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Showing posts from 2019

नि:शब्द झंझा

रंग जो रंग तुमने मुझे दिए वे मेरे कमरे की दीवार पर फैल गए हैं कमीज़ के बटन उनके छींटों से भीगे हैं होमर और फिरदौस को पता था कि बातें इतनी सरल नहीं होती हैं कि रंग बिखेर दिए जाएँ और कहानी खत्म हो जाएगी मेरे तुम्हारे दरमियान जो खला है उसमें से सोच की तरंगें सैर करती हैं हालाँकि रंगों में कुछ ऐसा होता है जिससे खला में कंपन होता है सोच अपने साथ रंग ले जाती है ऐसे ही वक्त के पैमाने पर खोते रहे हैं रंग खला में से सोच ढोती रही उन्हें कुछ सच कुछ झूठ जाने कितने खेल रंगों में रोशनी और अँधेरे के दरमियान खेल चलते रहते हैं किस को पता होता है कि कैसे खेल चलते हैं क्या रंग बिखेरते या समेटते हम जानते हैं कि ज़िंदगी किस मौसम से गुजरती है बहार और पतझड़ का हिसाब ठीक - ठीक रखना और उनके मुताबिक सही रंग बिखेरना हमेशा हो नहीं पाता है हम तड़पते रहते हैं कि सही वक्त पर सही रंग क्यों नहीं बिखेर पाए लगता है मानो एक ही खेल चल रहा है खला को बीच में रख हम चक...

यहाँ

'मधुमती' के ताज़ा अंक में प्रकाशित कविताएँ यहाँ जब गाती हैं तो एक एक कर सभी गाती हैं रुक - रुक कर एक पर एक सवार हो जैसे कौन सी धुन किस चिड़िया की है कैसे कहूँ आँखें तलाशती हैं तो दरख्त दिखते हैं जैसे व्यंग्य सा करते हुए कि क्या कल्लोगे खिड़की तक चला ही जाऊँ तो गिलहरी फुदकती दौड़ती दिखती है उनकी बड़ी दीदी हो मानो दिखने लगता है भरापूरा संसार जब चारों ओर इतनी जंग - मार खिड़की के अंदर से देखता हूँ यहाँ बचा है संसार बची है रात की नींद और दिन भर का घरबार यहाँ।   थकी हुई भोर सुबह हड्डियाँ पानी माँगती हैं पहले खयाल यह कि फिर उठने में देर हो गई है कंबल अभी समेटूँ या बाद में कर लेंगे खिड़की का परदा हटाते हुए एक बार सोचना कि खुला रखते तो जल्दी उठ सकते थे आईना देखे बिना जान लेना कि शक्ल जरा और मुरझा गई है एक और दिन यह कोशिश करनी है कि थोड़ी चमक वापस आ जाए भले ही कल उठने पर वह फिर गायब मिले असल में बु...

सच चारों ओर धुँए सा  फैला है

काश्मीर नींद से जागता हूँ और जानता हूँ कि माँओं की चीखें सपने में नहीं मेरी  खिड़की  पर हैं। सुबह काश्मीर वह सच है जो झूठ है। कुहनियों में चेहरा छुपाए सोचता हूँ कितना बेरहम हो सकता हूँ।  कितनी बदली गई धाराएँ मुझे बेचैनी से बचा सकती हैं। सच चारों ओर धुँए सा  फैला है। सच वे छर्रे हैं जो मेरी उँगलियों के पोरों में धँसे हुए हैं। सच की कोई  ज़रूरत नहीं रह गई है। कितनी बार काश्मीर लिखूँ कोई कविता लिख रहा है कोई तस्वीर बना रहा है कोई आँखें मूँद सोच रहा है काश्मीर। अगस्त सितंबर , धरती अंबर , काश्मीर। अंदर बाहर , जीना मरना , क्यों है ऐसा काश्मीर। काल की शुरुआत काश्मीर ,  काल का अंत काश्मीर। क्या काश्मीर सच बन चुका है ? सच का मतलब क्या है ? सपनों में लाशों पर  उछलते खेलते बच्चों को देखता क्या मैं और नहीं रोऊँगा ? मैं कायनात का  मालिक। मैं सृष्टि मैं स्रष्टा , मैं दृष्टि मैं द्रष्टा , मैं। मैं अगड़म , मैं बगड़म। मैं बम  लहरी बम बम। मैं अनहद सच। एक कुत्ते को भी चैन की...

तीन कविताएँ

ये दो कविताएँ 'मधुमती' में आ रही हैं। तीसरी अप्रकाशित है।  जरा सी गर्द ऐसा नहीं कि तुम अपने शहर से निकलती नहीं हो मेरा शहर है जो तुम्हारी पहुँच से बाहर है तुम्हारे शहर में साँस लेते मैं थक गया हूँ और तुम कहती हो कि मेरी चाहत में गर्द आ बैठी है अपने शहर की जरा सी गर्द भेज रहा हूँ इसकी बू से जानो कि यहाँ की हवा को कब से तुम्हारा इंतज़ार है इसे नज़ाकत से अपने बदन में मल लो यह मेरी छुअन तुम तक ले जा रही है यह सूखी गर्द जानती है कि कितना गीला है मेरा मन इसके साथ बातें करना, इसके गीत सुनना पर इस पर कोई रंग मत छिड़कना यह मेरी तरह संकोची है चूमना मत इसे क़रीब लाकर मेरी साँसों को सुनना पैक करते हुए साँसें साथ क़ैद हो गई थीं और इससे ज्यादा मैं तुम्हें क्या भेज सकता हूँ मेरी साँसों में बसी खुद को महसूस करना इस तरह मुझे अपने में फिर से शामिल कर लेना कभी तुम्हें याद आएगा कि मेरी साँसों को कभी चाहा था खुद से भी ज्यादा तुमने। नींद वे अक्सर सोने से पहले कपड़े बदलते हैं और बीच रात उन्हें कभी सोए कपड़ों को जगाना पड़ता है कि गोलाबारी में सपने घायल न हो जाएँ कोई शाम ...

फिलहाल सुबक लो

सब ठीक हो जाएगा पानी साफ हो जाएगा मसालों में मिलावट नहीं होगी न घर न दफ्तर में तनाव होगा रात होते ही चाँद आ गुफ्तगू करेगा सब ठीक हो जाएगा बसंत साथ घर में रहने लगेगा गर्मी कभी भटकती - सी आकर मिल जाएगी खिड़की के बाहर बारिश रुनझुन गाएगी हमेशा गीत गाओगे जिनमें ताज़ा घास की महक होगी बेवजह मुस्कराते हुए गले मिलोगे दरख्तों से सब ठीक हो जाएगा फिलहाल सुबक लो।      (वागर्थ - 2019)

अंधेरे के चर घर-घर आ बैठे हैं

रोशनी की हैसियत थी बसंंत की आहट शाम का अकेलापन चारों ओर शहर। पास एक स्टेडियम से आवाज़ें आ रही हैं बाक़ी दिशाओं से ट्रैफिक का शोर। ऐ धरती इस छंदहीनता से तुम बच नहीं पाओगी , यह खेल खरबों साल पहले तय हो चुका है कि इंसान होगा , शोर होगा , खोखला शहर होगा। हर बेचैन छंद को तोड़ती शोर की लहरें टकराती उमड़ती आती हैं शोर के ज़बर से रोशनी काँपती है खिड़कियाँ दरवाजे हर पल रहम माँगते हैं किसी भी पल अब खत्म हो सकती हो ऐ धरती अँधेरा का अंदेशा लोगों के ज़हन में घर कर गया है याद आता है कि रोशनी की कभी कोई हैसियत थी अब हर कुछ बिक चुका है अंधेरे के चर घर - घर आ बैठे हैं किसी भी पल अब खत्म हो सकती हो , ऐ धरती।   -(वागर्थ 2019)

इस तरह बारहा आज़ाद रहा

(पहला मुक्तक बच्चों की पत्रिका 'चकमक' के ताज़ा अंक में आया है ।) इक चिड़िया देखी, उसे खयालों में रख लिया देखा इक फूल तो सपनों में खूब देखता रहा इस तरह मैं बारहा आज़ाद रहा आस्मां में चिड़िया और बाग़ों में फूल देखता रहा। इक बूँद टपकी कि अटकी मेरे जिस्म में कहीं ऐसा लगा कि कोई जनम ले रहा है कहीं इक चाँद मेरे कमरे की छत पर आ बसा है रोशनी कतरा-कतरा ख्वाबों में झूल देखता रहा चाँद ने चेहरा अपना देखा है जब से आईने में यह गोल सा कौन है यूँ पूछा है अपने अक्स से कि नीला-सा गोला जो दूर घूमता है उसके सामने क्यूँ इतराऊँ, जमाने में उसूल देखता रहा। मेरे रूह की आबोहवा बदली-बदली सी है मुझमें कोई और जीता है कोई और मरता है इक पिंजड़े में उल्टा लेटा हूँ गोया क़ैद में महफूज़ सीने में चुभते हैं शूल देखता रहा। परबतों का नील, समंदर की झाग और हवाओं की फरफर हर किसी ने बेसबब लिया जो लिया मेरी धरती को जलाने वाले मुझी में बसर करते हैं आम के दरख्त पर बढ़ते साए में बबूल देखता रहा।

बुने गए इंकलाब और कभी पहने नहीं गए

लक्षणा व्यंजना का जुनून लफ्ज़ लिखे गए बूढ़े हो जाते हैं सफल कवियों की संगत में पलते हैं सफल कवि अकेला कहीं कोई मुगालते में लिखता रहता है घुन हुक्काम - सी लफ्ज़ों को कुतर डालती है जैसे बुने गए इंकलाब और कभी पहने नहीं गए एक दिन सड़क पर फटेहाल घूमता है असफल कवि एक फिल्म बनाकर सब को भेज देता है कि इंकलाबी लफ्ज़ चौक पर बुढ़ापे में काँपते थरथराते सुने गए बरसों बाद कभी इन लफ्ज़ों को एक सफल कवि माला सा सजाता है और कुछ देर लक्षणा व्यंजना का जुनून दूर तक फैल जाता है।             (वागर्थ - 2019)

पल भर में मैं मैं न था

गोया हम ग़फलत में थे समंंदर को जाना जब तेरे जिस्म का खारापन लहरों सा मुझे समेट गया मैं साँस ले रहा था या दाँतों तले जीभ ढूँढ रहा था समंदर कब टुकड़ों में बँटा कब मैं किस नौका पर बैठा मुझमें कौन से बच्चे रो रहे थे मैं बहा जा रहा था सारी कायनात में तू और मैं  पल भर में मैं मैं न था ग्रहों के दरमियान हमारी नौका थी मैं खेता जा रहा था सूरज की ओर जो तेरे अंदर धधक रहा था मैं पिघल रहा था अविरल दूर से आती थी सदियों पहले चली आवाज़ कि इस दिन तुझमें विलीन होना मेरा तय था वह बाँसुरी की धुन थी किस जन्म में किस नीहारिका के गर्भ से निकली किस बाँस की नली के छेदों पर किन उँगलियों के फिसलने से पैदा हुई सपनों में यह सब जान रहा तेरे सीने पर सिर टिकाए गहरी नींद में सोया मैं था न तूने कुछ कहा न मैंने कुछ कहा गोया हम ग़फलत में थे कि मैं कौन और तू कौन कौन सी आँख किसकी और कौन सी साँस किसकी मुझमें खोया तू था और तुझमें खोया मैं था। (वागर्थ - 2019)

अंजान आवाज़ों के पीछे दौड़ता

आखिर में ढाई आखर अंजान आवाज़ों के पीछे दौड़ता रहा हूँ एहसासों में गहरे गड़ता जा रहा हूँ ज़हन में जीवाणुओं का उत्सव बरकरार है कि जिसे संगीत मानकर चला हूँ वह चारों ओर बमबारी का नाद है कौन सा मुल्क है किस मुल्क से लड़ रहा कौन शख्स किससे किस शहर या गाँव में हवा बहती है तूफान सी और पसीना सूखता ही नहीं है देर तक ढूँढता हूँ सही लफ्ज़ जिस्म में कहीं खदबदाहट गुजरती है एक - एक नाखून हो उठता है जीवंत कहीं घंटियाँ बजती हैं बच्चे रोते हैं कि किलकारियाँ हैं बदन में कछ फुरफुराता है अंग - अंग से शाख निकलती है कुछ ढँका जाता कुछ उजागर होता है आखिर में बचते हैं ढाई आखर सिसकियों में खुद से कहता हूँ - प्रेम।     (वागर्थ - 2019)