Friday, January 13, 2006

जिस दिन गोली चली

जिस दिन गोली चली

दिल्ली हवाई अड्डे पर अपने मोबाइल का इस्तेमाल तो कर ही रहा था, बंगलौर और हैदराबाद बतलाना था कि मैं नहीं भी पहुँच सकता हूँ। इसी बीच बड़ा दिन यानी कि क्रिसमस की शुभकामनाओं के संदेश आने शुरु हो गए। हर ऐसे फ़ोन के लिए मुझे रोमिंग का जुर्माना पड़ना था। तंग आकर निर्णय लिया कि हफ्ते भर तक मोबाइल बंद।

जिस दिन टाटा ऑडिटोरियम के बाहर कान्फरेंस से निकलते लोगों पर गोलियाँ चलाई गईं, उस वक्त मैं अपने मेजबान वैज्ञानिक प्रोफेसर साहब के साथ शाम की सैर कर रहा था। थोड़ी देर पहले उनके घर पर चाय-शाय ली थी और फिर सैर करते हुए वापस लैब की ओर जाने की योजना थी। एक बार मुझे लगा कि कहीं पटाखे फटने की आवाज आ रही है। पीछे दो तीन दिनों से रात को ढंग से सो नहीं पा रहा था क्योंकि कहीं शादी वादी में नादस्वरम और पटाखे देर रात तक बज रहे थे। थोड़ी देर बाद दफ्तर से लौट के मुख्य अतिथि गृह में आया और कार्नेगी मेलन से आए डिज़ाइन के प्रोफेसर सुब्रह्मण्यन ईश्वरन और तोक्यो से आए गणना विशेषज्ञ जेम्स के साथ डाइनिंग हाल में बैठा गपशप कर रहा था। परिचारक कुमार ने आकर बतलाया कि किसी मेहमान के लिए फ़ोन आया था और फ़ोन करने वाला पूछ रहा था कि टाटा ऑडिटोरियम के बाहर गोली चलने वाली खबर सही है क्या।

थोड़ी ही देर में पता चला कि वाकई गोली चली है। सुब्रह्मण्यन ने कहा कि वे दफ्तर में बैठे हुए थे और पटाखों की आवाज़ सुनाई पड़ी थी। मुझे भी अपना अनुभव याद आया। फिर लाउंज में टेलीविज़न पर खबर फ्लैश होने लगी और लोग इकट्ठे होकर सुनने लगे। मुझे लगा कि यह साल की सबसे दुखद घटना है क्योंकि एक ही जगह बची थी जहाँ स्वच्छंद अकादमिक परिवेश था - अब वह भी चला जाएगा। मैंने आतंक का सामना करने के लिए पुलिस के प्रबंधों को चंडीगढ़ में रहते हुए लंबे समय तक झेला है और इस बात से वाकिफ हूँ कि किस तरह आम आदमी ऐसी परिस्थिति में लगातार परेशानियों को जीता है। साथ ही एक बुज़ुर्ग वैज्ञानिक प्रोफेसर पुरी की मौत और प्रोफेसर चंद्रू के आहत होने की खबर का सदमा था।

फिर ध्यान आया कि लोग मुझे संपर्क करने की कोशिश कर रहे होंगे। मैंने तो फ़ोन बंद करके रखा है। खाना खाकर तुरंत दफ्तर जाकर सबको ई-मेल भेजी और लैंडलाइन पर संपर्क का तरीका बतलाया। फिर परिवार के लोगों को खुद ही फ़ोन किया और बतलाया कि ठीक ठाक हूँ। फिर बेचैनी में दुबारा दफ्तर आकर शोध कर रहे विद्यार्थियों से बात करता रहा। भारतीय विज्ञान संस्थान में टाटा ऑडिटोरियम वाला हिस्सा मुख्य कैंपस से अलग है और बीच में से व्यस्त ट्रैफिक वाली एक सड़क जाती है। सड़क के नीचे से सबवे सा है और इधर से उधर जाना आना लगा ही रहता है। खास तौर पर मल्लेश्वरम की ओर जाने वाले लोग ट्रैफिक से बचने के लिए अक्सर इसी सबवे का इस्तेमाल कर टाटा ऑडिटोरियम के पास से निकल कर दूसरी तरफ के गेट से निकल जाते हैं। मुख्य कैंपस की ओर जहाँ सबवे शुरु होता है वहीं चाय कॉफी पीने के अड्डे हैं। उस रात मैं रीसर्च स्कालर्स के साथ चाय पीने के लिए गया तो कोई खास सुरक्षा की कड़ाई नहीं थी।

अगले कई दिनों तक कैंपस में इस घटना पर चर्चा चलती रही। यहाँ इसके पहले एक ही बार सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठे थे, जब चीन के प्रधान मंत्री के आने पर तिब्बती प्रदर्शनकारियों ने जबरन तिब्बती झंडा फहराया था। चंडीगढ़ में इतने साल बिताकर हालांकि मेरे लिए यह इतनी बड़ी घटना नहीं होनी चाहिए, पर अवसाद में मेरा भी मन डूबा हुआ था। प्रोफेसर पुरी के साथ आई आई टी दिल्ली से आई कुछ महिला अतिथियों की जुबान से आँखों देखा हाल मैं सुन चुका था। बार बार मेरी कल्पना में दृश्य आते और मैं सोचता कि आखिर क्यों? सरकार के कई दावों के बावजूद अभी तक इस घटना की गुत्थी खुली नहीं है और लगता नहीं कि जल्दी ही कुछ पता चलेगा। अच्छी बात यह है कि देश के सबसे उच्चस्तर के वैज्ञानिक शोध संस्थाओं में से होने पर भी यहाँ के वैज्ञानिकों ने इस घटना का कोई असर अपने काम पर पड़ने नहीं दिया है।

नए साल की पूर्व संध्या पर कैंपस में अलग अलग समूहों में बच्चों और बड़ों ने पार्टियाँ कीं - बस टेम्पो जरा ढीला था। यह मानव जीवन है। एक जीवन खत्म होता है। औरों के लिए महज एक घटना होती है। मैं भी अपने मित्रों के साथ एक पार्टी में था और आधी रात बाद नए साल को सबके साथ मैंने भी - चुपचाप ही सही सलामी दी।
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आज पंजाब में लोहड़ी मनाई जा रही है। तकरीबन सारे भारत में ही मकर संक्रांति का यह समय किसी न किसी त्यौहार के नाम से मनाया जा रहा है। यहाँ हर विभाग की सोसाइटी की ओर से लकड़ियाँ इकट्टी कर आग जला कर लोहड़ी मनाई जा रही है। हमारे यहाँ इस बार कुछ कार्यक्रम भी थे। अध्यापकों के म्युज़िकल चेयर वाले आइटेम में मेरा भी नाम (लॉटरी से) आया था पर मैं तब तक पहुँचा नहीं था। बाद में उल्टे सीधे ग्लास सजाने की प्रतियोगिता में नाम आ ही गया तो शायद सबसे कम रुचि के साथ शामिल होने की वजह से मैं जीत ही गया और एक लिखने की डायरी मिल गई। नाचने में अध्यापकों को आमंत्रित नहीं किया जाता, यह दुःख रह गया, पर डायरी और पारंपरिक रस्म अनुसार मूँगफली और रेवड़ियाँ, गजक आदि चबाते हुए लौट आया।

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प्रत्यक्षा, यह पाखी के लिएः-

समीना ने सीखा साइकिल चलाना

समीना ने चलना सीखा
कब की बात हो गई
समीना ने बोलना सीखा
कब की बात हो गई
समीना ने पढ़ना सीखा
कब की बात हो गई

अब समीना सरकेगी सड़क पर
साइकिल पर बैठ

दो ओर लगे सुनील शबनम
बीच बैठी समीना
पहले तो डर का सरगम
फिर धीरे धीरे आई हिम्मत
थामा स्टीयरिंग कसकर
फिर दो चार बार गिरकर
जब लगी चोट जमकर
समीना थोड़ी शर्माई

दो एक बार घंटी भी आजमाई
क्रींग क्रींग की धूम मचाई
देर सबेर पेडल घुमाया ठीक ठाक
सबने देखी समीना की साइकिल की धाक

समीना ने साइकिल चलाना सीखा

कब की बात हो गई।
('भैया ज़िंदाबाद' संग्रह से- १९९५)

1 comment:

Pratyaksha said...

ये कविता पाखी को सुनाऊँगी. कल असके लिये एक बालगीत लिखा जिसे पढ कर उसे बहुत हँसी आई.कविताओं में उसकी दिलचस्पी बढ रही है. कई बार कॉपी लेकर बैठती है. पूचने पर गंभीरता से कहती है, कविता लिख रही हूँ .
प्रत्यक्षा