'शिक्षा' और 'विद्या' में फर्क है। विद्या मानव में निहित ज्ञान अर्जन की क्षमता है, अपने इर्द गिर्द जो कुछ भी हो रहा है, उस पर सवाल उठाने की प्रक्रिया और इससे मिले सम्मिलित ज्ञान का नाम है। शिक्षा एक व्यवस्था की माँग है। अक्सर विद्या और शिक्षा में द्वंद्वात्मक संबंध होता है, होना ही चाहिए। शिक्षा हमें बतलाती है राजा कौन है, प्रजा कौन है। कौन पठन पाठन करता है, कौन नहीं कर सकता आदि। तो फिर हम शिक्षा पर इतना जोर क्यों देते हैं। व्यवस्था के अनेक विरोधाभासों में एक यह है कि शिक्षा के औजार विद्या के भी औजार बन जाते हैं। जो कुछ अपने सीमित साधनों तक हमारे पास नहीं पहुँचता, शिक्षित होते हुए ऐसे बृहत्तर साधनों तक की पहुँच हमें मिलती है।
जब हम जन्म लेते हैं, बिना किसी पूर्वाग्रह के ब्रह्मांड के हर रहस्य को जानने के लिए हम तैयार होते हैं। उम्र जैसे जैसे बढ़ती है, माँ-बाप, घर परिवार, समाज के साथ साथ शिक्षा व्यवस्था हमें यथा-स्थिति में ढालती है। इसलिए औपचारिक शिक्षा में पूर्व ज्ञान का इस्तेमाल वैकल्पिक कहलाता है। औपचारिक शिक्षा में भाषा हमारी भाषा नहीं होती, गणित हमारे अनुभव से दूर का होता है, परिवेश कृत्रिम होता है। औपचारिक शिक्षा धीरे धीरे हमें अपने आदिम स्वरुप से दूर ले जाती है और व्यवस्था की माँग के अनुसार ढालती है। साथ साथ अपने नैसर्गिक गुणों की ताकत से संघर्ष करते हुए उसी कागज कलम किताब अखबार रसालों की मदद से विद्या अर्जन करते हैं। युवावस्था में जब हम अपने जैविक स्वरुप में पूरी तरह विकसित होते हैं, 'शिक्षा' और 'विद्या' में संघर्ष तीव्र होता है। धीरे धीरे असुरक्षाओं से डरते हुए और समझौते करते हुए हम शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देने लगते हैं और विद्या को अप्रासंगिक मानने लगते हैं। इसलिए कोई माँ-बाप बच्चों को संघर्ष के लिए सड़क पर उतरने को नहीं कहता और इसलिए बड़े हमेशा बच्चों से यही कहते हैं कि कि फलाँ पढ़ो और फलाँ बनो।
हमारा समय लोकतांत्रिक सोच के अस्तित्व के संघर्ष का समय है। शिक्षा का सवाल इससे अछूता नहीं रह सकता। जब हम शिक्षा के लिए उचित साधनों या आर्थिक निवेश की बात करते हैं या जब हम बेहतर लोगों के शिक्षा क्षेत्र में आने की बात करते हैं, हमारे ध्यान में यह भी होता है कि शिक्षा के औजारों का इस्तेमाल अधिक से अधिक विद्या के औजारों की तरह हो। शिक्षा की पद्धति में परिवर्त्तन की लड़ाई भी यही लड़ाई है। हर वह प्राथमिक शाला का शिक्षक जो यह माँग कर रहा है कि बच्चों को अनुशासन नहीं कहानी पढ़ना लिखना सिखाना है, वह यही लड़ाई लड़ रहा है। प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक, पेडागोजी से लेकर शोध तक हर स्तर पर यह संघर्ष है। जिन्हें आज की अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था से संतोष है, वे शिक्षा में सुधार से घबराते हैं। यह बात है तो अजीब - पर मेरा यह मानना है कि जब मैं एक विद्यार्थी को एक वैज्ञानिक सिद्धांत समझने के लिए स्वतः पुस्तकालय दौड़ने के लिए मजबूर करता हूँ तो मैं उसे देर सबेर हर कहीं यथा-स्थिति को मानने से इन्कार करने को मजबूर करता हूँ।
जब हम जन्म लेते हैं, बिना किसी पूर्वाग्रह के ब्रह्मांड के हर रहस्य को जानने के लिए हम तैयार होते हैं। उम्र जैसे जैसे बढ़ती है, माँ-बाप, घर परिवार, समाज के साथ साथ शिक्षा व्यवस्था हमें यथा-स्थिति में ढालती है। इसलिए औपचारिक शिक्षा में पूर्व ज्ञान का इस्तेमाल वैकल्पिक कहलाता है। औपचारिक शिक्षा में भाषा हमारी भाषा नहीं होती, गणित हमारे अनुभव से दूर का होता है, परिवेश कृत्रिम होता है। औपचारिक शिक्षा धीरे धीरे हमें अपने आदिम स्वरुप से दूर ले जाती है और व्यवस्था की माँग के अनुसार ढालती है। साथ साथ अपने नैसर्गिक गुणों की ताकत से संघर्ष करते हुए उसी कागज कलम किताब अखबार रसालों की मदद से विद्या अर्जन करते हैं। युवावस्था में जब हम अपने जैविक स्वरुप में पूरी तरह विकसित होते हैं, 'शिक्षा' और 'विद्या' में संघर्ष तीव्र होता है। धीरे धीरे असुरक्षाओं से डरते हुए और समझौते करते हुए हम शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देने लगते हैं और विद्या को अप्रासंगिक मानने लगते हैं। इसलिए कोई माँ-बाप बच्चों को संघर्ष के लिए सड़क पर उतरने को नहीं कहता और इसलिए बड़े हमेशा बच्चों से यही कहते हैं कि कि फलाँ पढ़ो और फलाँ बनो।
हमारा समय लोकतांत्रिक सोच के अस्तित्व के संघर्ष का समय है। शिक्षा का सवाल इससे अछूता नहीं रह सकता। जब हम शिक्षा के लिए उचित साधनों या आर्थिक निवेश की बात करते हैं या जब हम बेहतर लोगों के शिक्षा क्षेत्र में आने की बात करते हैं, हमारे ध्यान में यह भी होता है कि शिक्षा के औजारों का इस्तेमाल अधिक से अधिक विद्या के औजारों की तरह हो। शिक्षा की पद्धति में परिवर्त्तन की लड़ाई भी यही लड़ाई है। हर वह प्राथमिक शाला का शिक्षक जो यह माँग कर रहा है कि बच्चों को अनुशासन नहीं कहानी पढ़ना लिखना सिखाना है, वह यही लड़ाई लड़ रहा है। प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक, पेडागोजी से लेकर शोध तक हर स्तर पर यह संघर्ष है। जिन्हें आज की अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था से संतोष है, वे शिक्षा में सुधार से घबराते हैं। यह बात है तो अजीब - पर मेरा यह मानना है कि जब मैं एक विद्यार्थी को एक वैज्ञानिक सिद्धांत समझने के लिए स्वतः पुस्तकालय दौड़ने के लिए मजबूर करता हूँ तो मैं उसे देर सबेर हर कहीं यथा-स्थिति को मानने से इन्कार करने को मजबूर करता हूँ।
1 comment:
shreeman ji lekh gyanvardhak he . mere vichar se shisha ka udshyay personlity devlopment hona chhiye . vo mnc vala nahi . varan manav ki sarjnatamak shmtaoo ki abhivardhi or udvikas . net or it k bare me kam janta hoon isliye hindi me nahi lakh paya . shama .
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