Saturday, January 14, 2006

पंजाब की लोक-संस्कृति का अद्भुत संसार

लोहड़ी के दिन मुझे सबसे अनोखी बात लगती है लोहड़ी का गीत, जो आधुनिक समय के तमाम दबावों के बावजूद ज़िंदा है। पंजाब की लोक-संस्कृति का अद्भुत संसार है, जो पंजाब से बाहर के लोग कम ही जानते हैं। मैं बचपन में कलकत्ता में शहरी बंगाली मध्यवित्त समाज में पलते हुए पंजाब की लोक-संस्कृति के प्रति हीन भावना से ग्रस्त था। यहाँ इतने सालों में मेरी प्राप्ति यह है कि मैंने इस समृद्ध संस्कृति को जाना है। दुःख की बात है कि पंजाब का शहरी समुदाय अपनी इस संस्कृति से अनभिज्ञ है। लोहड़ी के दिन बच्चे आकर गीत गाकर लोहड़ी माँगते हैं। बच्चे तो बच्चे हैं, उन्हें जल्दी होती है कि गीत गाएँ और जो भी मिलता है ले लें। पहले कुछ वर्षों में हम उनसे पूरा गीत सुनकर ही उन्हें लोहड़ी देते थे, अब हम भी जल्दी से निपट लेते हैं। शाम को जब मुहल्लों में लोग आग जला कर इकट्ठे होते हैं, वहाँ भी बुज़ुर्गों में ही आग्रह होता है, बच्चे और युवा तो बस पॉप म्युज़िक और डांस में ही रुचि रखते हैं। एक साल तो मुझे याद है, दो गीत जो हर जगह बज रहे थे, वे थे 'देस्सी बांदरी विलैती चीक्खां मारदी' और 'तू नाग सांभ लै जुल्फां दे, कोई चोर सपेरा लै जाऊगा।' यह भी है!



लोहड़ी के गीत का महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक संदर्भ है। सम्राट अकबर के जमाने में लाहौर से उत्तर की ओर पंजाब के इलाकों में दुल्ला भट्टी नामक एक दस्यु या डाकू हुआ था, जो धनी ज़मींदारों को लूटकर गरीबों की मदद करता था। गीत का संदर्भ एक गरीब लड़की का मान रखने से है। पूरा गीत मुझे याद नहीं था, तो अंतरजाल से ढूँढकर सुखबीर ग्रेवाल की यह पोस्टिंग मिली हैः-



सुंदर मुंदरीए होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
दुल्ले धी ब्याही होए
सेर शक्कर पाई होए
कुड़ी दे लेखे लाई होए
घर घर पवे बधाई होए
कुड़ी दा लाल पटाका होए
कुड़ी दा शालू पाटा होए
शालू कौन समेटे होए
अल्ला भट्टी भेजे होए
चाचे चूरी कुट्टी होए
ज़िमींदारां लुट्टी होए
दुल्ले घोड़ दुड़ाए होए
ज़िमींदारां सदाए होए
विच्च पंचायत बिठाए होए
जिन जिन पोले लाई होए
सी इक पोला रह गया
सिपाही फड़ के ले गया
आखो मुंडेयो टाणा टाणा
मकई दा दाणा दाणा
फकीर दी झोली पाणा पाणा
असां थाणे नहीं जाणा जाणा
सिपाही बड्डी खाणा खाणा
अग्गे आप्पे रब्ब स्याणा स्याणा
यारो अग्ग सेक के जाणा जाणा
लोहड़ी दियां सबनां नूँ बधाइयाँ



पंजाब के शहर के लोगों को पता ही नहीं रहता कि आम लोगों की सोच किस ओर जा रही है। चंडीगढ़ से प्रकाशित ट्रिब्यून समूह के तीन भाषाओं के अखबारों को पढ़कर यह देखा जा सकता है कि संस्कृति की कितनी बड़ी खाई यहाँ है। हिंदी वाला दैनिक ट्रिब्यून तो बहुत ही छोटे से समुदाय में सीमित है। स्तर भी बहुत ही निम्न है। पंजाबी और अंग्रेज़ी के अखबारों का पाठकवर्ग बड़ा है, पर अंग्रेज़ी से जबरन अनूदित कुछ आलेखों को छोड़ दें तो पंजाबी में अखबार की बिल्कुल अलग अपनी एक पहचान है। बहुत अच्छे आलेख पंजाबी में आते हैं। हाल में उन्होंने सर्वेक्षण करवाया कि वर्ष २००५ का सबसे उल्लेखनीय पंजाबी व्यक्ति कौन है। क्रमशः लोकनाटककार गुरशरण सिंह, बाबा बलबीर सिंह सीचेवाल (एक प्रदूषित नदी को सामूहिक कार सेवा द्वारा साफ करवाने से प्रख्यात) और सेना प्रमुख जे जे सिंह का नाम आया। संयोग से ये परिणाम ११ जनवरी को प्रकाशित हुए, जिस दिन कुछ वामपंथी संगठनों की पहल पर २५००० लोगों ने मोगा के पास कोस्सा नामक गाँव में खेतों के बीच समारोह कर गुरशरण सिंह को सम्मानित किया। हालाँकि वामपंथी गुटों की आपस में काफी अनबन है, फिर भी २५००० लोगों का एक नाटककार को सम्मानित करना अपने आप में एक अद्भुत घटना है। सोचिए कि यह खबर किसी मुख्यधारा के अखबार या दृश्य मीडिया में नहीं आई। गुरशरण सिंह भी अपने आप में दुल्ला भट्टी जैसा एक प्रतीक बन गए हैं, जिन्होंने कभी किसी राजनैतिक ताकत की परवाह नहीं की और सरकार और आतंकवादियों के खिलाफ हिम्मत और असंभव साहस के साथ गाँव गाँव जाकर नाटक के जरिए संघर्ष किया। ५८ वर्षों से लगातार नाटक क्षेत्र में सक्रिय रहकर पंजाब में नाटकों के कई आंदोलन उन्होंने खड़े किए। वैसे तो उन्हें राष्ट्रीय संगीत अकादमी के कालिदास सम्मान जैसे कई पुरस्कार मिले हैं, पर जो स्नेह उन्हें पंजाब के गाँवों में नाटक खेलते हुए लोगों के विशाल हुजूमों से मिलता है, वह मैंने एक दो बार देखा है और मैं कह सकता हूँ एक कलाकार के लिए लोगों की ऐसी स्वतःस्फूर्त्त भावनाएं मैंने कहीं और नहीं देखीं।



जिस तरह दुल्ला भट्टी सदियों तक पंजाब के लोक मानस में अन्याय के खिलाफ लड़ने का प्रतीक बना रहा, उसी तरह भ्रा जी या बाबा मन्ना सिंह नाम से भी जाने जाने वाले गुरशरण सिंह के लिए जुग जुग जीने की सदाएं उस दिन कोस्सा में गूँजती रहीं। मेरे युवा फिल्मकार मित्र दलजीत अमी ने इस घटना को रेकॉर्ड किया है। चंडीगढ़ छोड़कर जाते हुए सबसे अधिक याद आने लोगों में भ्रा जी होंगे। उनसे मिला स्नेह मेरी बहुत बड़ी पूँजी है। दस बारह साल पहले एकबार उन्होंने मुझे पंजाबी लेखकों की रचनाएं हिंदी में अनुवाद करने को कहा था। उस सिलसिले में मैंने कुछेक कहानियाँ अनुवाद की थीं, जो साक्षात्कार, जनसत्ता आदि पत्र-पत्रिकाओं में आई थीं।
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पाखी के साइकिल सीखने की कहानी और इस पर आई टिप्पणियों से मैं भी भावुक हुआ हूँ और कभी अपनी साइकिल कथा भी लिखूँगा - आज नहीं।

5 comments:

Atul Arora said...

आपकी अनुदित कहानियों के इंटरनेट पर आने का इंतजार रहेगा। लोहड़ी के वर्णन और गाँवो में नाटकाकर के सम्मान से यही लगा कि महानगरों और चैनलों पर जो तथाकथित अपसंस्कृति के हमलों का जिक्र है, जो पाश्चात्य सब्यता के अँधानुकरण का स्यापा है वह वहीं तक सीमित है, गाँव व कस्बों में अपना भारत अभी भी जिंदा है।

मसिजीवी said...

रूमानियत मेरे हाजमे से कुछ ज्‍यादा रही पर फिर भी कलम (कीबोर्ड) की सहजता व सटीकता वही है।

Sunil Deepak said...

दुल्ला भट्टी वाला के गीत के लिए शुक्रिया. पिछले दिनों दिल्ली में लोहड़ी का नाम सुन कर मैंने भी यह गीत याद करने की कोशिश की थी पर पहली दो लाईने ही याद कर पाया था, हालाँकि बिल्कुल पूरा गीत जैसा आप ने दिया है, वैसा तो मुझे कभी भी नहीं आता था.
गुरुशरण सिंह जी आदि के बारे में पढ़ कर कुछ सहारा मिला. दिल्ली में हिंदी के बारे में अगर लोकसक्ता जैसे समाचारपत्र देखें तो हालत बहुत निराशाजनक लगती है पर शायद उत्तरप्रदेश या मध्यप्रदेश के गाँवों में भी ऐसे उदाहरण होंगे जिनसे कुछ आशा बनी रहे!

Ek ziddi dhun said...

जो ताकतें लोक उत्सवों को एक खास ढंग की मस्ती में तब्दील कर रही हैं, वही प्रतिरोध की संस्कृति की स्मृति का लोप करने का काम कर रही हैं। पंजाबी कल्चर के नाम पर इस वक्त जो मोटे तौर पर पोपुलर है, बदकिस्मती से उसमें वल्गरिटी का बौलबाला काफी है। लोहड़ी जैसे पारंपरिक उत्सव भी इसका शिकार हुए ही हैं। ऐसे माहौल में भी पंजाब की जनता में गुरुशरण सिंह जैसे संस्कृतिकर्मी को नायक का दर्जा हासिल होना और यह बाकायदा पंजाबी अखबार में भी दर्ज होना मामूली बात नहीं है। आपने बात को गुरुशरण सिंह से जोड़कर संस्कृति और परंपरा के सही अर्थ सामने रखे हैं।

परमेन्द्र सिंह said...

पंजाबी संस्कृति के मूल में पहुँचे हैं आप। अच्छा लगा, वरना पंजाबी गीत-संगीत का अर्थ भौंडे रीमिक्स और अश्लील नृत्यों तक ही सिमटकर रह गया है। पंजाबी संस्कृति मतलब कनाडा वाली पंजाबी कल्चर हो गया है। बहुत महत्वपूर्ण लेख है आपका। बहुत आश्वस्त हुआ मन। वास्तव में लोहड़ी की बधाई आपने दी है।