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इस तरह बारहा आज़ाद रहा

(पहला मुक्तक बच्चों की पत्रिका 'चकमक' के ताज़ा अंक में आया है ।)

इक चिड़िया देखी, उसे खयालों में रख लिया

देखा इक फूल तो सपनों में खूब देखता रहा

इस तरह मैं बारहा आज़ाद रहा

आस्मां में चिड़िया और बाग़ों में फूल देखता रहा।



इक बूँद टपकी कि अटकी मेरे जिस्म में कहीं

ऐसा लगा कि कोई जनम ले रहा है कहीं

इक चाँद मेरे कमरे की छत पर आ बसा है

रोशनी कतरा-कतरा ख्वाबों में झूल देखता रहा



चाँद ने चेहरा अपना देखा है जब से आईने में

यह गोल सा कौन है यूँ पूछा है अपने अक्स से

कि नीला-सा गोला जो दूर घूमता है उसके

सामने क्यूँ इतराऊँ, जमाने में उसूल देखता रहा।



मेरे रूह की आबोहवा बदली-बदली सी है

मुझमें कोई और जीता है कोई और मरता है

इक पिंजड़े में उल्टा लेटा हूँ गोया

क़ैद में महफूज़ सीने में चुभते हैं शूल देखता रहा।



परबतों का नील, समंदर की झाग और हवाओं की फरफर

हर किसी ने बेसबब लिया जो लिया

मेरी धरती को जलाने वाले मुझी में बसर करते हैं

आम के दरख्त पर बढ़ते साए में बबूल देखता रहा।

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