आखिर में
ढाई आखर
अंजान
आवाज़ों के पीछे दौड़ता रहा
हूँ
एहसासों
में गहरे गड़ता जा रहा हूँ
ज़हन
में जीवाणुओं का उत्सव बरकरार
है
कि
जिसे संगीत मानकर चला हूँ
वह
चारों ओर बमबारी का नाद है
कौन
सा मुल्क है किस मुल्क से लड़
रहा
कौन
शख्स किससे किस शहर या गाँव
में
हवा
बहती है तूफान सी
और
पसीना सूखता ही नहीं है
देर
तक ढूँढता हूँ सही लफ्ज़
जिस्म
में कहीं खदबदाहट गुजरती है
एक-एक
नाखून हो उठता है जीवंत
कहीं
घंटियाँ बजती हैं
बच्चे
रोते हैं कि किलकारियाँ हैं
बदन
में कछ फुरफुराता है
अंग-अंग
से शाख निकलती है
कुछ
ढँका जाता कुछ उजागर होता है
आखिर
में बचते हैं ढाई आखर
सिसकियों
में खुद से कहता हूँ -
प्रेम। (वागर्थ - 2019)
Comments