Sunday, January 22, 2006

प्रासंगिक

प्रासंगिक

लंबे समय तक खाली मकान की बाल्कनी में बना उसका घोंसला उखड़ चुका था।

ठंड की बारिश के दिन। मकान के अंदर रजाई में दुबकी तकलीफें।

उड़ने की आदत में चाय की जगह कहाँ। वे बार बार लौटते, अपना घोंसला ढूँढते।

शीशे की खिड़कियों से दिखता आदमी उनके पंखों की फड़फड़ाहट पर झल्लाता हुआ।
सुबह सुबह अखबार। विस्फोट, बेघरी, बेबसी और राजकन्या को परेशान करने वाले सनकी आदमी की गिरफ्तारी।
शीशों पार दुनिया में कितनी तकलीफें।

निरंतर वापस आना उनका ढूँढना घोंसला
प्रासंगिक।

(साक्षात्कार- मार्च १९९७)

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