कई सालों के बाद आई आई टी कानपुर गया. जब वहाँ के अध्यापकों को यह कहते सुना कि वे उस कैम्पस को बीलांग करते हैं, तो अजीब सा लगा. और पहली बार यह तीखा अहसास हुआ कि छात्रों और अध्यापकों की कैम्पस के प्रति भावनाओं में कितना फर्क होता है.
लौटा तो कानपुर से जुखाम और पेट की खराबी लेकर लौटा. आजकल कहीं भी आने जाने में डर लगता है. कुछ न कुछ गड़बड़ होती ही रहती है. और कुछ नहीं तो लम्बी यात्राओं के दौरान माइग्रेन तो है ही. इसी के साथ काम का दबाव - सभाएं, पिछले सेमेस्टर का बाकी काम, अगले सेमेस्टर की तैयारी ... गनीमत यह कि यहाँ ठण्ड से छुटकारा है. दो तारीख को फिर दिल्ली जाना है और डर रहा हूं कि कैसे ठण्ड झेलूँगा.
बहरहाल लौट कर ब्लॉग का हाल देखा तो पाया कि किसी ने टिप्पणी की है कि इतना कहते रहकर भी खुले घूमते हो, कुछ तो इस देश के लोकतंत्र की अच्छाई बखानो. लोकतंत्र की तो पता नहीं पर सचिन के गुण बखानने से कताराऊंगा नहीं. खेलों के मामले में हालांकि मेरा नजरिया यही है कि फालतू का टी वी के सामने बैठे वक़्त बर्बाद करने से अच्छा है कि खुद कुछ खेला जाए, पर कभी कभी इस तरह वक़्त मैं भी बिताता ही हूं, और खुशकिस्मती से इस बार सचिन की पचासवीं सेंचुरी देखने का मौक़ा था. खेलों के मामले में मेरी पसंद राष्ट्रवादी है, मेरी टीम आम तौर पर भारतीय टीम ही होती है. इस तरह दूसरी टीमों के बेहतर खेल को देखने में जो समय की बर्बादी होती, उससे बच जाता हूं. पर और गंभीरता से इस पर सोचा जाए तो सचिन की दृढ़ता से सचमुच प्रेरणा मिलती है, बाद में अखबारों में उसकी बातें पढ़ते हैं तो और भी अच्छा लगता है. सफलता के शिखर पर पहुँच कर जिस तरह की नम्रता को सचिन ने बनाए रखा है, वह अद्भुत है.
तो वापस लोकतंत्र पर. जब देश की पुलिस को न्यायाधीश अपराधी गिरोह कहते हों, तो कड़ी धूप में खड़ा अपना काम कर रहा पुलिस का सिपाही ईमानदारी की प्रतिमूर्ति लगता है, पर वह तो अपना काम भर कर रहा होता है. लोकतंत्र में विरोध की आवाज़ को सुनना कोई ख़ास बात है, यह कुछ लोगों को लगता है. वे हमेशा इस हिसाब में लगे रहते हैं कि हम पकिस्तान या चीन से कितने बेहतर हैं. सोचना यह चाहिए कि हम पकिस्तान और चीन से कितने कम बद हैं. और बदी हमारे लोकतंत्र में भरपूर है. मानव विकास आँकड़ों को तो देखना ही हमने बंद कर दिया है, पर अखबारों का क्या करें जो संपन्न वर्गों के प्रतिनिधियों की सरकार के गुण बखानते रहते हैं - करोड़ों के घोटाले, संसद में हास्यास्पद उछलकूद...निश्चित ही आजादी के तिरसठ साल बाद दूर शिक्षा के बावजूद एक तिहाई से ज्यादा निरक्षर जनता के देश की व्यवस्था को एक सफल लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता.
कई बार मुझे लगता है कि काश हम एक महान संस्कृति महान देश कहलाने के दबाव से मुक्त हो पाते तो सचमुच हमारा ध्यान हमारी कमियों की ओर जाता और अपनी ऊर्जा महानता के नाम पर सीना पीटने के या विरोध की आवाज़ से डरने के बजाय बेहतर समाज और देश के निर्माण में लगा पाते. पर ऐसा होता तो लोगों को बेवकूफ बना कर देश को लूट रहे महान लोगों की क्या हस्ती रहती!
सच यह है कि जो कुछ भी अतीत की सफलताएं हैं, वे मानवीय सफलताएं हैं. जो भी हमारे लोकतंत्र में अच्छा है, वह मानव की विजय की पहचान है. न हमारा अतीत संकीर्ण सीमाओं से समृद्ध हुआ है और न ही लोकतंत्र का निर्माण और उसकी बेहतरी किसी संकीर्ण सोच से उपजी है. विश्व भर के मानव मुक्ति के संघर्ष से ही भारतीय लोकतंत्र भी उभरा है और अभी वह बहुत कमज़ोर है.
और जिस भाई ने 'खुला घूम रहे हो' कह कर संकेत दिया है कि संभल जाओ उसे शुक्रिया कि उसने ऐसा लिखकर स्वयं लोकतंत्र की ताकत पर टिप्पणी की है. मैं इससे बेहतर क्या कह पाता.
लौटा तो कानपुर से जुखाम और पेट की खराबी लेकर लौटा. आजकल कहीं भी आने जाने में डर लगता है. कुछ न कुछ गड़बड़ होती ही रहती है. और कुछ नहीं तो लम्बी यात्राओं के दौरान माइग्रेन तो है ही. इसी के साथ काम का दबाव - सभाएं, पिछले सेमेस्टर का बाकी काम, अगले सेमेस्टर की तैयारी ... गनीमत यह कि यहाँ ठण्ड से छुटकारा है. दो तारीख को फिर दिल्ली जाना है और डर रहा हूं कि कैसे ठण्ड झेलूँगा.
बहरहाल लौट कर ब्लॉग का हाल देखा तो पाया कि किसी ने टिप्पणी की है कि इतना कहते रहकर भी खुले घूमते हो, कुछ तो इस देश के लोकतंत्र की अच्छाई बखानो. लोकतंत्र की तो पता नहीं पर सचिन के गुण बखानने से कताराऊंगा नहीं. खेलों के मामले में हालांकि मेरा नजरिया यही है कि फालतू का टी वी के सामने बैठे वक़्त बर्बाद करने से अच्छा है कि खुद कुछ खेला जाए, पर कभी कभी इस तरह वक़्त मैं भी बिताता ही हूं, और खुशकिस्मती से इस बार सचिन की पचासवीं सेंचुरी देखने का मौक़ा था. खेलों के मामले में मेरी पसंद राष्ट्रवादी है, मेरी टीम आम तौर पर भारतीय टीम ही होती है. इस तरह दूसरी टीमों के बेहतर खेल को देखने में जो समय की बर्बादी होती, उससे बच जाता हूं. पर और गंभीरता से इस पर सोचा जाए तो सचिन की दृढ़ता से सचमुच प्रेरणा मिलती है, बाद में अखबारों में उसकी बातें पढ़ते हैं तो और भी अच्छा लगता है. सफलता के शिखर पर पहुँच कर जिस तरह की नम्रता को सचिन ने बनाए रखा है, वह अद्भुत है.
तो वापस लोकतंत्र पर. जब देश की पुलिस को न्यायाधीश अपराधी गिरोह कहते हों, तो कड़ी धूप में खड़ा अपना काम कर रहा पुलिस का सिपाही ईमानदारी की प्रतिमूर्ति लगता है, पर वह तो अपना काम भर कर रहा होता है. लोकतंत्र में विरोध की आवाज़ को सुनना कोई ख़ास बात है, यह कुछ लोगों को लगता है. वे हमेशा इस हिसाब में लगे रहते हैं कि हम पकिस्तान या चीन से कितने बेहतर हैं. सोचना यह चाहिए कि हम पकिस्तान और चीन से कितने कम बद हैं. और बदी हमारे लोकतंत्र में भरपूर है. मानव विकास आँकड़ों को तो देखना ही हमने बंद कर दिया है, पर अखबारों का क्या करें जो संपन्न वर्गों के प्रतिनिधियों की सरकार के गुण बखानते रहते हैं - करोड़ों के घोटाले, संसद में हास्यास्पद उछलकूद...निश्चित ही आजादी के तिरसठ साल बाद दूर शिक्षा के बावजूद एक तिहाई से ज्यादा निरक्षर जनता के देश की व्यवस्था को एक सफल लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता.
कई बार मुझे लगता है कि काश हम एक महान संस्कृति महान देश कहलाने के दबाव से मुक्त हो पाते तो सचमुच हमारा ध्यान हमारी कमियों की ओर जाता और अपनी ऊर्जा महानता के नाम पर सीना पीटने के या विरोध की आवाज़ से डरने के बजाय बेहतर समाज और देश के निर्माण में लगा पाते. पर ऐसा होता तो लोगों को बेवकूफ बना कर देश को लूट रहे महान लोगों की क्या हस्ती रहती!
सच यह है कि जो कुछ भी अतीत की सफलताएं हैं, वे मानवीय सफलताएं हैं. जो भी हमारे लोकतंत्र में अच्छा है, वह मानव की विजय की पहचान है. न हमारा अतीत संकीर्ण सीमाओं से समृद्ध हुआ है और न ही लोकतंत्र का निर्माण और उसकी बेहतरी किसी संकीर्ण सोच से उपजी है. विश्व भर के मानव मुक्ति के संघर्ष से ही भारतीय लोकतंत्र भी उभरा है और अभी वह बहुत कमज़ोर है.
और जिस भाई ने 'खुला घूम रहे हो' कह कर संकेत दिया है कि संभल जाओ उसे शुक्रिया कि उसने ऐसा लिखकर स्वयं लोकतंत्र की ताकत पर टिप्पणी की है. मैं इससे बेहतर क्या कह पाता.
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कई बार मुझे लगता है कि काश हम एक महान संस्कृति महान देश कहलाने के दबाव से मुक्त हो पाते तो सचमुच हमारा ध्यान हमारी कमियों की ओर जाता और अपनी ऊर्जा महानता के नाम पर सीना पीटने के या विरोध की आवाज़ से डरने के बजाय बेहतर समाज और देश के निर्माण में लगा पाते. पर ऐसा होता तो लोगों को बेवकूफ बना कर देश को लूट रहे महान लोगों की क्या हस्ती रहती Unquote
Honoring your observations Learned Laltu Boss,
Please bear my humble correction to your expression.... It not 'Dabav of any sort', it is mere 'Vyamoh' of our weak psyche hurt over centuries by invaders ! We need to come out of " Once upon a time my Dada had been Thanedar of the area...." complex and accept our weakness to call anyone Maha-mahim who is mightier and benefactor !
Sorry for Commenting in English,
I lack baraha at this system.. we need to perform an autopsy on ourselves !