रोशनी
की हैसियत थी
बसंंत
की आहट
शाम
का अकेलापन
चारों
ओर शहर।
पास
एक स्टेडियम से आवाज़ें आ रही
हैं
बाक़ी
दिशाओं से ट्रैफिक का शोर। ऐ
धरती
इस
छंदहीनता से तुम बच नहीं पाओगी,
यह
खेल
खरबों साल पहले तय हो चुका है
कि
इंसान
होगा, शोर
होगा, खोखला
शहर होगा।
हर
बेचैन छंद को तोड़ती शोर की
लहरें
टकराती
उमड़ती आती हैं
शोर
के ज़बर से रोशनी काँपती है
खिड़कियाँ
दरवाजे हर पल रहम माँगते हैं
किसी
भी पल अब खत्म हो सकती हो ऐ धरती
अँधेरा
का अंदेशा लोगों के ज़हन में
घर कर गया है
याद
आता है कि रोशनी की कभी कोई
हैसियत थी
अब
हर कुछ बिक चुका है
अंधेरे
के चर घर-घर
आ बैठे हैं
किसी
भी पल अब खत्म हो सकती हो,
ऐ धरती। -(वागर्थ 2019)
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