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तीन कविताएँ

ये दो कविताएँ 'मधुमती' में आ रही हैं। तीसरी अप्रकाशित है। 

जरा सी गर्द

ऐसा नहीं कि तुम अपने शहर से निकलती नहीं हो
मेरा शहर है जो तुम्हारी पहुँच से बाहर है
तुम्हारे शहर में साँस लेते मैं थक गया हूँ
और तुम कहती हो कि मेरी चाहत में गर्द आ बैठी है

अपने शहर की जरा सी गर्द भेज रहा हूँ
इसकी बू से जानो कि यहाँ की हवा को कब से तुम्हारा इंतज़ार है
इसे नज़ाकत से अपने बदन में मल लो
यह मेरी छुअन तुम तक ले जा रही है

यह सूखी गर्द जानती है कि कितना गीला है मेरा मन
इसके साथ बातें करना, इसके गीत सुनना
पर इस पर कोई रंग मत छिड़कना
यह मेरी तरह संकोची है

चूमना मत
इसे क़रीब लाकर मेरी साँसों को सुनना
पैक करते हुए साँसें साथ क़ैद हो गई थीं
और इससे ज्यादा मैं तुम्हें क्या भेज सकता हूँ
मेरी साँसों में बसी खुद को महसूस करना
इस तरह मुझे अपने में फिर से शामिल कर लेना

कभी तुम्हें याद आएगा
कि मेरी साँसों को कभी चाहा था
खुद से भी ज्यादा तुमने।

नींद

वे अक्सर सोने से पहले कपड़े बदलते हैं
और बीच रात उन्हें कभी सोए कपड़ों को जगाना पड़ता है
कि गोलाबारी में सपने घायल न हो जाएँ

कोई शाम महक लिए आती है
जरा सी छुअन को आतुर कोई पागल गीत गाता है
कोई चारों ओर के मलबे में से उफनती आती
हसरत के घूँट पीता है

नींद उनको भी आती है जो
जंग के माहौल में पलते हैं। 


**********

जन्नत का चौकीदार

नाम रिज़वान है
मैंने हाल में जाना है कि वह जन्नत का चौकीदार है
छोटी उम्र में मोटी काँच की ऐनक पहनी है

और बच्चों की तरह वह
कंचों से खेलता है
हर कंचे में रंगों की भरी-पूरी कायनात है
उसके लिए धीरे-धीरे कायनात को खुलना है
खेलता हुआ रुक कर उँगलियों में मिट्टी दबाता है
अचरज से चूर-चूर मिट्टी के कण देखता है

जिस्म पर मिट्टी रगड़ते हुए
जाने किन बड़े सवालों को
ज़हन के पोरों में रोप रहा है
हम उसे खेलते देखते हैं
हमारी सोच और समझ फिलहाल कुछ रंगों पर अटकी है
जो उसकी शर्ट पर जड़े हैं जैसे छत्ते पर मधुमक्खियाँ हों

कुछ है जो हमें तंग करता है
हम जन्नत और दोज़ख के दरमियान सैर करते हैं
उसे देखते या कि उसकी ओर देखकर घबराते हुए

वह बच्चा है
घास-मिट्टी पर लोटता है
रेत के ढेर बनाता है फिर उन्हें तोड़ता है
खिलखिलाता है कि उसने कुछ जोड़ा तोड़ा है

चार साल का है
दरख्त देख कर झेंपते हैं कि कुदरत में
ऐसा खूबसूरत भी कुछ होता है

बारिश होती है तो पत्ते फैल जाते हैं कि उस पर
इतनी बूँदें गिरें जितनी कि वह अपनी कायनात में सँभाल पाए

हम उसे नन्हा फरिश्ता मानते हैं
दुआ करते हैं कि वह खेलता रहे
पर कुछ है जो हमें तंग करता है
खयाल कि 2020 में वह चार साल का है
और भारत नामक देश में रिज़वान नाम लिए पल रहा है

कि खिलौनों को वह उछाल फेंक रहा है
ऐसे ही फेंके न जाएँ उसके जीवन में से खूबसूरत एहसास
कमाल है कि नाम में इतना ख़ौफ़ होता है
और ज़ुबान वक्त के कटघरे में बदल जाती है

हम काँपते हैं
खुद से नज़रें बचाकर किसी और
सदी की ओर चल पड़ते हैं

दुआएँ करते कि कोई ज़ुबान कोई नाम ख़ौफ़नाक न रहे।

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