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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Friday, September 10, 2010

लड़ांगे साथी

मैं वैसे तो गुस्से में और अवसाद ग्रस्त हो सकता हूँ, कि एक नासमझ गैर शिक्षक बाबू ने ऐडमिरल रामदास के भाषण पर नाराज़गी जताते हुए हमारे छात्रों में सांप्रदायिक विष फैलाने की कोशिश की है. और ऐसा करने में उसने साल भर पुरानी मीरा नंदा के भाषण की सूचना को उखाड़ निकला है, जिस सेमीनार का मेजबान मैं था.

पर यह हफ्ता पाश और विक्टर हारा के नाम जाना चाहिए.

पाश की यह कविता आज ही कुछ दोस्तों को सुना रहा था, बहुत बार सबने सुनी है, एक बार और पढ़ी जाए:

सबसे खतरनाक होता है

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।

-अवतार सिंह पाश

विक्टर हारा के एक गीत की भारतभूषण ने यह लिंक भेजी है।

पाश की याद में मैंने एक कविता लिखी थी, इतवारी पत्रिका में आयी थी। 'डायरी में तेईस अक्तूबर' संग्रह में शामिल है. इस वक़्त टेक्स्ट पास नहीं है। आखिरी पंक्ति में पाश को दुहराया था: असीं लड़ांगे साथी, असीं लड़ांगे साथी। आज भी यही कहना है।

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3 Comments:

Blogger राही डूमरचीर said...

आपकी ही बात को हिंदी के एक समकालीन कवि दिनेश कुशवाह के शब्दों में कहूँ तो...(यह भी पाश पर ही लिखी गयी है)
सवाल है हम
जिंदा कैसे हैं
जवाब तुम हो
हम लड़ेंगे साथी

12:01 PM, September 20, 2010  
Blogger शरद कोकास said...

पाश की यह कविता एक बार फिर पढना अच्छा लगा ।पाश की याद में लिखी आपकी कविता हम पढना चाहेंगे । आपका यह संग्रह मेरे पास नही है । कहाँ से उपलब्ध हो सकेगा क्रपया बतायें ।

12:48 AM, September 28, 2010  
Blogger प्रदीप कांत said...

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।

आज पाश को फिर से पढा।

10:58 PM, September 28, 2010  

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