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Showing posts from 2010

हम गीत गाएँगे

24 को सुबह इंदौर के अस्पताल की भयानक खबर कि बच्चों पर प्रतिबंधित और खतरनाक रसायनों वाली दवाओं के प्रयोग किये गए हैं पढ़ी ही थी कि दोपहर तक खबर आ गयी कि बिनायक सेन को छत्तीसगढ़ की अदालत ने आजीवन कारावास की सज़ा दे दी है। विडंबना कि बिनायक बच्चों का डाक्टर है. नहीं ऐसा तो नहीं कि हम रोते नहीं पर एक दिन रो लेने के बाद मैंने घंटों देश विदेश के विरोध के गीत सुने। इसी सिलसिले में तीस साल पहले सुना आर्लो गथरी का ' एलिसेस रेस्तरां ' भी दुबारा सुना। और लगा सचमुच किस तरह मुक्तिबोध के शब्दों में जन जन का चेहरा एक है। जैसे जन का चेहरा एक है उसी तरह अत्याचारियों का चेहरा भी एक है। इसलिए हम जो जितना कर सकते हैं करेंगे। कल इलीना को अगर यह देखना पड़ा है कि दिल्ली के संस्थान आई एस आई को भेजी गयी मेल को देश की पुलिस पकिस्तान की आई एस आई को भेजी मेल कह कर अदालत में पेश करती है तो किसी भी पढ़ने लिखने सोचने वाले आदमी की इस देश में कोई बिसात नहीं है। इसलिए हर समझदार आदमी को तय करना ही होगा कि हम किस ओर खड़े हैं। रस्म बकौल फैज़ अभी यही है कि कोई न सर उठा कर चले। फिलहाल मैं आर्लो गथरी का ...

खुला घूम रहे हो

कई सालों के बाद आई आई टी कानपुर गया . जब वहाँ के अध्यापकों को यह कहते सुना कि वे उस कैम्पस को बीलांग करते हैं , तो अजीब सा लगा . और पहली बार यह तीखा अहसास हुआ कि छात्रों और अध्यापकों की कैम्पस के प्रति भावनाओं में कितना फर्क होता है . लौटा तो कानपुर से जुखाम और पेट की खराबी लेकर लौटा . आजकल कहीं भी आने जाने में डर लगता है . कुछ न कुछ गड़बड़ होती ही रहती है . और कुछ नहीं तो लम्बी यात्राओं के दौरान माइग्रेन तो है ही . इसी के साथ काम का दबाव - सभाएं , पिछले सेमेस्टर का बाकी काम , अगले सेमेस्टर की तैयारी ... गनीमत यह कि यहाँ ठण्ड से छुटकारा है . दो तारीख को फिर दिल्ली जाना है और डर रहा हूं कि कैसे ठण्ड झेलूँगा . बहरहाल लौट कर ब्लॉग का हाल देखा तो पाया कि किसी ने टिप्पणी की है कि इतना कहते रहकर भी खुले घूमते हो , कुछ तो इस देश के लोकतंत्र की अच्छाई बखानो . लोकतंत्र की तो पता नहीं पर सचिन के गुण बखानने से कताराऊंगा नहीं . खेलों के मामले में हालांकि मेरा नजरिया यही है कि फालतू का टी वी के सामने बैठे वक़्त बर्बाद करने से अच्छा है कि खुद कुछ खेला जाए , पर कभी कभी इस तरह वक़्त मैं भी ...

हूबहू कापी

कई लोगों को लगे कि इसमें नई कोई बात नहीं है। फिर भी यह बार बार पढ़ा जाना चाहिए। इसलिए संभवतः पहली बार मैं किसी ब्लॉग से हूबहू कापी कर पोस्ट कर रहा हूं। वैसे यह पहले समयांतर पत्रिका में छप चुका है। अभी मैं एक-जिद्दी-धुन से चुरा रहा हूं - मैंने धीरेश से या पंकज बिष्ट से पूछा नहीं है, पर मैं जानता हूं उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। एक षड़यंत्र की गाथा - असद ज़ैदी 1949 की सर्दियों में (22 -23 दिसंबर) इशां की नमाज़ के कुछ घंटे बाद, आधी रात के वक़्त, एक साज़िश के तहत चुपके से बाबरी मस्जिद में कुछ मूर्तियाँ रख दी गईं. इस बात का पता तब चला जब हस्बे-मामूल सुबह फ़जर के वक़्त मस्जिद में नमाज़ी पहुँचे. तब तक यह 'ख़बर' उड़ा दी गयी थी कि मस्जिद में रामलला प्रकट हुए हैं और कुछ 'रामभक्त' वहाँ पहुँचना शुरू हुए. इस वाक़ये की ख़बर मिलते ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त प्रांत (बाद में उत्तर प्रदेश) के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्दवल्लभ पन्त से कहा कि ये मूर्तियाँ फ़ौरन हटवाइये. पंडित नेहरू का पन्त जी से इस आदेश के पालन उम्मीद करना ऐसा ही था जैसा एक बैल से दूध देने क...

दोस्तों के साथ गीत

११ तारीख को कोलकाता से जयपुर होते हुए उदयपुर पहुंचा. विज्ञान समाज और मुक्ति पर तीन दिनों का सेमिनार था. उसके बाद दिल्ली होकर लखनऊ फिर १५ की आधी रात के बाद वापस. आते ही काम का अम्बार. सेमेस्टर के आख़िरी दिनों की मार. इसलिए लम्बे समय से ब्लॉग से छुट्टी ली हुई है. उदयपुर की सभा एक प्राप्ति थी. मैं हमेशा ही भले लोगों से मिलने और दोस्ती और प्यार के प्रति भावुक रहा हूँ. इसलिए काम की बात से ज्यादा प्यार की बातें ही दिमाग में घूमती हैं. दिन तीन क्या बीते जैसे लम्बे समय के बाद ज़िंदगी लौट आई. लगा जैसे तीस साल वापस युवा दिनों में वापस लौट गया. यहाँ तक कि बेसुरा ही सही पर मैंने दोस्तों के साथ गीत भी गाए. काम की बात यह कि यह देख कर आश्वस्त हुआ कि विज्ञान विरोधी नवउदारवादियों से अलग चिंतकों की एक पूरी जमात है जो विज्ञान की आलोचना के निर्माण में गंभीरता से जुटी है. इन लोगों की मूल चिंता मानववादी है. मेरे अपने पर्चे पर सब की प्रतिक्रिया से यह ताकत भी मिली कि अब इसे लिख डालना चाहिए. वहाँ आए चिंतकों में रवि सिन्हा को पहले पढ़ा था. और जैसा पढ़ा था वैसे ही गंभीर उनका भाषण था. तारिक़ ...

मानव ही सबसे बड़ा सच है

'They think that they show their respect for a subject when they dehistoricize it- when they turn it into a mummy' - (दार्शनिकों के बारे में नीत्शे का बयान). मानव सभ्यता के विकास के सन्दर्भ में हम राष्ट्रवाद को एक ज़रूरी पर एक बीमार मानसिकता से उपजे अध्यात्म की निकृष्टतम परिणति मान सकते हैं। प्रौद्योगिकी के विकास और पूंजी के संचय के साथ राष्ट्रीय हितों को जोड़ना पूंजीवाद के अन्तर्निहित संकटों से उभरा नियम है। स्थानीय संस्कृतियों और परम्पराओं को एक काल्पनिक बृहत् समुदाय में समाहित कर लेना और उनके स्वतंत्र अस्तित्व को नकारना - यह पूंजी की होड़ के लिए ज़रूरी है। इसलिए राष्ट्रवाद और उससे जुड़े तमाम प्रतीक पैदा हुए हैं - मातृभूमि , पितृभूमि इत्यादि (आधुनिक राष्ट्रों के बनने के पहले इन धारणाओं का अर्थ भिन्न होता था; तब इनकी ज़रुरत राजाओं के हितों के रक्षा के लिए होती थी)। कहने को जन के बिना राष्ट्र का कोंई अर्थ नहीं, पर राष्ट्र हित में सबसे पहले जन की धारणा ही बलि चढती है। राष्ट्रवाद की धारणा के पाखंड का खुलासा तब अच्छी तरह दिखता है जब हम पुरातनपंथी अंधविश्वासों...

माओ चार्वाकवादी थे

चिट्ठा जगत में जिसकी जो मर्जी है लिख सकता है . मैंने हमेशा इसे एक डायरी की तरह लिया है पर अक्सर लोगों के हस्तक्षेप से मेरा पोस्ट वाद विवाद संवाद जैसा भी बन गया है . मुझे अपरिपक्व बहस से चिढ है , संभवतः जैसा प्रशिक्षण मुझे मिला है उसमें हल्की फुल्की बहस से चिढ़ होने की बुनियाद है . इसलिए मैं जल्दी आलोचनात्मक लेख नहीं लिखता . कहने को ई पी डब्ल्यू में भी कभी कुछ लिखा है , पर आम तौर से मैं इससे बचता हूँ . राजनैतिक विचारों पर जो बहस होती है , उसमें शामिल होते हुए मुझे अपनी अज्ञता का ख़याल रहता है . मुझे लगता है कितना कुछ है जिसके बारे में मुझे अधकचरा ज्ञान है , कितना कुछ है जो अभी मुझे पढ़ना है इसके बावजूद कि देश विदेश के सबसे बेहतरीन अध्यापकों और शोध कर्ताओं से सीखने और विमर्श करने का मौक़ा मिला है . संकोच से ही बात करने का संस्कार अपनाया है . देखता हूँ अधिकतर लोगों को ऐसा कोई आत्म - चैतन्य नहीं , जो मर्जी लिखते रहते हैं . अच्छा है , आखिर ज्ञान की बपौती किसके हाथ ! मैंने सोचा कि कुछ सवालों पर सोचूँ . जैसे : वाम या दक्षिण - इन शब्दों की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? हिन्दुस्तान में...

राष्ट्रतोड़ू राष्ट्रवादी

मैंने सोचा था इस बार एक रोचक गलती पर लिखूं । एक छात्र कुंवर नारायण की कविता पढ़ते हुए 'असह्य नजदीकियां' को 'असहाय नजदीकियां' पढ़ गया। जैसे कोई गलती से कविता रच गया। पर अभी अखबार में पढ़ा कि डंडे मारने वाले दिखा गए कि हम कितने महान लोकतान्त्रिक देश में रहते हैं। इकट्ठे होकर निहत्थे लोगों पर हमला करना आसान होता है। कायर लोग यह हमेशा ही किया करते हैं। मैंने अरुंधती का वक्तव्य पढ़ा जिसमें उसने इस प्रसंग में मीडिया की भूमिका पर भी सवाल उठाए हैं। यह सोचने की बात है कि कायर लोग अरुंधती पर हमला कर देश का क्या भला कर रहे हैं। अफलातून ने सही लिखा ये राष्ट्रतोड़ू राष्ट्रवादी हैं। एक और छात्र ने यह बतलाया कि प्रख्यात आधुनिक चिन्तक बेनेडिक्ट एन्डरसन राष्ट्र को काल्पनिक समुदाय कहते हुए बतलाते हैं कि राष्ट्र का अर्थ तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कि राष्ट्र में हो रही बुराइओं पर खुला विमर्श न हो। पर एन्डरसन तो विदेशी है, जैसे हर ऐसा विचार जिसके साथ हम सहमत नहीं है यह कहकर टाला जाता है की यह तो विदेशी विचार है तो इस को भी फेंको कूड़े में।

करोड़ों की लड़ाई

एक समय था जब हर किसी को सही सूचनाएं उपलब्ध नहीं होती थीं . बड़े शहरों में पुस्तकालय होते थे - छोटे शहरों में भी होते थे पर उनका मिजाज़ खास ढंग का होता था . गाँव में बैठ कर सूचनाएं प्राप्त करना मुश्किल था . आज ऐसा नहीं है , अगर किसी को पढ़ने लिखने की सुविधा मिली है , और निम्न मध्य वर्ग जैसा भी जीवन स्तर है , तो मुश्किल सही इंटर नेट की सुविधा गाँव में भी उपलब्ध है - कम से कम अधिकतर गाँवों के लिए यह कहा जा सकता है . इसलिए अब जानकारी प्राप्त करें या नहीं , और अगर करें तो किस बात को सच मानें या किसे गलत यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर है . अक्सर हम अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर ख़ास तरह की जानकारी को सच और अन्य बातों को झूठ मानते हैं . और वैसे भी बचपन से जिन बातों को सच माना है उसे अचानक एक दिन गलत मान लेना कोई आसान बात तो है नहीं . इसलिए चाहे अनचाहे अपने खयालों से विपरीत कोई कुछ कहता हो तो असभ्य फूहड़ ही सही किसी भी भाषा में उसका विरोध करना ज़रूरी लगता है . मुझे सामान्यतः ऐसे लोगों से कोई दिक्कत नहीं होती , आखिर जो जानता नहीं , एक दिन वह सही बातें जान सकता है और इसलिए उसे दोष देना मैं वाज...

मुझे अरुंधती से ईर्ष्या है

मैं उन करोड़ों लोगों में से हूँ, जो इस वक़्त अरुंधती के साथ हैं. ये सभी लोग अरुंधती के साथ जेल जाने की हिम्मत नहीं रखते, मैं भी डरपोक हूँ. पर इस वक़्त मैं अरुंधती का साथ देने के लिए जेल जाने को भी तैयार हूँ. अरुंधती ने जो कहा है वह हम उन सब लोगों की तरफ से कहा है, जो निरंतर हो रहे अन्याय को सह नहीं सकते. देशभक्ति के नाम पर मुल्क के गरीबों के खून पसीने को कश्मीरियों के दमन के लिए बहा देना नाजायज है और यह कभी भी जायज नहीं हो सकता. कश्मीर पर सोचते हुए हम लोग राष्ट्रवाद के मुहावरों में फंसे रह जाते हैं. जब इसी बीच लोग मर रहे हैं, कश्मीरी मर रहे हैं, हिन्दुस्तानी मर रहे हैं. करोड़ों करोड़ों रुपए तबाह हो रहे हैं. किसलिए, सिर्फ एक नफरत का समंदर इकठ्ठा करने के लिए. यह सही है कि हमें इस बात की चिंता है की आज़ाद कश्मीर का स्वरुप कैसा होगा और हमारी और पकिस्तान की हुकूमतों जैसी ही सरकार आगे आजादी के बाद उनकी भी हो तो आज से कोई बेहतर स्थिति कश्मीरियों की तब होगी यह नहीं कहा जा सकता. पर अगर यह उनके लिए एक ऐतिहासिक गलती साबित होती है तो इस गलती को करने का अधिकार उनको है. जिनको यह द...

अरविन्द गुप्ता के बहाने

अरविन्द से मेरी पहली मुलाकात १९७९ में हुई थी . हमलोग आई आई टी कानपुर से आई आई टी बाम्बे के सांस्कृतिक उत्सव मूड इंडिगो में भाग लेने जा रहे थे . मैं हिंदी डीबेट के लिए जा रहा था ( और मुझे इसमें पहला पुरस्कार भी मिला था :-) ) उस टीम में कई बढ़िया लोग थे . शास्त्रीय संगीत में भीमसेन जोशी का शिष्य नरेन्द्र दातार था , जो इन दिनों कहीं कनाडा में बसा है . वायोलिन बजाने वाला राजय गोयल मेरा बड़ा ही प्रिय था . पता नहीं इन दिनों वह कहाँ है , मैं उन दिनों स्टूडेंट्स सीनेट का सदस्य था और सीनेट का कन्वीनर एम् टेक का विद्यार्थी संजीव भार्गव हमारे साथ था , जो बाद में जबलपुर में इन्फौर्मेशन टेक्नोलोजी और मेटलर्जी वाले संस्थान का निर्देशक बना . अभी पिछले साल उसका देहांत हो गया . रास्ते में बी टेक वाले स्टूडेंट्स तरह तरह के खेल खेलते रहे . मैंने उनसे काऊस एंड बुल्स वाला खेल सीखा , आज तक जहां भी जिसको भी मैंने यह खेल सिखाया है , उसको कुछ समय तक तो ज़रूर ही इस खेल का नशा हो जाता है ( एक मित्र के साथ डाक के जरिए साल भर हमारा यह खेल चलता रहा जब हम भारत में थे और मित्र अमरीका में !) . तो शायद पूना के पास क...

लेट पोस्ट

एक हफ्ता लेट पोस्ट कर रहा हूं। लिख लिया था पर पोस्ट नहीं कर पाया था। कुछ बिखरे से ख़याल हैं। चीले देश के कोपीपाओ क्षेत्र की खदान में फंसे तैंतीस लोगों की दो महीने की दर्दनाक कैद से मुक्ति इन दिनों की बड़ी खबर है। आधुनिक तकनोलोजी की एक बड़ी सफलता के अलावा यह मानव की असहायता से मुक्ति के लिए संसार भर के लोगों की एकजुटता का अद्भुत उदाहरण है। कहने को यह महज एक देश के लोगों की कहानी है, पर विश्व भर में जिस तरह लोगों ने उत्सुकता के साथ इस घटना को टी वी के परदे पर देखा या अखबारों में पढ़ा, उससे पता चलता है कि अंततः मानव मानव के बीच प्रेम का संबध ही अधिक बुनियादी है न कि नफरत का। ऐसी ही भावुकता पहले भी नज़र आयी है जब हरियाणा के प्रिंस नामक एक बच्चे को एक कुँए में से निकाल बचाया गया था। इसके विपरीत हमारे देश में जो ख़बरें इन दिनों चर्चा में हैं, वे मानव को मानव से विछिन्न करने वाली ख़बरें हैं। एक निहायत ही पिछड़ेपन की सोच को लेकर बहुसंख्यक लोगों को उत्तेजित कर अल्पसंख्यकों के खिलाफ सामयिक तौर पर ही सही जीत हासिल करने का संतोष कुछ लोगों को है। एक कोशिश है कि अन्याय के विरोध में कोई बातचीत न ...

जिन्होंने सुना नहीं उन्हें सुनना चाहिए

नया कुछ नहीं। बहुत पुराना हो गया है। पर एक युवा दोस्त ने यह लिंक भेजी तो एक बार फिर सुना। और लगा कि जिन्होंने सुना नहीं उन्हें सुनना चाहिए। साईंनाथ।

लड़ांगे साथी

मैं वैसे तो गुस्से में और अवसाद ग्रस्त हो सकता हूँ, कि एक नासमझ गैर शिक्षक बाबू ने ऐडमिरल रामदास के भाषण पर नाराज़गी जताते हुए हमारे छात्रों में सांप्रदायिक विष फैलाने की कोशिश की है. और ऐसा करने में उसने साल भर पुरानी मीरा नंदा के भाषण की सूचना को उखाड़ निकला है, जिस सेमीनार का मेजबान मैं था. पर यह हफ्ता पाश और विक्टर हारा के नाम जाना चाहिए. पाश की यह कविता आज ही कुछ दोस्तों को सुना रहा था, बहुत बार सबने सुनी है, एक बार और पढ़ी जाए: सबसे खतरनाक होता है मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है सबसे ख़तरनाक नहीं होता कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है जुगनुओं की लौ में पढ़ना मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍त निकाल लेना बुरा तो है सबसे ख़तरनाक नहीं होता सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आना सबसे ख़तरनाक होता है ...

हरदा हरदू हृदयनगर

हरदा के बारे में प्रोफ़ेसर श्यामसुंदर दूबे का कहना है कि यह नाम हरदू पेड़ से आया हो सकता है. हो सकता है कि कभी इस क्षेत्र में बहुत सारे हरदू पेड़ रहे हों. मैंने नेट पर शब्दकोष ढूँढा तो पाया : हरदू, पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत और पीले रंग की होती है। इस लकड़ी से बंदूक के कुंदे, कंधियाँ और नावें बनती हैं। इन दिनों कुछ लोग हरदा को हृदयनगर बनाने की धुन में लगे हैं. मैं बड़े शहर का बदतमीज़ - हरदा से यह सोचते हुए लौटा कि मैंने तो उनको कुछ नहीं दिया पर वहां से दो शाल, दो नारियल, दो कमीज़ और दो पायजामे के कपड़े लेकर लौटा हूँ. प्रेमशंकर रघुवंशी जी ने अपनी पुस्तक और दो पत्रिकाएं थमाईं वो अलग. चलो मजाक छोड़ें - हरदा में जो प्यार लोगों से मिला उससे तो वाकई उसे हृदयनगर कहने का मन करता है. औपचारिक रूप से मैं स्वर्गीय एन पी चौबे के पुत्र गणेश चौबे द्वारा आयोजित शिक्षक सम्मान समारोह में बोलने गया था. युवा मित्र कवि धर्मेन्द्र पारे जिसने कोरकू जनजाति पर अद्भुत काम किया है, का आग्रह भी था. दो दिन किस तरह बीते पता ही नहीं चला. सोमवार को रात को हैदराबाद घर लौटा तो म...

टिक्की बढ़िया गंजा बढ़िया

‘Great spirits have always encountered opposition from mediocre minds. The mediocre mind is incapable of understanding the man who refuses to bow blindly to conventional prejudices and chooses instead to express his opinions courageously and honestly.’ -ऐल्बर्ट आइन्स्टाइन (बर्ट्रेंड रसेल के पक्ष में ब्यान देते हुए) बढ़िया रे बढ़िया दादा ! दूर तक सोच - सोच देखा - इस दुनिया का सकल बढ़िया , असल बढ़िया नकल बढ़िया , सस्ता बढ़िया दामी बढ़िया , तुम भी बढ़िया , हम भी बढ़िया , यहाँ गीत का छंद है बढ़िया यहाँ फूल की गंध है बढ़िया , मेघ भरा आकाश है बढ़िया , लहराती बतास है बढ़िया , गर्मी बढ़िया बरखा बढ़िया , काला बढ़िया उजला बढ़िया , पुलाव बढ़िया कोरमा बढ़िया , परवल माछ का दोलमा बढ़िया , कच्चा बढ़िया पक्का बढ़िया , सीधा बढ़िया बाँका बढ़िया , ढोल बढ़िया घंटा बढ़िया , चोटी बढ़िया गंजा बढ़िया , ठेला गाड़ी ठेलते बढ़िया , ताजी पूड़ी बेलना बढ़िया , ताईं ताईं तुक सुनना बढ़िया , सेमल रुई धुनना बढ़िया , ठंडे जल में नहाना बढ़िया , पर सबसे यह खाना बढ़िया - पावरोटी और ग...