सच चारों ओर धुँए सा फैला है
काश्मीर
नींद
से जागता हूँ और जानता हूँ कि
माँओं की चीखें सपने में नहीं
मेरी
खिड़की पर हैं। सुबह काश्मीर
वह सच है जो झूठ है।
कुहनियों
में चेहरा छुपाए सोचता हूँ
कितना बेरहम हो सकता हूँ।
कितनी बदली गई
धाराएँ मुझे बेचैनी से बचा
सकती हैं। सच चारों ओर धुँए
सा
फैला है। सच वे छर्रे हैं
जो मेरी उँगलियों के पोरों
में धँसे हुए हैं। सच की कोई
ज़रूरत नहीं रह गई है। कितनी
बार काश्मीर लिखूँ
कोई
कविता लिख रहा है
कोई
तस्वीर बना रहा है
कोई
आँखें मूँद सोच रहा है काश्मीर।
अगस्त
सितंबर,
धरती
अंबर,
काश्मीर।
अंदर
बाहर,
जीना
मरना,
क्यों
है ऐसा काश्मीर। काल
की शुरुआत काश्मीर,
काल
का अंत काश्मीर।
क्या
काश्मीर सच बन चुका है?
सच
का मतलब क्या है?
सपनों
में लाशों पर
उछलते खेलते
बच्चों को देखता क्या मैं और
नहीं रोऊँगा?
मैं
कायनात का
मालिक। मैं सृष्टि
मैं स्रष्टा,
मैं
दृष्टि मैं द्रष्टा,
मैं।
मैं अगड़म,
मैं
बगड़म। मैं बम
लहरी बम बम। मैं
अनहद सच।
एक
कुत्ते को भी चैन की मौत चाहिए
होती है,
क्या
मैं चैन से मर सकता हूँ
Labels: कविता, जनपक्ष, दमन और विरोध
1 Comments:
behtreen rachnaa....great
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