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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Thursday, November 21, 2019

सच चारों ओर धुँए सा  फैला है


काश्मीर

नींद से जागता हूँ और जानता हूँ कि माँओं की चीखें सपने में नहीं मेरी 

खिड़की पर हैं। सुबह काश्मीर वह सच है जो झूठ है।


कुहनियों में चेहरा छुपाए सोचता हूँ कितना बेरहम हो सकता हूँ। 
कितनी बदली गई धाराएँ मुझे बेचैनी से बचा सकती हैं। सच चारों ओर धुँए सा 
फैला है। सच वे छर्रे हैं जो मेरी उँगलियों के पोरों में धँसे हुए हैं। सच की कोई 
ज़रूरत नहीं रह गई है। कितनी बार काश्मीर लिखूँ

कोई कविता लिख रहा है

कोई तस्वीर बना रहा है

कोई आँखें मूँद सोच रहा है काश्मीर।

अगस्त सितंबर, धरती अंबर, काश्मीर।

अंदर बाहर, जीना मरना, क्यों है ऐसा काश्मीर। काल की शुरुआत काश्मीर

काल का अंत काश्मीर।

क्या काश्मीर सच बन चुका है? सच का मतलब क्या है? सपनों में लाशों पर 

उछलते खेलते बच्चों को देखता क्या मैं और नहीं रोऊँगा? मैं कायनात का 

मालिक। मैं सृष्टि मैं स्रष्टा, मैं दृष्टि मैं द्रष्टा, मैं। मैं अगड़म, मैं बगड़म। मैं बम 

लहरी बम बम। मैं अनहद सच।




एक कुत्ते को भी चैन की मौत चाहिए होती है,

क्या मैं चैन से मर सकता हूँ


जब खिड़की पर बार-बार दस्तक देता काश्मीर। (-उद्भावना 2019)

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1 Comments:

Anonymous Kabir Ke Dohe said...

behtreen rachnaa....great

4:10 PM, December 01, 2019  

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