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करोड़ों की लड़ाई


एक समय था जब हर किसी को सही सूचनाएं उपलब्ध नहीं होती थीं. बड़े शहरों में पुस्तकालय होते थे - छोटे शहरों में भी होते थे पर उनका मिजाज़ खास ढंग का होता था. गाँव में बैठ कर सूचनाएं प्राप्त करना मुश्किल था. आज ऐसा नहीं है, अगर किसी को पढ़ने लिखने की सुविधा मिली है, और निम्न मध्य वर्ग जैसा भी जीवन स्तर है, तो मुश्किल सही इंटर नेट की सुविधा गाँव में भी उपलब्ध है - कम से कम अधिकतर गाँवों के लिए यह कहा जा सकता है. इसलिए अब जानकारी प्राप्त करें या नहीं, और अगर करें तो किस बात को सच मानें या किसे गलत यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर है. अक्सर हम अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर ख़ास तरह की जानकारी को सच और अन्य बातों को झूठ मानते हैं. और वैसे भी बचपन से जिन बातों को सच माना है उसे अचानक एक दिन गलत मान लेना कोई आसान बात तो है नहीं. इसलिए चाहे अनचाहे अपने खयालों से विपरीत कोई कुछ कहता हो तो असभ्य फूहड़ ही सही किसी भी भाषा में उसका विरोध करना ज़रूरी लगता है. मुझे सामान्यतः ऐसे लोगों से कोई दिक्कत नहीं होती, आखिर जो जानता नहीं, एक दिन वह सही बातें जान सकता है और इसलिए उसे दोष देना मैं वाजिब नहीं समझता. मुझे ज्यादा दिक्कत ऐसे लोगों से होती है जो शातिर होते हैं जिन्होंने अपनी आत्माएं बेची होती हैं, और जो भाषा के दांव पेंच से, न कि सही जानकारी के आधार पर, बातें रखते हैं. अक्सर ये लोग छल बल हर तरह की कोशिश से हमें नीचा दिखने की कोशिश करते हैं. फिर भी हमें लगता है कि कोई बात नहीं, संवाद की स्थिति बनाए रखना ज़रूरी है और हम बेवजह अपना वक़्त जाया करते हैं .ऐसे लोग सवाल उठाते हैं तो ऐसे कि जैसे अब यह पेंच चलाया तो अब यह . इसलिए नहीं कि हमें कोई साझी समझ बनानी है. फिर भी मानवता में विश्वास रखते हुए हम प्रयास करते हैं, हमें करते रहना चाहिए. एक पड़ाव पर आकर मुझे भी लगने लगता है इस व्यक्ति से अब बात नहीं करनी. मैंने पहले कभी ऐश्ले मोंटागु का यह कथन पोस्ट किया है, Reasonable persons I reason with, bigots I will not talk to'.

काश कि मैं इस मनस्थिति से निकल सकूं और बेहतर इंसान बनते हुए हर किसी से अनंत समय तक बात कर सकूं.मुझे यह अहसास दिलाने की कोशिश कई लोगों ने की है कि मैं भी किसी ख़ास समुदाय, किसी ख़ास सम्प्रदाय का हिस्सा हूँ. कभी मजाक में, कभी गंभीरता से, समुदायों के बीच संकट के कई क्षणों में, मुझे बतलाने की कोशिश की गयी है कि मैं, जैसा मेरा नाम बतलाता है, एक विशेष सम्प्रदाय का व्यक्ति हूँ. ये लोग सभी घटिया लोग हैं ऐसा नहीं. इनमें से अधिकतर मेरे दोस्त हैं. अक्सर बड़ी ईमानदारी से लोग कहते हैं, 'आप लोग तो..' या 'आप लोगों में ...' आदि. यह भी सही है कि 1 नवम्बर 1984 में प्रिंसटन यूनीवर्सिटी के एक से दूसरे होस्टल के टी वी रूम में दौड़ता हुआ देख रहा था कि कैसे उन लोगों को चुन कर जलाया जा रहा है जिन के सम्प्रदाय में मेरा होना तय है. फिर भी आखिर तक जो बात याद रहती है वह यही कि वे लोग गलत थे जिन्होंने मुझे बार बार यह जताने की कोशिश की कि मैं महज मनुष्य नहीं, मैं एक सम्प्रदाय से परिभाषित हूँ.

इसका मतलब यह नहीं कि जिस धर्म और संस्कृति की शिक्षा मैंने अपने पिता से पाई, उसकी कीमत कोई कम है. मुझे गर्व है कि मेरे पिता सवा लाख से एक लड़ाऊँ कहने वाले गुरु गोविन्द के अनुयायी थे. अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने की, किरत कर और वंड (बाँट) छक का आदर्श जीने की प्रेरणा मुझे उस धर्म से मिली. 'आदि सच जगादि सच, है भी सच होसी (जो हो रहा है ) भी सच' (Being and becoming) का दर्शन मुझे मिला. और मैंने वैज्ञानिक सोच के साथ इस संस्कार को अपने अन्दर समेटा. कोलकाता जैसे शहर में रहते हुए मैंने जाना कि हम दूसरों से अलग हैं. पूरे मोहल्ले में न केवल हम अलग धर्म के थे, हम सबसे गरीब भी थे.इसलिए दोस्तों, जो यह कहते हैं कि आप फलां लोगों के बारे में तो कहते हो, फलां के बारे में नहीं कहते, उन्हें पता ही नहीं है कि अल्प-संख्यक होना क्या होता है, विस्थापित होना क्या होता है, ऐसे विषयों में हमारी कैसी समझ है. यह संयोग की बात है कि कई कश्मीरी पंडितों से मिलने का मौक़ा मुझे मिला है. ये सभी बड़े सुशिक्षित, सुसंस्कृत लोग हैं. यह कि मैंने कभी उन्हें कश्मीरी पंडित नहीं सोचा, यही सोचा कि वे दूसरों जैसे ही आम आदमी हैं, ऐसा झूठ मैं नहीं कह सकता. सच यह कि ...जयकिशन, ... कौल, ... रैना, ऐसे कई मित्रों से मिला हूँ और इन बातों पर बहुत चर्चा हुई है कि कश्मीर में क्या कुछ हो रहा है. बहुत कुछ उन्हीं से जाना है. उन्हीं में से कुछ ने बतलाया था कि जगमोहन ने पंडितों को कश्मीर घाटी छोड़ने को कहा था (बाद में जब कुलदीप नय्यर ने यह लिखा तो जगमोहान ने इसका तीखा विरोध करते हुए लिखा). लम्बे समय तक सिर्फ उन्हीं कश्मीरी मुसलमानों को देखा था जो शिमला में सामान ढोते हैं (इन पर तुलसी रमण की एक कविता है). फिर एस आर गीलानी से मिला जिसे फांसी की सजा मिल रही थी और भयंकर विरोध के बावजूद दिल्ली के कुछ अध्यापकों ने बीड़ा उठाया था कि वे इस अन्याय को नहीं होने देंगे. नंदिता हक्सर गीलानी की वकील थीं. इसमें हम भी जुड़े और यह इतिहास है इस भयंकर काले धब्बे से यह मुल्क छूटा. फिर राजनैतिक कैदियों के अधिकारों के लिए गीलानी और गुरशरण सिंह की पहल में एक मंच बना. मैं भी उसके संस्थापक सदस्यों में से हूँ, हालांकि अपनी मजबूरियों से कभी मैं उनके लिए कुछ कर नहीं पाया हूँ. गीलानी के अलावा एक और कश्मीरी मुसलमान से मिला था जो आई आई टी दिल्ली में केमिस्ट्री के हेड थे. किसी पी एच डी वाईवा के सिलसिले में चंडीगढ़ आये थे तो शाम को उन्हें लेकर हम लोग पार्क विउ रेस्तरां में गए थे. हाल में इसी साल पंजाब विश्वविद्यालय के दो कश्मीरी मुसलमान विद्यार्थियों से मिला. उनसे मिलते वक़्त मुझे पता रहता है कि ये पंडित नहीं मुसलमान हैं. मैं भी इसी समाज का हिस्सा हूँ.चंडीगढ़ में रहते हुए यह सोचना बहुत पहले ही शुरू हो गया था कि कश्मीर के इतने पास होते हुए भी इतने कम कश्मीरी मुसलमानों को कैसे जानता हूँ. और जितने भी कश्मीरियों को जानता हूँ वे सब पंडित ही क्यों हैं. स्पष्ट है इसके लिए कोई पंडित दोषी नहीं है. यह इतिहास की दुर्घटनाएं हैं, कि लोग पंडितों और मुसलमानों में बँटे होते हैं और हम पंडितों से मिलते रहते हैं मुसलमानों से नहीं. जब कश्मीर में पृथकतावादी आन्दोलन हुआ तो पंडित एक तरफ और अधिकतर मुसलमान एक तरफ कैसे हो गए? क्या वजह है कि मेरे साथी आदरणीय कौल साहब तकलीफ से कहते हैं - ये मुसलमान कभी हिन्दुस्तान में नहीं आयेंगे. दूसरी ओर संजय काक (जिनसे मैं मिला नहीं हूँ) जैसे पंडित समुदाय से आए लोग हैं जो हमें सोचने को मजबूर करते हैं कि काश्मीरियों से आज़ादी का हक छीना जाना घोर अन्याय है.यह हमारे ऊपर है कि हम किस बात को सही मानें और किसे गलत. हम चाहें तो हमें हमेशा ही सवर्ण गरीबों की पीड़ाएं दिखेंगी, उतनी ही तीखी जितनी की दलितों की होती है या और भी ज्यादा. इसी तरह हम चाहें तो हम तुलना करते रहेंगे कि कौन ज्यादा पीड़ित है पंडित या मुसलमान.एक विकल्प और भी है - जो बहुत दर्दनाक है और वह है कि हम जानें कि बड़ी तादाद में अवहेलित पीड़ित हो रहे लोग किसी भी संप्रदाय या समुदाय के क्यों ना हों कभी न कभी अपने हकों की माँग लिए उठते हैं और तब कई तरह की विकृतियों को हमें झेलना पड़ता है, पर अंततः हमें इसी निष्कर्ष पर आना पड़ता है कि अन्याय के बल पर कोई भी व्यवस्था हमेशा टिकी नहीं रह सकती. ऐसा मानते हुए हम पाते हैं कि बहुत सी बातें जिन्हें हम शाश्वत मानते थे वे गलत हैं और इस तकलीफ को झेल पाने की हिम्मत से बच कर हम कहने लगते हैं कि अन्याय का विरोध करने वाले पापी हैं, देशद्रोही हैं, दुश्चरित्र हैं, इत्यादि इत्यादि.

इसलिए जब दलितों की बात होती है तो हमारे अंदर का सवर्ण कहता है कि हमने हमेशा ही दलितों से प्रेम किया है, जब स्त्रियों की बात होती है, तो हमारा पुरुष कहता है हमारी परम्परा में स्त्री देवी है, जब हम कश्मीरियों की आज़ादी की बात करते हैं, हमें याद आते हैं पंडित जिन्होंने हमेशा मुसलमानों के साथ प्यार का सम्बन्ध बनाए रखा था. और मजाल क्या है कि कोई हमें इससे अलग भी कुछ कहे, डंडे मार के दो दिनों में ठीक कर देंगे, हमारा देश हमारी मातृभूमि आदि.
एक दिन मैं भी किसी दंगे में मारा जा सकता हूँ, हो सकता है मुझे मारने वाला कोई मुसलमान ही हो, इसलिए क्या सच मुसलमान और गैर मुसलमानों में ही बँटा होगा?
काश्मीर पर मेरे ब्लाग पर पहले भी बातें हुई हैं. पाँच साल पहले जब ब्लाग लिखना शुरु किया था, बहस तब भी होती थी. एक बार रमण कौल, अतुल आदि से लंबी बहस हुई थी, पर तब आज जैसी असभ्य टिप्पणियाँ नहीं के बराबर आती थीं. एक दूसरे से सीखने की कोशिश ज्यादा थी. एक मित्र ने चिंता जताई है - क्या हम फासीवाद की तरफ बढ़ रहे हैं? मुझे यह चिंता तीन दशकों से रही है. पर पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो हताशा से अलग उम्मीद ज्यादा दिखती है. भूखे नंगे लोगों तक सूचनाएँ पहुँच रही हैं और वे भी सूचनाओं का चयन कर रहे हैं.
वही भूखे नंगे लोग जिनका जिक्र अरूंधती ने किया. काश्मीर से भगाये गये हिंदुओं पर हुए अन्याय को अरुंधती ने अनेक बार बखाना है और इसे एक त्रासदी बताया है और साथ ही भूखा नंगा हिंदुस्तान कहने वाले पृथकतावादियों को चेताया है कि यही भूखे नंगे हिंदुस्तानी इनके हकों की लड़ाई का समर्थन कर रहे हैं. इन्हीं के बल पर लाखों काश्मीरियों के हकों की लड़ाई करोड़ों की लड़ाई बन जाती है.




Comments

Ham-Kalam said…
Dear Laltu ji, we are indeed overwhelmed to read such a creative account and it offers us hope against hope.

Always in solidarity
Critique : A students'discussion forum,Panjab University, Chandigarh

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