वापसी
कभी 'वापसी' शीर्षक कहानी लिखी थी। भोपाल से प्रकाशित 'कहानियाँ: मासिक चयन' में प्रकाशित हुई थी। प्रख्यात कहानीकार सत्येनकुमार पत्रिका के संपादक थे। उन्होंने शीर्षक बदलकर 'वापिसी' कर दिया था। तब से 'वापसी' शब्द लिखते हुए आत्म चेतन हो जाता हूँ।
बहरहाल यह हमारी वापसी।
इस बीच काफी कुछ हुआ। चंडीगढ़ से तेईस दिसंबर को चलना था। हवाई अड्डे पहुँचे ही थे कि दो सौ गज दूर नाके पर तैनात सुरक्षा कर्मचारी ने ही रोक लिया। 'क्या करना है?' भई मेरी फ्लाइट है! 'सारी फ्लाइट रद हो गई हैं।' अरे तो मैं दिल्ली से बंगलौर की फ्लाइट कैसे पकड़ूँगा। 'जाइए, वो टैक्सी में बैठा कर भेज रहे हैं।'
"रोने को यूँ तो हर दिन जी चाहता है
यह हर रोज के रोने ने हमें रोने न दिया"
चंडीगढ़ से एयर डेकन वाली सस्ती उड़ान थी, दिल्ली से सहारा की थी। एयर डेकन वाली युवा महिला ने टिकट पकड़ा और कहा 'आपको सूचना नहीं मिली कि दिल्ली से कुहासे की वजह से कोई भी फ्लाइट यहाँ नहीं आ रही।' मैंने फूलती साँस में कहा हाँ आप लोगों ने मोबाइल का नंबर तो रख लिया और फ़ोन करते नहीं, कम से कम मैं दिल्ली पहुँच जाता तो .... । महिला ने कंप्यूटर पर बटन चलाए और कहा 'सर, आपका नाम तो आज की फ्लाइट के सवारियों की लिस्ट में है नहीं।' टिकट दिखाया, उन सभी अक्षरों को उसने ध्यान से देखा जिन्हें मैं बिना चश्मे के नहीं पढ़ सकता। फिर कभी जाँ निसार अख्तर (शायद - अब ठीक याद नहीं) की गज़ल के लफ्ज़ों का ऊपर लिखा फर्स्ट अॉर्डर अप्रोक्सिमेशन याद दिलाते हुए उसने कहा, 'सर, यह टिकट तेईस नवंबर का है, इसलिए आपका नाम आज की लिस्ट में नहीं है।' मैंने टिकट पकड़ा और हाथ में गज भर दूर रखते हुए बिना चश्मे के पढ़ने की ज़बर्दश्त कोशिश करते हुए यह जाना कि वाकई अद्भुत असंभव संभव हो रहा है। दिल्ली से आगे का टिकट निकाल कर देखा तो पाया कि उस पुराने स्टाइल के टिकट में सब कुछ ठीक है, यानी तेईस दिसंबर का है। उस महिला ने सहारा के सिटी आफिस से बात करवाई, फिर मेरे ट्रवेल एजेंट से बात करवाई। जब तक मैं ट्रवेल एजेंट के पास पहुँचा तो उन लोगों ने अपने बही खातों में से देख लिया था कि गलती उनकी भी नहीं, उनके कागज़ों में सारी तारीखें ठीक थीं और टिकट बनाने वाले एयर डेकन के डीलर ने गड़बड़ की थी। इतनी परेशानी में भी मैं आश्वस्त हुआ कि कम से कम मेरे अलावा किसी और ने भी पढ़ने में गलती की थी।
ऐसी स्थितियों में मैं व्यावहारिक नहीं हो पाता और अवसाद के बवंडर में खो जाता हूँ। बहुत बाद में ध्यान आता है कि ऐसा करना चाहिए था या वैसा आदि आदि। तो हुआ यह कि दिल्ली से आगे का टिकट रद करवाया, दुगुनी कीमत पर अगले दिन का दिल्ली से बंगलौर का टिकट करवाया और मान लिया कि जब लौटूँगा तभी रद टिकट का पैसा लूँगा।
थोड़ी देर बाद अलाएंस फ्रांसेस में अफ्रीकी फिल्मों की प्रदर्शनी में पहुँचा तो दो एक दोस्त जिन्हें पता था कि मुझे जाना है वे मुझे देखकर हैरान हुए। मेरा मजाक भी उड़ाया गया। दूसरे दिन दिल्ली कैसे पहुँचें, इस पर सलाहें मिलीं। फिल्म लाजवाब थी (न्हा ला - ग्लोरिया फ्लोरेस निर्देशित )। बाद में ग़म ग़लत करने कहीं जाम भी छलकाए और आधी रात बाद किसी तरह से सो ही गया।
दूसरा दिन
मेरा मित्र तुषार जो हैदराबाद से चंडीगढ़ हमारे वार्षिक सिमपोज़ियम में भाषण देने आया था, सुबह दिल्ली से उसके साथ फ़ोन पर बात हुई। उसे जेट एयरवेज़ वालों ने टैक्सी में दिल्ली भेज दिया था पर वहाँ से आगे की उड़ान रद होने की वजह से उसे सारी रात सी एस आई आर (विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद) के अथिति गृह में ठहरना पड़ा और अब वह हवाई अड्डे की ओर जाते हुए लगातार बढ़ते हुए कुहासे से रुबरु हो रहा था।
मेरा हौसला पस्त हो रहा था। पर मैं आखिर निकल ही पड़ा। दफ्तर आकर मेल देखी और वापस जाते हुए एक रिक्शे वाले को पकड़ा कि बस अड्डे तक छोड़ दे। बंदे ने मेरे हिसाब से ज्यादा पैसे माँगे। मुझे मुँहमाँगे पैसे देने में आपत्ति नहीं थी, पर मैंने उसे नसीहत दी कि यह अच्छी बात नहीं है और उसे नीचे रोककर ऊपर सामान लेने चला गया। जब तक नीचे उतरा तो रिक्शा गायब।
तंग आकर मित्र कुलदीप पुरी को फ़ोन किया, जिन्हें थोड़ी देर पहले ही बतला चुका थ कि मैं चल रहा हूँ और रिक्शा मिल गया है इसलिए कोई चिंता की बात नहीं वगैरह। पुरी साहब ने अड्डे तक छोड़ दिया।
बस की घबराहट, खूबसूरत अध्यात्मवादी साथिन और करनाल बाईपास का भ्रष्ट पुलिसवाला
बस में जाते हुए मुझे हमेशा ही घबराहट होती है। खासतौर से साढ़े पाँच घंटे बाद आई एस बी टी पहुँच कर आगे हवाई अड्डे तक जाते जाते माइग्रेन न हो जाए (पहले एक दो बार हो चुका है) यह चिंता खाए जा रही थी। थोड़ा बहुत साथ लाए कागज़ात पढ़ कर और काफी हद तक संयोग से साथ बैठी खूबसूरत और अच्छी इंसान दिल्ली की पली, बंगलौर की पढ़ी और चंडीगढ़ में काम कर रही साफ्टवेयर प्रोफेशनल युवा सहयात्री की बातचीत से यह चिंता कम हुई। पता चला उनका शौक ध्यान, अध्यात्म वगैरह में है। अमूमन ऐसी परिस्थितियों में मैं परेशान होता हूँ क्योंकि अधिकतर ऐसे लोग हमारी समझ के बाहर की दुनिया के हैं। हम ठहरे एक ज़माने में गीता गुरबाणी आदि रटे हुए और फलां फलां उपनिषद में क्या है इन पचड़ों को बहुत पीछे छोड़ आए हुए और कहाँ ये आजकल के रेइकी वगैरह वगैरह की कसरतों के गुणी जन। बहरहाल मैंने उसे बतलाया कि मैं तो हार्डकोर नास्तिक वैज्ञानिक हूँ पर दूसरों के विचारों का सम्मान करता हूँ। तो इन्हीं हल्की फुल्की बातों में बसयात्रा कटी। मैं दिल्ली का आउटर रिंग रोड आते ही करनाल बाईपास (आज़ादनगर) पर उतर गया। मुझे बस कंडक्टर ने बतलाया था कि वहाँ प्री-पेड बूथ से अॉटो मिल जाएगा।
प्री-पेड बूथ तो था और उससे करीब सौ गज की दूरी पर हर दिशा में खाली अॉटो भी थे, पर बूथ के पास एक भी नहीं। बैसाखियों के सहारे लँगड़ाकर चल रहा एक आदमी सबसे बात कर रहा था और दर तय करके अॉटो दिलवा रहा था। कमाल यह कि वहाँ एक पुलिस का सिपाही बैठा हुआ था, उसकी आँखों के सामने यह सब हो रहा था। मैंने उसे जाकर कहा तो उसने कहा कि दूर खड़े अॉटो के बारे में वह कुछ नहीं कर सकता और जब बूथ पर अॉटो आ जाएगा तो वह सवारी चढ़वा देगा। धीरे धीरे सभी सवारियाँ उस बैसाखियों वाले की तय दरों पर अॉटो पर बैठ चली गईं। मेरे बाद आए कई लोग भी निकल गए। मैं आधे घंटे खड़े खड़े सोचता रहा मैं उनकी तरह नहीं कर सकता - अभी दो ही दिन पहले तो ब्लॉग पर भ्रष्टाचार के खिलाफ लिख कर आया था। बैसाखियों वाला दो एक बार समझा भी गया कि क्यों प्री-पेड रेट से ज्यादा पैसे ठीक हैं। मैं बहस करता रहा कि उनको यूनियन के जरिए सरकार से माँग करनी चाहिए कि किराया बढ़ाया जाए, पर यह गलत तरीका ठीक नहीं। आखिरकार जब मैं घबराहट में हार मान ही लेने वाला था (सड़क पर वह भी जहाँ इतनी ट्राफिक हो, लंबे समय तक खड़े होने की अब आदत नहीं रही दोस्तों) जैसे कुछ मेरी कुछ उसकी जीत हुई, इस तरह से उसने एक अॉटो वहाँ बुलाया और मुझे प्री-पेड के रेट से बीस रुपए ज्यादा देने को कह कर चढ़ा दिया। हार तो मैं गया ही और रास्ते भर सोचता रहा कि कमिशनर को चिट्ठी लिखूँगा।
सभ्य भारतीय - भारतीय सभ्यता
हवाई अड्डे पहुँचा तो वहाँ मछली बाज़ार था। पिछले दिन से लेकर तब तक की रद और देर से जाने वाली उड़ानों के यात्री परेशान इधर उधर। मेरी उड़ान के बारे में पता चला कि समय से दो ही घंटे लेट है।
दो घंटे - तीन घंटे - चार घंटे.........
और फिर............हमें खेद है कि सारी उड़ानें रद।
फिर तो जो नज़ारा था! सारे ग्राउंड स्टाफर लोगों से घिरे हुए। उस वक्त वहाँ विशुद्ध देसी भी यांक ऐक्सेंट में बात कर रहा था। इसक्वीज़ मीं, ह्वोन इज़ दिस स्ठुपिडिठी गोइंग ठू एंड.........दूसरी तरफ से धीरज भरा जवाब - ह्विच स्टुपिडिटी सर। सुंदर लड़की का सुंदर जवाब।
दूसरी सुबह गुड़गाँव के होटल में अखबार में पढ़ा किसी सभ्य भारतीय ने एक ग्राउंड स्टाफ कर्मचारी को पकड़ कर पीट ही दिया। वैसे लोग सचमुच परेशान भी थे। खासकर बच्चों को सँभालती माँएं।
दोपहर तक मैं बंगलौर की उड़ान पर था। दो दिन देर से पहुँच ही गया। तब तक मुझे लेने आया गाड़ीवान जा चुका था। (मेरी तमाम कोशिशों के बावजूद मैं उन्हें ठीक समय पर सूचना नहीं दे पाया था।)
आज इतना ही। अगली खेप में भारतीय विज्ञान संस्थान में हुई दुखद घटना।
कइयों ने पूछा है कि मेरे पिछले चिट्ठे में तस्वीर किस बच्चे की है। मेरी बेटी है, अपने पहले जन्मदिन पर (साढ़े चौदह साल पहले)।
कभी 'वापसी' शीर्षक कहानी लिखी थी। भोपाल से प्रकाशित 'कहानियाँ: मासिक चयन' में प्रकाशित हुई थी। प्रख्यात कहानीकार सत्येनकुमार पत्रिका के संपादक थे। उन्होंने शीर्षक बदलकर 'वापिसी' कर दिया था। तब से 'वापसी' शब्द लिखते हुए आत्म चेतन हो जाता हूँ।
बहरहाल यह हमारी वापसी।
इस बीच काफी कुछ हुआ। चंडीगढ़ से तेईस दिसंबर को चलना था। हवाई अड्डे पहुँचे ही थे कि दो सौ गज दूर नाके पर तैनात सुरक्षा कर्मचारी ने ही रोक लिया। 'क्या करना है?' भई मेरी फ्लाइट है! 'सारी फ्लाइट रद हो गई हैं।' अरे तो मैं दिल्ली से बंगलौर की फ्लाइट कैसे पकड़ूँगा। 'जाइए, वो टैक्सी में बैठा कर भेज रहे हैं।'
"रोने को यूँ तो हर दिन जी चाहता है
यह हर रोज के रोने ने हमें रोने न दिया"
चंडीगढ़ से एयर डेकन वाली सस्ती उड़ान थी, दिल्ली से सहारा की थी। एयर डेकन वाली युवा महिला ने टिकट पकड़ा और कहा 'आपको सूचना नहीं मिली कि दिल्ली से कुहासे की वजह से कोई भी फ्लाइट यहाँ नहीं आ रही।' मैंने फूलती साँस में कहा हाँ आप लोगों ने मोबाइल का नंबर तो रख लिया और फ़ोन करते नहीं, कम से कम मैं दिल्ली पहुँच जाता तो .... । महिला ने कंप्यूटर पर बटन चलाए और कहा 'सर, आपका नाम तो आज की फ्लाइट के सवारियों की लिस्ट में है नहीं।' टिकट दिखाया, उन सभी अक्षरों को उसने ध्यान से देखा जिन्हें मैं बिना चश्मे के नहीं पढ़ सकता। फिर कभी जाँ निसार अख्तर (शायद - अब ठीक याद नहीं) की गज़ल के लफ्ज़ों का ऊपर लिखा फर्स्ट अॉर्डर अप्रोक्सिमेशन याद दिलाते हुए उसने कहा, 'सर, यह टिकट तेईस नवंबर का है, इसलिए आपका नाम आज की लिस्ट में नहीं है।' मैंने टिकट पकड़ा और हाथ में गज भर दूर रखते हुए बिना चश्मे के पढ़ने की ज़बर्दश्त कोशिश करते हुए यह जाना कि वाकई अद्भुत असंभव संभव हो रहा है। दिल्ली से आगे का टिकट निकाल कर देखा तो पाया कि उस पुराने स्टाइल के टिकट में सब कुछ ठीक है, यानी तेईस दिसंबर का है। उस महिला ने सहारा के सिटी आफिस से बात करवाई, फिर मेरे ट्रवेल एजेंट से बात करवाई। जब तक मैं ट्रवेल एजेंट के पास पहुँचा तो उन लोगों ने अपने बही खातों में से देख लिया था कि गलती उनकी भी नहीं, उनके कागज़ों में सारी तारीखें ठीक थीं और टिकट बनाने वाले एयर डेकन के डीलर ने गड़बड़ की थी। इतनी परेशानी में भी मैं आश्वस्त हुआ कि कम से कम मेरे अलावा किसी और ने भी पढ़ने में गलती की थी।
ऐसी स्थितियों में मैं व्यावहारिक नहीं हो पाता और अवसाद के बवंडर में खो जाता हूँ। बहुत बाद में ध्यान आता है कि ऐसा करना चाहिए था या वैसा आदि आदि। तो हुआ यह कि दिल्ली से आगे का टिकट रद करवाया, दुगुनी कीमत पर अगले दिन का दिल्ली से बंगलौर का टिकट करवाया और मान लिया कि जब लौटूँगा तभी रद टिकट का पैसा लूँगा।
थोड़ी देर बाद अलाएंस फ्रांसेस में अफ्रीकी फिल्मों की प्रदर्शनी में पहुँचा तो दो एक दोस्त जिन्हें पता था कि मुझे जाना है वे मुझे देखकर हैरान हुए। मेरा मजाक भी उड़ाया गया। दूसरे दिन दिल्ली कैसे पहुँचें, इस पर सलाहें मिलीं। फिल्म लाजवाब थी (न्हा ला - ग्लोरिया फ्लोरेस निर्देशित )। बाद में ग़म ग़लत करने कहीं जाम भी छलकाए और आधी रात बाद किसी तरह से सो ही गया।
दूसरा दिन
मेरा मित्र तुषार जो हैदराबाद से चंडीगढ़ हमारे वार्षिक सिमपोज़ियम में भाषण देने आया था, सुबह दिल्ली से उसके साथ फ़ोन पर बात हुई। उसे जेट एयरवेज़ वालों ने टैक्सी में दिल्ली भेज दिया था पर वहाँ से आगे की उड़ान रद होने की वजह से उसे सारी रात सी एस आई आर (विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद) के अथिति गृह में ठहरना पड़ा और अब वह हवाई अड्डे की ओर जाते हुए लगातार बढ़ते हुए कुहासे से रुबरु हो रहा था।
मेरा हौसला पस्त हो रहा था। पर मैं आखिर निकल ही पड़ा। दफ्तर आकर मेल देखी और वापस जाते हुए एक रिक्शे वाले को पकड़ा कि बस अड्डे तक छोड़ दे। बंदे ने मेरे हिसाब से ज्यादा पैसे माँगे। मुझे मुँहमाँगे पैसे देने में आपत्ति नहीं थी, पर मैंने उसे नसीहत दी कि यह अच्छी बात नहीं है और उसे नीचे रोककर ऊपर सामान लेने चला गया। जब तक नीचे उतरा तो रिक्शा गायब।
तंग आकर मित्र कुलदीप पुरी को फ़ोन किया, जिन्हें थोड़ी देर पहले ही बतला चुका थ कि मैं चल रहा हूँ और रिक्शा मिल गया है इसलिए कोई चिंता की बात नहीं वगैरह। पुरी साहब ने अड्डे तक छोड़ दिया।
बस की घबराहट, खूबसूरत अध्यात्मवादी साथिन और करनाल बाईपास का भ्रष्ट पुलिसवाला
बस में जाते हुए मुझे हमेशा ही घबराहट होती है। खासतौर से साढ़े पाँच घंटे बाद आई एस बी टी पहुँच कर आगे हवाई अड्डे तक जाते जाते माइग्रेन न हो जाए (पहले एक दो बार हो चुका है) यह चिंता खाए जा रही थी। थोड़ा बहुत साथ लाए कागज़ात पढ़ कर और काफी हद तक संयोग से साथ बैठी खूबसूरत और अच्छी इंसान दिल्ली की पली, बंगलौर की पढ़ी और चंडीगढ़ में काम कर रही साफ्टवेयर प्रोफेशनल युवा सहयात्री की बातचीत से यह चिंता कम हुई। पता चला उनका शौक ध्यान, अध्यात्म वगैरह में है। अमूमन ऐसी परिस्थितियों में मैं परेशान होता हूँ क्योंकि अधिकतर ऐसे लोग हमारी समझ के बाहर की दुनिया के हैं। हम ठहरे एक ज़माने में गीता गुरबाणी आदि रटे हुए और फलां फलां उपनिषद में क्या है इन पचड़ों को बहुत पीछे छोड़ आए हुए और कहाँ ये आजकल के रेइकी वगैरह वगैरह की कसरतों के गुणी जन। बहरहाल मैंने उसे बतलाया कि मैं तो हार्डकोर नास्तिक वैज्ञानिक हूँ पर दूसरों के विचारों का सम्मान करता हूँ। तो इन्हीं हल्की फुल्की बातों में बसयात्रा कटी। मैं दिल्ली का आउटर रिंग रोड आते ही करनाल बाईपास (आज़ादनगर) पर उतर गया। मुझे बस कंडक्टर ने बतलाया था कि वहाँ प्री-पेड बूथ से अॉटो मिल जाएगा।
प्री-पेड बूथ तो था और उससे करीब सौ गज की दूरी पर हर दिशा में खाली अॉटो भी थे, पर बूथ के पास एक भी नहीं। बैसाखियों के सहारे लँगड़ाकर चल रहा एक आदमी सबसे बात कर रहा था और दर तय करके अॉटो दिलवा रहा था। कमाल यह कि वहाँ एक पुलिस का सिपाही बैठा हुआ था, उसकी आँखों के सामने यह सब हो रहा था। मैंने उसे जाकर कहा तो उसने कहा कि दूर खड़े अॉटो के बारे में वह कुछ नहीं कर सकता और जब बूथ पर अॉटो आ जाएगा तो वह सवारी चढ़वा देगा। धीरे धीरे सभी सवारियाँ उस बैसाखियों वाले की तय दरों पर अॉटो पर बैठ चली गईं। मेरे बाद आए कई लोग भी निकल गए। मैं आधे घंटे खड़े खड़े सोचता रहा मैं उनकी तरह नहीं कर सकता - अभी दो ही दिन पहले तो ब्लॉग पर भ्रष्टाचार के खिलाफ लिख कर आया था। बैसाखियों वाला दो एक बार समझा भी गया कि क्यों प्री-पेड रेट से ज्यादा पैसे ठीक हैं। मैं बहस करता रहा कि उनको यूनियन के जरिए सरकार से माँग करनी चाहिए कि किराया बढ़ाया जाए, पर यह गलत तरीका ठीक नहीं। आखिरकार जब मैं घबराहट में हार मान ही लेने वाला था (सड़क पर वह भी जहाँ इतनी ट्राफिक हो, लंबे समय तक खड़े होने की अब आदत नहीं रही दोस्तों) जैसे कुछ मेरी कुछ उसकी जीत हुई, इस तरह से उसने एक अॉटो वहाँ बुलाया और मुझे प्री-पेड के रेट से बीस रुपए ज्यादा देने को कह कर चढ़ा दिया। हार तो मैं गया ही और रास्ते भर सोचता रहा कि कमिशनर को चिट्ठी लिखूँगा।
सभ्य भारतीय - भारतीय सभ्यता
हवाई अड्डे पहुँचा तो वहाँ मछली बाज़ार था। पिछले दिन से लेकर तब तक की रद और देर से जाने वाली उड़ानों के यात्री परेशान इधर उधर। मेरी उड़ान के बारे में पता चला कि समय से दो ही घंटे लेट है।
दो घंटे - तीन घंटे - चार घंटे.........
और फिर............हमें खेद है कि सारी उड़ानें रद।
फिर तो जो नज़ारा था! सारे ग्राउंड स्टाफर लोगों से घिरे हुए। उस वक्त वहाँ विशुद्ध देसी भी यांक ऐक्सेंट में बात कर रहा था। इसक्वीज़ मीं, ह्वोन इज़ दिस स्ठुपिडिठी गोइंग ठू एंड.........दूसरी तरफ से धीरज भरा जवाब - ह्विच स्टुपिडिटी सर। सुंदर लड़की का सुंदर जवाब।
दूसरी सुबह गुड़गाँव के होटल में अखबार में पढ़ा किसी सभ्य भारतीय ने एक ग्राउंड स्टाफ कर्मचारी को पकड़ कर पीट ही दिया। वैसे लोग सचमुच परेशान भी थे। खासकर बच्चों को सँभालती माँएं।
दोपहर तक मैं बंगलौर की उड़ान पर था। दो दिन देर से पहुँच ही गया। तब तक मुझे लेने आया गाड़ीवान जा चुका था। (मेरी तमाम कोशिशों के बावजूद मैं उन्हें ठीक समय पर सूचना नहीं दे पाया था।)
आज इतना ही। अगली खेप में भारतीय विज्ञान संस्थान में हुई दुखद घटना।
कइयों ने पूछा है कि मेरे पिछले चिट्ठे में तस्वीर किस बच्चे की है। मेरी बेटी है, अपने पहले जन्मदिन पर (साढ़े चौदह साल पहले)।
4 comments:
हम लोग भी दिल्ली कोहरे के बीच में ही पहुँचे थे, पर सौभाग्यवश कठिनाईयाँ कम हुई, शायद क्योंकि हमारी उड़ान अंतर्राष्ट्रीय थी. पर आप की बतायी हुई भावनाँए अपने जैसी लगीं. हर स्थिति में मुस्कुरा कर उनका सामना करने वालों से कभी कभी ईर्ष्या होती है !
आप तो यहाँ http://hindini.com/ravi/?p=151 भी भ्रमण कर रहे हैं!
शुक्र है, यहाँ आप मज़े में हैं!
आप की आपबीती पढ कर यहां बैठे बैठे मैं धीरज खोने लगी थी। बिल्कुल लगा जैसे मै ही उस हालात में फ़ंस गयी हूं। अंदाज़ा कर सकती हूं कि उस वक्त हेल्पलेस महसूस करना कैसा होता है।
स्वागत है आपका, सच कहूँ मेरा धीरज तो छूटने लगा था। मुझे लगा कि बस अब हिंदी फिर से दूसरों के भरोसे छोड़ आप रम गए हैं विज्ञान में। खैर कोहरे के कहर को आपने अच्छा वर्णन किया है। आप उस घटना के समय साईंस कांग्रेस में ही थे ?
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