मैंने
अरुंधती राय के साहित्य अकादमी
पुरस्कार न लेने पर उन्हें
सलाम कहा था तो मसिजीवी परेशान
हो गए। परेशानी में जो कुछ
लिखा उसे पढ़कर कुछ और मित्रों
की बाँछें खिल गईं। बहरहाल,
एक पुरस्कार
लेना है या नहीं,
इसे सिर्फ
एक नैतिक निर्णय मानना बचकानी
बात है। यह तो अरुंधती भी जानती
होंगी कि महाश्वेता दी जैसे
कई लोग जो बार बार पुरस्कृत
हुए हैं और जिन्होंने पुरस्कार
लिए हैं, कोई
कम प्रतिबद्ध नहीं हैं। एक
पुरस्कार लेना न लेना एक रणनीति
है और बिना सोचे समझे महज नैतिक
कारणों से ऐसा करना बेवकूफी
नहीं तो कम से कम फायदेमंद तो
है नहीं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर
ने बर्त्तानिया सरकार की दी
हुई नाइट की उपाधि वापस की थी।
हमारे रंगीन मिजाज समकालीन
खुशवंत सिंह ने राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दिया
था। स्पष्ट है ऐसे सभी लोगों
ने अपनी सभी उपाधियाँ या
पुरस्कार नहीं लौटाए। जिन्होंने
लौटाए सोचकर लौटाए कि इससे
क्या प्रभाव पड़ेगा। बहरहाल
मसिजीवी और दूसरे मित्र इस
पर बहस करते रहें कि अरुंधती
का निर्णय ठीक था या नहीं या
मेरा सलाम कितना लाल या पीला
था। इसी बीच अगर अरुंधती मन
बदल लें तो और भी अच्छा -
हमारी
बहस भी खत्म हो और अरुंधती और
साथियों का भी कुछ भला हो।
लाल रंग पर व्यंग्य करना भी एक फैशन है। बात बने न बने हो जाओ लाल पीले लाल ही पर। लाल का अपना अनोखा इतिहास है। पहले साम्यवादी भी सफेद झंडे का इस्तेमाल करते थे। कहते हैं उन्नीसवीं सदी के अंत में पोलैंड में कामगारों के एक जुलूस पर गोली चलाई गई। झंडा थामे एक मजदूर को गोली लगी, उसके खून से सफेद झंडा लाल हो गया। उसके साथियों ने उसी लाल झंडे को उठाया और वे आगे बढ़े, तब से लाल झंडा लाल है। मेरा मन पसंद रंग वैसे लाल नहीं नीला है।
मुझे अपनी यूनिवर्सिटी के दिन याद आ गए, जब मुझे भी जुनूँ था कि ऐसा कुछ मैं करुँ। १९८४ में मैं पी एच डी की थीसिस खत्म करने के मोड़ पर था। याद नहीं है कि घटनाक्रम कैसा था, पर दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन विश्व-व्यापी बन चुका था। भारत दशकों से दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी की पहल करता रहा और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत और गुट निरपेक्ष देशों के बहुमत से पारित मत के खिलाफ सुरक्षा परिषद में अमरीका और ब्रिटेन वीटो का उपयोग करते रहे। सत्तर के बाद के दशक में एक बार अफ्रीकी मूल के अमरीकी छात्रों ने रंगभेद के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। उस वक्त के दूसरे आंदोलनों की तरह यह भी धीरे धीरे ढीला पड़ गया। पर अस्सी के शुरुआती सालों में ओलिवर तांबो के नेतृत्व में (नेल्सन मांडेला जेल में थे) अफ्रीकी नैशनल कांग्रेस ने पश्चिमी मुल्कों में अपनी ज़मीन बढ़ाने के लिए मुहिम तेज कर दी थी। संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से अपार्थीड के बारे में कई सूचनाएँ खुले आम बाँटी जा रही थीं।
मैं प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के थर्ड वर्ल्ड सेंटर और इंटरनैशनल सेंटर में लगातार जाता था। थर्ड वर्ल्ड सेंटर अफ्रीकी अमरीकी (ब्लैक) छात्रों का सांस्कृतिक केंद्र था। यह केंद्र जब बना था वे ब्लैक पीपल्स मूवमेंट के शिखर के दिन थे। पर हमारे वक्त रीगन युग की और सभी प्रवृत्तियों की तरह यह भी अपने स्वभाव में काफी संरक्षणशील हो चुका था। फिर भी यहाँ मैंने मैल्कम एक्स पर डाक्यूमेंटरी फुटेज देखा; लुई फाराखान का भाषण सुना। राजनैतिक तेवर की काले कवियों की कविताएँ सुनीं। सांस्कृतिक कार्यक्रम तो खैर जो थे सो थे। बाद के सालों में मेरा मित्र विश्वंभर पति भी इन गतिविधियों में पूरी तरह शामिल था। बहरहाल १९८४ में हवा सी चल पड़ी थी कि दक्षिण अफ्रीका को लेकर कुछ करना है। अमरीकी व्यापारी वर्ग आर्थिक नाकेबंदी के पूरी तरह खिलाफ था। प्रिंस्टन जैसे कई विश्वविद्यालय के ट्रस्ट के पैसे ऐसे व्यापार हितों में निवेशित थे जिनका ताल्लुक दक्षिण अफ्रीका से था। हमलोगों ने 'डाइवेस्टमेंट' यानी विनिवेश या पैसा वापस लो का आंदोलन शुरु किया। मैंने दक्षिण अफ्रीका के चर्चित उपन्यासकार ऐलन पैटन की पुस्तक 'क्राई बीलवेड कंट्री' की तर्ज पर नारा बनाया 'क्राई बीलवेड प्रिंस्टन'। हमारे कई मित्रों में उस दिन विश्वंभर पति की भावी पत्नी गेल हार्ट भी पूरे जोश के साथ शामिल थी। सारी रात थर्ड वर्ल्ड सेंटर में बैठकर हम लोग बैनर और पोस्टर बनाते रहे। १९८४ की प्रिंस्टन की रीयूनियन परेड में जाली ताबूतों के साथ हम जबरन शामिल हो गए। इसमें काले छात्रों के अलावा कई गोरे छात्रों ने भी हिस्सा लिया - खास कर वे लोग जो उन दिनों निकारागुआ, एल साल्वादोर और गुआतेमाला जैसे लातिन अमरीका के देशों में अमरीकी हस्तक्षेप के खिलाफ सक्रिय थे। मैं और पति पूरी तरह इस खुराफात में शामिल थे। बहुत कोशिश करने पर भी मैं भारतीय छात्रों को साथ नहीं ले पाया। बाद में मैंने जाना कि डेमोक्रटिक पार्टी के एक बड़े गुट जो पहले सोशलिस्ट डेमोक्रटिक पार्टी के नाम से जाने जाते थे, ने यह निर्णय लिया था कि देश भर (सं. रा. अमरीका) में रंगभेदी दक्षिण अफ्रीका की सरकार के खिलाफ मोर्चा बुलंद करना है। प्रिंस्टन के इंस्टीचिउट ऑफ अडवांस्ड स्टडीज़ में इसी गुट से जुड़े एक छात्र नेता और रीसर्च फेलो रिचर्ड (सही याद नहीं आ रहा) स्वार्त्ज़ आए हुए थे। कुछ उनके नेतृत्व में और कुछ अराजक (एनार्किस्ट) बंधुओं के साथ १९८५ की शुरुआत तक एक मजबूत प्रिंस्टन डाइवेस्टमेंट आंदोलन बन गया। बाद में कुछ और भारतीय भी यदा कदा किसी न किसी कार्यक्रम में आ ही जाते।
इन सब बातों में शामिल होते हुए मैं एक अपराध बोध से ग्रस्त रहता कि आखिर मैं यहाँ पढ़ने आया हूँ और इस देश में रहते हुए, यहाँ की सुविधाओं का इस्तेमाल करते हुए मुझे यह अधिकार नहीं कि मैं ऐसे विरोध करुँ। साथ ही जैसे जैसे हमारी जानकारी बढ़ती गई और इस पूरे मुद्दे पर गोरे समाज और मुल्कों की हठधर्मिता और पाखंड का खुलासा होता गया, मेरा निश्चय और दृढ़ होता गया। उन्हीं दिनों मैंने जाना कि हालाँकि भारतीय पासपोर्ट हमें दक्षिण अफ्रीका जाने की अनुमति नहीं देता, फिर भी दक्षिण अफ्रीका की सरकार हमें आने देगी और वहाँ जाने पर हमें 'ऑनररी ह्वाइट' माना जाएगा। रंगभेद की व्यवस्था का ऐसा घिनौना स्वरुप जानकर मुझे पहली बार यह खयाल आया कि ऐसे एक मुल्क के साथ व्यापार करने वाली व्यापारिक संस्थाओं को पैसा देने वाली यूनिवर्सिटी की डिग्री का मेरे लिए क्या मतलब! धीरे धीरे मैं इसपर और सोचता चला और योजना बनाने लगा कि मैं इस डिग्री को अस्वीकार करुँगा। इसके लिए ज़रुरी था कि पहले डिग्री की जरुरतें पूरी करें। वे भी क्या दिन थे! हम दिनभर शोर मचाते, रात को बाहर तंबू लगाकर सोते और आधी रात के बाद किसी वक्त मैं दफ्तर लौट के थीसिस के अध्याय टाइप करता। सुबह ड्राफ्ट अपने थीसिस सुपरवाइज़र को देता और साढ़े आठ बजे तंबू में थोड़ी देर के लिए सोने जाता। एक रोचक बात यह हुई कि ऐसे ही एक दिन मेरे सुपरवाइजर ने ग्रुप में नए आए पोस्टडॉकटरल फेलो और मेरे भावी ऑफिसमेट से परिचय कराया।
वह गोरा लड़का ऐंथनी पीयर्स दक्षिण अफ्रीका से आया था। सुनकर बड़ा अजीब लगा। बाद में उससे अच्छी दोस्ती हो गई और उसे हमारे साथ पूरी सहानुभूति थी। शहर के उदारवादी लोगों से हमें काफी समर्थन मिल रहा था, वे लोग हमारे लिए खाना बनाते, दोपहर से हमारे हल्ले गुल्ले गाने बजाने में शामिल होते। उन्हीं दिनों मैं अपनी भावी पत्नी के करीब आया, जो न केवल इस आंदोलन में, बल्कि और कई ऐसी ही गतिविधियों में पूरी तरह शामिल थी।
मैंने अपनी योजना पति को बताई। पति ने मुझे अच्छी तरह सोचने को कहा। और मैं थोड़ा सा घबराने लगा। मई के पहले हफ्ते में मेरा थीसिस डिफेंस हो गया और मैं औपचारिक रुप से पी एच डी की डिग्री पाने के लिए पास हो चुका था। फिर वह दिन आया जिसे हम ज़िंदगी भर गर्व से याद रखेंगे। आंदोलन की समिति ने तय किया कि रात को मुख्य प्रशासनिक बिल्डिंग के पास एक चर्च में छिपे रहेंगे और सुबह मुँह अँधेरे बिल्डिंग पर अधिकार कर लेंगे। कई तरह के षड़यंत्र सोचे गए। किस तरह केमिस्ट्री विभाग में फायर अलार्म बजाकर सुरक्षाकर्मियों का ध्यान वहाँ लगा दिया जाए (ऐसा सचमुच किया नहीं) आदि आदि। ओह! क्या उत्तेजना थी। सारी रात हम गीत गाते रहे। फिर सुबह करीब नब्बे से सौ लोग नासाउ बिल्डिंग के अलग अलग गेटों पर खड़े हो गए। नासाउ बिल्डिंग प्रिंस्टन की वह ऐतिहासिक इमारत है जहाँ अमरीकी आजादी की लड़ाई के दौरान काँग्रेस की सभाएँ होती थीं। मेरे और पति के अलावा एक और भारतीय छात्रा नीरजा पार्थसारथी तब तक साथ थी जब तक पुलिस हमें गिरफ्तार करने नहीं आई। हम अस्सी लोग गिरफ्तार हुए। पुलिस का आदमी हमें राइट्स पढ़कर सुना रहा था और हम 'डेथ टू अपार्थाइड, फ्री मांडेला' नारे लगाते रहे। पुलिस वैन में बैठा मैं जोर जोर से गा रहा था, "वी शैल नॉट, वी शैल नॉट बी मूव्ड, जस्ट लाइक अ ड्रीम स्टैंडिंग बाई द वाटर, वी शैल नॉट बी मूव्ड..." बाद में पता चला था कि 'ड्रीम' सही शब्द नहीं था, जस्ट लाइक अ ट्री होना चाहिए था।
तब तक पुलिस के भी अधिकतर लोग हमारे पक्ष में हो चुके थे, इसलिए हमें कोई विशेष कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। पाँच घंटे जेल परिसर में हल्ला गुल्ला मचाकर कागजात साइन कर हमलोग आ गए। बाद में एक प्रसिद्ध वकील ने मुफ्त में हमारी ओर से पैरवी का निर्णय लिया। यूनिवर्सिटी काउंसिल ने अपनी अलग हीयरिंग्स कीं। हर दिन हमारी सभाएँ होतीं और कानूनी दाँवपेंच सोचे जाते। मैंने एकबार यह भी सोचा कि मैं भारत सरकार से हस्तक्षेप के लिए कहूँ और अपना मुकदमा भारत में स्थानांतरित करवाऊँ। पता नहीं क्या क्या सोचते थे, हर दिन कोई नई बात दिमाग में चलती रहती।
डिग्री क्यों न स्वीकार की जाए, इस पर मैंने एक लंबा लेख लिखा और कुछ खास मित्रों को दिखाया। यह भी सोचा कि किसी भारतीय विश्वविद्यालय में दुबारा थीसिस सबमिट कर वहाँ से डिग्री लूँ। धीरे धीरे एक बात दिमाग में स्पष्ट हो गई कि इस तरह के कदम का अर्थ तभी होता है जब इस पर कोई व्यापक बहस छिड़े। इसके लिए मेरे दोस्त तैयार न थे। वे सभी डिग्री लेने आए थे। यहाँ तक कि दक्षिण अफ्रीका से आया मेरा अभिन्न मित्र रिचर्ड स्टीवेंस जो सेमिनरी से थीओलोजी में पी एच डी कर रहा था और जो इस आंदोलन के दौरान पूरी तरह हमारे साथ था, उसने भी मुझे समझाया कि यह ठीक कदम न होगा।
आखिरकार मैं अपने निश्चय से हिला और डिग्री अस्वीकार करने की हिम्मत न कर पाया। देश लौटकर कई सालों तक बीच बीच में मैं उस लेख को पढ़ता जो मैंने डिग्री अस्वीकार करने को लेकर लिखा था, फिर धीरे धीरे निजी समस्याओं और अवसाद के दौरों में पता नहीं वह कहाँ गया।
बहरहाल अरुंधती का निर्णय भी विवादास्पद ही रहेगा। पक्ष-विपक्ष में लोग कहते रहेंगे। मैंने जो कहानी लिखी, इसमें बहुत कुछ अनलिखा रह गया। जीवन के अनेक अनुभवों में से वह भी कुछ थे, जिनको याद करते हैं औेर कभी कभार उन गीतों को गाया करते हैं। १ मई १९९० को जब मांडेला रिहा हुए, मैंने 'जनसत्ता' में दक्षिण अफ्रीका के मुक्ति संग्राम पर एक लेख लिखा, जिसे पढ़ने वाले आज तक मुझे दाद देते हैं। मैं सोचता हूँ उनको कैसे बताऊँ कि मैं सारी बातें लिख ही नहीं सकता। कुछ ऐसे भी हैं जो बिल्कुल ही उदासीन हैं, जैसे हमारा चंडीगढ़ का वह मकान मालिक जो १ मई १९९० को हमारे इस बैनर को देखकर चिढ़ गया था जिसमें हमने ए एन सी का प्रसिद्ध नारा 'अमांडला ओवेतु' (शायद 'जनता को शक्ति' ऐसा कुछ अर्थ है) लिख कर उत्सव मनाने की कोशिश की थी।
लाल रंग पर व्यंग्य करना भी एक फैशन है। बात बने न बने हो जाओ लाल पीले लाल ही पर। लाल का अपना अनोखा इतिहास है। पहले साम्यवादी भी सफेद झंडे का इस्तेमाल करते थे। कहते हैं उन्नीसवीं सदी के अंत में पोलैंड में कामगारों के एक जुलूस पर गोली चलाई गई। झंडा थामे एक मजदूर को गोली लगी, उसके खून से सफेद झंडा लाल हो गया। उसके साथियों ने उसी लाल झंडे को उठाया और वे आगे बढ़े, तब से लाल झंडा लाल है। मेरा मन पसंद रंग वैसे लाल नहीं नीला है।
मुझे अपनी यूनिवर्सिटी के दिन याद आ गए, जब मुझे भी जुनूँ था कि ऐसा कुछ मैं करुँ। १९८४ में मैं पी एच डी की थीसिस खत्म करने के मोड़ पर था। याद नहीं है कि घटनाक्रम कैसा था, पर दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन विश्व-व्यापी बन चुका था। भारत दशकों से दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी की पहल करता रहा और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत और गुट निरपेक्ष देशों के बहुमत से पारित मत के खिलाफ सुरक्षा परिषद में अमरीका और ब्रिटेन वीटो का उपयोग करते रहे। सत्तर के बाद के दशक में एक बार अफ्रीकी मूल के अमरीकी छात्रों ने रंगभेद के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। उस वक्त के दूसरे आंदोलनों की तरह यह भी धीरे धीरे ढीला पड़ गया। पर अस्सी के शुरुआती सालों में ओलिवर तांबो के नेतृत्व में (नेल्सन मांडेला जेल में थे) अफ्रीकी नैशनल कांग्रेस ने पश्चिमी मुल्कों में अपनी ज़मीन बढ़ाने के लिए मुहिम तेज कर दी थी। संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से अपार्थीड के बारे में कई सूचनाएँ खुले आम बाँटी जा रही थीं।
मैं प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के थर्ड वर्ल्ड सेंटर और इंटरनैशनल सेंटर में लगातार जाता था। थर्ड वर्ल्ड सेंटर अफ्रीकी अमरीकी (ब्लैक) छात्रों का सांस्कृतिक केंद्र था। यह केंद्र जब बना था वे ब्लैक पीपल्स मूवमेंट के शिखर के दिन थे। पर हमारे वक्त रीगन युग की और सभी प्रवृत्तियों की तरह यह भी अपने स्वभाव में काफी संरक्षणशील हो चुका था। फिर भी यहाँ मैंने मैल्कम एक्स पर डाक्यूमेंटरी फुटेज देखा; लुई फाराखान का भाषण सुना। राजनैतिक तेवर की काले कवियों की कविताएँ सुनीं। सांस्कृतिक कार्यक्रम तो खैर जो थे सो थे। बाद के सालों में मेरा मित्र विश्वंभर पति भी इन गतिविधियों में पूरी तरह शामिल था। बहरहाल १९८४ में हवा सी चल पड़ी थी कि दक्षिण अफ्रीका को लेकर कुछ करना है। अमरीकी व्यापारी वर्ग आर्थिक नाकेबंदी के पूरी तरह खिलाफ था। प्रिंस्टन जैसे कई विश्वविद्यालय के ट्रस्ट के पैसे ऐसे व्यापार हितों में निवेशित थे जिनका ताल्लुक दक्षिण अफ्रीका से था। हमलोगों ने 'डाइवेस्टमेंट' यानी विनिवेश या पैसा वापस लो का आंदोलन शुरु किया। मैंने दक्षिण अफ्रीका के चर्चित उपन्यासकार ऐलन पैटन की पुस्तक 'क्राई बीलवेड कंट्री' की तर्ज पर नारा बनाया 'क्राई बीलवेड प्रिंस्टन'। हमारे कई मित्रों में उस दिन विश्वंभर पति की भावी पत्नी गेल हार्ट भी पूरे जोश के साथ शामिल थी। सारी रात थर्ड वर्ल्ड सेंटर में बैठकर हम लोग बैनर और पोस्टर बनाते रहे। १९८४ की प्रिंस्टन की रीयूनियन परेड में जाली ताबूतों के साथ हम जबरन शामिल हो गए। इसमें काले छात्रों के अलावा कई गोरे छात्रों ने भी हिस्सा लिया - खास कर वे लोग जो उन दिनों निकारागुआ, एल साल्वादोर और गुआतेमाला जैसे लातिन अमरीका के देशों में अमरीकी हस्तक्षेप के खिलाफ सक्रिय थे। मैं और पति पूरी तरह इस खुराफात में शामिल थे। बहुत कोशिश करने पर भी मैं भारतीय छात्रों को साथ नहीं ले पाया। बाद में मैंने जाना कि डेमोक्रटिक पार्टी के एक बड़े गुट जो पहले सोशलिस्ट डेमोक्रटिक पार्टी के नाम से जाने जाते थे, ने यह निर्णय लिया था कि देश भर (सं. रा. अमरीका) में रंगभेदी दक्षिण अफ्रीका की सरकार के खिलाफ मोर्चा बुलंद करना है। प्रिंस्टन के इंस्टीचिउट ऑफ अडवांस्ड स्टडीज़ में इसी गुट से जुड़े एक छात्र नेता और रीसर्च फेलो रिचर्ड (सही याद नहीं आ रहा) स्वार्त्ज़ आए हुए थे। कुछ उनके नेतृत्व में और कुछ अराजक (एनार्किस्ट) बंधुओं के साथ १९८५ की शुरुआत तक एक मजबूत प्रिंस्टन डाइवेस्टमेंट आंदोलन बन गया। बाद में कुछ और भारतीय भी यदा कदा किसी न किसी कार्यक्रम में आ ही जाते।
इन सब बातों में शामिल होते हुए मैं एक अपराध बोध से ग्रस्त रहता कि आखिर मैं यहाँ पढ़ने आया हूँ और इस देश में रहते हुए, यहाँ की सुविधाओं का इस्तेमाल करते हुए मुझे यह अधिकार नहीं कि मैं ऐसे विरोध करुँ। साथ ही जैसे जैसे हमारी जानकारी बढ़ती गई और इस पूरे मुद्दे पर गोरे समाज और मुल्कों की हठधर्मिता और पाखंड का खुलासा होता गया, मेरा निश्चय और दृढ़ होता गया। उन्हीं दिनों मैंने जाना कि हालाँकि भारतीय पासपोर्ट हमें दक्षिण अफ्रीका जाने की अनुमति नहीं देता, फिर भी दक्षिण अफ्रीका की सरकार हमें आने देगी और वहाँ जाने पर हमें 'ऑनररी ह्वाइट' माना जाएगा। रंगभेद की व्यवस्था का ऐसा घिनौना स्वरुप जानकर मुझे पहली बार यह खयाल आया कि ऐसे एक मुल्क के साथ व्यापार करने वाली व्यापारिक संस्थाओं को पैसा देने वाली यूनिवर्सिटी की डिग्री का मेरे लिए क्या मतलब! धीरे धीरे मैं इसपर और सोचता चला और योजना बनाने लगा कि मैं इस डिग्री को अस्वीकार करुँगा। इसके लिए ज़रुरी था कि पहले डिग्री की जरुरतें पूरी करें। वे भी क्या दिन थे! हम दिनभर शोर मचाते, रात को बाहर तंबू लगाकर सोते और आधी रात के बाद किसी वक्त मैं दफ्तर लौट के थीसिस के अध्याय टाइप करता। सुबह ड्राफ्ट अपने थीसिस सुपरवाइज़र को देता और साढ़े आठ बजे तंबू में थोड़ी देर के लिए सोने जाता। एक रोचक बात यह हुई कि ऐसे ही एक दिन मेरे सुपरवाइजर ने ग्रुप में नए आए पोस्टडॉकटरल फेलो और मेरे भावी ऑफिसमेट से परिचय कराया।
वह गोरा लड़का ऐंथनी पीयर्स दक्षिण अफ्रीका से आया था। सुनकर बड़ा अजीब लगा। बाद में उससे अच्छी दोस्ती हो गई और उसे हमारे साथ पूरी सहानुभूति थी। शहर के उदारवादी लोगों से हमें काफी समर्थन मिल रहा था, वे लोग हमारे लिए खाना बनाते, दोपहर से हमारे हल्ले गुल्ले गाने बजाने में शामिल होते। उन्हीं दिनों मैं अपनी भावी पत्नी के करीब आया, जो न केवल इस आंदोलन में, बल्कि और कई ऐसी ही गतिविधियों में पूरी तरह शामिल थी।
मैंने अपनी योजना पति को बताई। पति ने मुझे अच्छी तरह सोचने को कहा। और मैं थोड़ा सा घबराने लगा। मई के पहले हफ्ते में मेरा थीसिस डिफेंस हो गया और मैं औपचारिक रुप से पी एच डी की डिग्री पाने के लिए पास हो चुका था। फिर वह दिन आया जिसे हम ज़िंदगी भर गर्व से याद रखेंगे। आंदोलन की समिति ने तय किया कि रात को मुख्य प्रशासनिक बिल्डिंग के पास एक चर्च में छिपे रहेंगे और सुबह मुँह अँधेरे बिल्डिंग पर अधिकार कर लेंगे। कई तरह के षड़यंत्र सोचे गए। किस तरह केमिस्ट्री विभाग में फायर अलार्म बजाकर सुरक्षाकर्मियों का ध्यान वहाँ लगा दिया जाए (ऐसा सचमुच किया नहीं) आदि आदि। ओह! क्या उत्तेजना थी। सारी रात हम गीत गाते रहे। फिर सुबह करीब नब्बे से सौ लोग नासाउ बिल्डिंग के अलग अलग गेटों पर खड़े हो गए। नासाउ बिल्डिंग प्रिंस्टन की वह ऐतिहासिक इमारत है जहाँ अमरीकी आजादी की लड़ाई के दौरान काँग्रेस की सभाएँ होती थीं। मेरे और पति के अलावा एक और भारतीय छात्रा नीरजा पार्थसारथी तब तक साथ थी जब तक पुलिस हमें गिरफ्तार करने नहीं आई। हम अस्सी लोग गिरफ्तार हुए। पुलिस का आदमी हमें राइट्स पढ़कर सुना रहा था और हम 'डेथ टू अपार्थाइड, फ्री मांडेला' नारे लगाते रहे। पुलिस वैन में बैठा मैं जोर जोर से गा रहा था, "वी शैल नॉट, वी शैल नॉट बी मूव्ड, जस्ट लाइक अ ड्रीम स्टैंडिंग बाई द वाटर, वी शैल नॉट बी मूव्ड..." बाद में पता चला था कि 'ड्रीम' सही शब्द नहीं था, जस्ट लाइक अ ट्री होना चाहिए था।
तब तक पुलिस के भी अधिकतर लोग हमारे पक्ष में हो चुके थे, इसलिए हमें कोई विशेष कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। पाँच घंटे जेल परिसर में हल्ला गुल्ला मचाकर कागजात साइन कर हमलोग आ गए। बाद में एक प्रसिद्ध वकील ने मुफ्त में हमारी ओर से पैरवी का निर्णय लिया। यूनिवर्सिटी काउंसिल ने अपनी अलग हीयरिंग्स कीं। हर दिन हमारी सभाएँ होतीं और कानूनी दाँवपेंच सोचे जाते। मैंने एकबार यह भी सोचा कि मैं भारत सरकार से हस्तक्षेप के लिए कहूँ और अपना मुकदमा भारत में स्थानांतरित करवाऊँ। पता नहीं क्या क्या सोचते थे, हर दिन कोई नई बात दिमाग में चलती रहती।
डिग्री क्यों न स्वीकार की जाए, इस पर मैंने एक लंबा लेख लिखा और कुछ खास मित्रों को दिखाया। यह भी सोचा कि किसी भारतीय विश्वविद्यालय में दुबारा थीसिस सबमिट कर वहाँ से डिग्री लूँ। धीरे धीरे एक बात दिमाग में स्पष्ट हो गई कि इस तरह के कदम का अर्थ तभी होता है जब इस पर कोई व्यापक बहस छिड़े। इसके लिए मेरे दोस्त तैयार न थे। वे सभी डिग्री लेने आए थे। यहाँ तक कि दक्षिण अफ्रीका से आया मेरा अभिन्न मित्र रिचर्ड स्टीवेंस जो सेमिनरी से थीओलोजी में पी एच डी कर रहा था और जो इस आंदोलन के दौरान पूरी तरह हमारे साथ था, उसने भी मुझे समझाया कि यह ठीक कदम न होगा।
आखिरकार मैं अपने निश्चय से हिला और डिग्री अस्वीकार करने की हिम्मत न कर पाया। देश लौटकर कई सालों तक बीच बीच में मैं उस लेख को पढ़ता जो मैंने डिग्री अस्वीकार करने को लेकर लिखा था, फिर धीरे धीरे निजी समस्याओं और अवसाद के दौरों में पता नहीं वह कहाँ गया।
बहरहाल अरुंधती का निर्णय भी विवादास्पद ही रहेगा। पक्ष-विपक्ष में लोग कहते रहेंगे। मैंने जो कहानी लिखी, इसमें बहुत कुछ अनलिखा रह गया। जीवन के अनेक अनुभवों में से वह भी कुछ थे, जिनको याद करते हैं औेर कभी कभार उन गीतों को गाया करते हैं। १ मई १९९० को जब मांडेला रिहा हुए, मैंने 'जनसत्ता' में दक्षिण अफ्रीका के मुक्ति संग्राम पर एक लेख लिखा, जिसे पढ़ने वाले आज तक मुझे दाद देते हैं। मैं सोचता हूँ उनको कैसे बताऊँ कि मैं सारी बातें लिख ही नहीं सकता। कुछ ऐसे भी हैं जो बिल्कुल ही उदासीन हैं, जैसे हमारा चंडीगढ़ का वह मकान मालिक जो १ मई १९९० को हमारे इस बैनर को देखकर चिढ़ गया था जिसमें हमने ए एन सी का प्रसिद्ध नारा 'अमांडला ओवेतु' (शायद 'जनता को शक्ति' ऐसा कुछ अर्थ है) लिख कर उत्सव मनाने की कोशिश की थी।
3 comments:
भई आपकी कलम के तो हम पहले से ही मुरीद रहे हैं इस पोस्ट ने हमारी राय को और स्थापित ही किया है- यह अलहदा बात है कि शिल्प व वस्तु को बॉंट कर देखने वाले इस प्रशंसा को भी रूप की प्रशंसा भर देख सकते हैं जो है सो है- सबसे पहले कुछ स्वीकरोक्तियॉं पहले तो कमेंट जो मिले उनसे मैं भी विचलित ही हुआ इसलिए बात को वहॉं ज्यादा नहीं खींचा। दूसरा 'लाल' पर व्यंग्य की मंशा थी पर फैशनवश नहीं। कारण है कि अपन की स्मृति में लाल के लालों ने हाल किए हैं वे दो ही विकल्प छोड़ते हैं या तो उनमें शामिल हो पाखंडमार्गी बनें या फिर उनकी ऑंखों की किरकिरी बनें। दूसरे रास्ते का एक अन्य जोखिम ये भी है कि कुछ लोग इसमें विघ्वंसी संकेत भी पढ़ लेते हैं। खैर आप जारी रहें।
'देखिए कितने प्रबुद्ध लोगों को यह सब लिख कर आपने आकर्षित किया :-)'
मसिजीवी जी के ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी पढ़ी। आप जैसे बुद्धिजीवी द्वारा हम निर्बुद्धि लोगों का मज़ाक उड़ाने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।
भाई प्रतीक,
मेरी गलती है और मैं क्षमा माँग रहा हूँ।
हम सबको कोशिश करनी चाहिए कि हम सहृदयता के साथ एक दूसरे के साथ बात करें और विचारों का आदान-प्रदान करें। गलती बतलाने के लिए धन्यवाद।
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