, मानव मूल्यों का पढ़ाया जाना और बेहतर मानव के निर्माण के सपने सँजोना विरोधाभास सा लगता है, पर यह हमारे संस्थान की विशेषता है।
इधर भोपाल की 'प्रेरणा' पत्रिका के स्त्री-अस्मिता विषय पर आए एक अंक में मेरी बहुत सारी कविताएँ एक साथ आईं। उनमें से एक यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ।

चैटिंग प्रसंग 
. 
अनजान लोगों से बात करते हुए 
निकलती हूँ अपने स्नायु जाल से 
कड़ी दर कड़ी खुलती हैं गुत्थियाँ  

दूर होते असंख्य राक्षस भूत-प्रेत 
छोटे बच्चे सा यकीन करती हूँ 
यह यंत्र यह जादुई पर्दा हैं कृष्णमुख,  

इसके अंदर हैं  व्यथाएं, 
अनंत गान अनंत अट्टहास समाए हैं इसमें ।    

२.
 वह जो मुझसे बातें करता है 
पर्दे पर उभरे शब्दों में देखती हूँ
उसकी आँखें सचमुच बड़ीं आश्चर्य भरीं ।  

उसकी बातों में डींगें नहीं हैं 
हर दूसरे तीसरे की बातों से अलग 
हालांकि नहीं कोई विराम-चिह्न कहीं भी 
उसके शब्दों में 
महसूस करती हूँ उसके हाथ-पैर निरंतर गतिमान ।   

क्या उसकी जीभ भी  लगातार चलती होगी? 
क्या उसके दाँत उसके शब्दों जैसे तीखे हैं 
जो खेलते हुए बचपन का कोई खेल  
अचानक ही गड़ जाएं मेरी रगों पर? 

उसके शब्दों की माला बनाऊँ तो
वह होगी सूरज के चारों ओर
धरती की परिधि से भी बड़ी ।  

इतनी बड़ी माला वह मुझे पहनाता है 
तो कैसे न बनूँ उसके लिए
एक छोटी सी कली!                                  (पल-प्रतिपल २००५; प्रेरणा २०११) 
- 'लोग ही चुनेंगे रंग' में संकलित (संग्रह में शीर्षक 'चौटिंग' छपा है :D-)


1 comment:

Patali-The-Village said...

बहुत बेहतरीन रचना| धन्यवाद|