काफी दिनों के बाद मैनें शायदा का ब्लॉग 'उनींदरा' पढ़ा.
हाल के अपने एक पोस्ट में उसने फेसबुक से उद्धृत काश्मीर की एक घटना के बारे में लिखा है, जिसमें किसी नें यह लिखा कि भारतीय सिपाहियों ने एक सात साल के बच्चे को क्रूरता से पीट कर मार दिया. शायदा ने इस बात को नज़रंदाज़ करते हुए कि फेसबुक की कहानी सच्ची नहीं भी हो सकती है और इस बात पर ध्यान देते हुए कि एक बच्चे की मौत के बारे में हमें सोचना चाहिए कुछ बातें लिखीं. इस पोस्ट पर कोई बयालीस टिप्पणियां हैं, जिनमें कुछ शायदा के जवाब हैं जो उसने औरों की टिप्पणियों के दिए हैं. जैसा कि अपेक्षित है, कई लोगों ने उसे नसीहत दी कि उसे फेसबुक की कहानी को सच नहीं मानना चाहिए और इस तरह भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों के खिलाफ प्रोपागांडा को बढ़ावा नहीं देना चाहिए. शायदा बार बार यही लिखती रही कि मैं बच्चे की मौत से दुखी हूँ, पर देशभक्तों की पीड़ा बार बार बात को कहीं और ले जाती रही. एक किसी मेजर ने यह लिखा कि वह तकरीबन इस घटना का चश्मदीद गवाह है और सचमुच हुआ यह कि फ़ौज के लोगों ने बच्चे को उठाया और अस्पताल पहुँचाया जहां उसकी मौत हुई.
आज के समय की ख़ास बात यह है कि एक ही घटना को लेकर कई सच निर्मित हो सकते हैं और बड़ी जल्दी ही इनमें से हर एक दूसरे से बेहतर और ज्यादा बड़ा सच बन सकता है. पर कुछ बातें शाश्वत सच होतीं हैं. आश्चर्य यह होता है कि कई लोग उनको मानते या नहीं देख सकते. जैसे कई दोस्तों को यह भ्रम है कि भारत की सेना में कोई ऐसी खासियत है उसे जो उसे पकिस्तान और अन्य दीगर मुल्कों की सेनाओं से ज्यादा मानवीय बनाती है. जब कि सच यह है कि सेना में कोई भी किसी महान इंसान बनने के इरादे से नहीं जाता, सैनिकों को एक ही बात समझाई जाती है कि उन्हें एक देश नामक कुछ के लिए लड़ना है. नीचे के तबके के सैनिकों को लगभग अमानवीय हालतों में रहकर और लगातार अफसरों की अश्लील गाली गलौज सुनते रहकर काम करना पड़ता है.
यही हाल पुलिस या अर्ध सैनिक बलों का भी है. जिसने भी कभी पुलिस या सेना के सिपाहियों के साथ कुछ समय बिताया है वे जानते हैं कि उनकी भाषा और व्यवहार में अमानवीय तत्व कितने ज्यादा हैं. एक जज की कही वह बात तो अब मुहावरा ही बन गयी है कि देश में सबसे संगठित अपराधी गिरोह पुलिस तंत्र है. शायद गूगल खोज करते ही इस पर विस्तार से पढ़ने को मिल जाए.
सेनाएँ हिन्दोस्तान में या पकिस्तान में कहीं भी मानवता की रक्षा करने के लिए नहीं बनाई जातीं. देश नामक अमूर्त कुछ के लिए मरना और कुछ भी हो आखिर है तो मरना ही. इस सत्य की भयावहता अपने आप में ही अमानवीय है - इसलिए जब तनाव तीव्र हो तो सिपाही इधर का हो या उधर का हो, वह एक क्रूर दानव ही होता है. इसके अनगिनत उदहारण हमारे मुल्क में हैं. मणिपुर से सेना हटाने की लम्बी मांग ऐसे ही नहीं रही है. सच यह है कि हर इंसान में दानव बनने की संभावना होती है - सेनाओं का वजूद इसी संभावना पर टिका है. जब हम किसी एक सेना को दूसरी सेना से बेहतर मानते हैं, हमारे अन्दर भी एक दानव ही बोल रहा होता है.
हावर्ड ज़िन जो यहूदी था और जर्मनी के खिलाफ लड़ा, उसने अपने एक प्रसिद्ध साक्षात्कार में कहा था 'there are no just wars'. सेनाओं की विलुप्ति में ही मानव की भलाई है.
राक्षस
अंदर तुम्हारे एक राक्षस है
छोटा बड़ा हिटलर बौखलाया स्टालिन
छोटे बच्चों को पीटता गली का दादा
विहग सुमन मानव
जानोगे
जब जानोगे
अंदर तुम्हारे है एक राक्षस।
हाल के अपने एक पोस्ट में उसने फेसबुक से उद्धृत काश्मीर की एक घटना के बारे में लिखा है, जिसमें किसी नें यह लिखा कि भारतीय सिपाहियों ने एक सात साल के बच्चे को क्रूरता से पीट कर मार दिया. शायदा ने इस बात को नज़रंदाज़ करते हुए कि फेसबुक की कहानी सच्ची नहीं भी हो सकती है और इस बात पर ध्यान देते हुए कि एक बच्चे की मौत के बारे में हमें सोचना चाहिए कुछ बातें लिखीं. इस पोस्ट पर कोई बयालीस टिप्पणियां हैं, जिनमें कुछ शायदा के जवाब हैं जो उसने औरों की टिप्पणियों के दिए हैं. जैसा कि अपेक्षित है, कई लोगों ने उसे नसीहत दी कि उसे फेसबुक की कहानी को सच नहीं मानना चाहिए और इस तरह भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों के खिलाफ प्रोपागांडा को बढ़ावा नहीं देना चाहिए. शायदा बार बार यही लिखती रही कि मैं बच्चे की मौत से दुखी हूँ, पर देशभक्तों की पीड़ा बार बार बात को कहीं और ले जाती रही. एक किसी मेजर ने यह लिखा कि वह तकरीबन इस घटना का चश्मदीद गवाह है और सचमुच हुआ यह कि फ़ौज के लोगों ने बच्चे को उठाया और अस्पताल पहुँचाया जहां उसकी मौत हुई.
आज के समय की ख़ास बात यह है कि एक ही घटना को लेकर कई सच निर्मित हो सकते हैं और बड़ी जल्दी ही इनमें से हर एक दूसरे से बेहतर और ज्यादा बड़ा सच बन सकता है. पर कुछ बातें शाश्वत सच होतीं हैं. आश्चर्य यह होता है कि कई लोग उनको मानते या नहीं देख सकते. जैसे कई दोस्तों को यह भ्रम है कि भारत की सेना में कोई ऐसी खासियत है उसे जो उसे पकिस्तान और अन्य दीगर मुल्कों की सेनाओं से ज्यादा मानवीय बनाती है. जब कि सच यह है कि सेना में कोई भी किसी महान इंसान बनने के इरादे से नहीं जाता, सैनिकों को एक ही बात समझाई जाती है कि उन्हें एक देश नामक कुछ के लिए लड़ना है. नीचे के तबके के सैनिकों को लगभग अमानवीय हालतों में रहकर और लगातार अफसरों की अश्लील गाली गलौज सुनते रहकर काम करना पड़ता है.
यही हाल पुलिस या अर्ध सैनिक बलों का भी है. जिसने भी कभी पुलिस या सेना के सिपाहियों के साथ कुछ समय बिताया है वे जानते हैं कि उनकी भाषा और व्यवहार में अमानवीय तत्व कितने ज्यादा हैं. एक जज की कही वह बात तो अब मुहावरा ही बन गयी है कि देश में सबसे संगठित अपराधी गिरोह पुलिस तंत्र है. शायद गूगल खोज करते ही इस पर विस्तार से पढ़ने को मिल जाए.
सेनाएँ हिन्दोस्तान में या पकिस्तान में कहीं भी मानवता की रक्षा करने के लिए नहीं बनाई जातीं. देश नामक अमूर्त कुछ के लिए मरना और कुछ भी हो आखिर है तो मरना ही. इस सत्य की भयावहता अपने आप में ही अमानवीय है - इसलिए जब तनाव तीव्र हो तो सिपाही इधर का हो या उधर का हो, वह एक क्रूर दानव ही होता है. इसके अनगिनत उदहारण हमारे मुल्क में हैं. मणिपुर से सेना हटाने की लम्बी मांग ऐसे ही नहीं रही है. सच यह है कि हर इंसान में दानव बनने की संभावना होती है - सेनाओं का वजूद इसी संभावना पर टिका है. जब हम किसी एक सेना को दूसरी सेना से बेहतर मानते हैं, हमारे अन्दर भी एक दानव ही बोल रहा होता है.
हावर्ड ज़िन जो यहूदी था और जर्मनी के खिलाफ लड़ा, उसने अपने एक प्रसिद्ध साक्षात्कार में कहा था 'there are no just wars'. सेनाओं की विलुप्ति में ही मानव की भलाई है.
राक्षस
अंदर तुम्हारे एक राक्षस है
छोटा बड़ा हिटलर बौखलाया स्टालिन
छोटे बच्चों को पीटता गली का दादा
विहग सुमन मानव
जानोगे
जब जानोगे
अंदर तुम्हारे है एक राक्षस।
2 comments:
लाल्टू जी
आपसे मैं पूरी तरह सहमत हूँ. लैटिन कवि होरेस [1 - सभी सूत्र अंग्रेज़ी में] लिखते हैं - "कितना मधुर और उचित है अपने देश के लिए मरना"! (Dulce et decorum est pro patria mori [2].)
बीसवीं शताब्दी के पहले महायुद्द में ब्रिटेन के कवि विल्फ़्रेड ओवेन [3] ने होरेस की इस पंक्ती का मज़ाक उड़ाया. मस्टर्ड गैस [4] से भयंकर मौत का वर्णन देकर ओवेन कहते हैं:
अगर तुम... वो देखते, दोस्त
तो इतने जोश से ना कहते
थोड़ी सी महिमा पे उतारू बच्चों को
वो पुराना झूट: "कितना मधुर और उचित है
अपने देश के लिए मरना".
("Dulce et Decorum Est", 1917/1920 [5])
कमाल है कि एक कथित रूप से संवेदनशील कवि भी ऐसा नजरिया रखता है...पूरे सैनिकों को राक्षसप्रवृति वाला बताते हुये।
काश कि आप मणिपुर और कश्मीर का दूसरा सच भी देख पाते...!!!
Post a Comment