Thursday, May 21, 2009

अचंभित दुनिया देखती है औरत।

मन तो मेरा था कि बुर्जुआ लोकतंत्र के चुनावों पर एक पेटी बुर्जुआ अराजकतावादी के कुछ अवलोकनों को लिखूँ। पर अफलातून जो इन दिनों मेरे संस्थान में आया हुआ है ने समझा दिया कि मुल्क में मेरे जैसे पेटी बुर्जुआ टिप्पणीकारों की भरमार है। इसी बीच पुराने पोस्ट में 'छोटे शहर की लड़कियाँ' शीर्षक कविता पर टिप्पणी आई कि दूसरी कविता 'बड़े शहर की लड़कियाँ' भी पोस्ट कर दूँ। तो फिर वही सही।
यह कविता भी मेरे पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित है। यह कविता लाउड है, इसमें शब्दों के सैद्धांतिक अर्थ हैं, जिनसे हर कोई परिचित नहीं होता, जैसे 'गोरा' शब्द रंग नहीं, सामाजिक राजनैतिक सोच है। यह कविता संभवतः पल-प्रतिपल पत्रिका में भी १९८९ में प्रकाशित हुई थी। 'छोटे शहर की लड़कियाँ' जैसी हल्की न होने की वजह से यह आम पाठकों पर भारी पड़ती है।


बड़े शहर की लड़कियाँ

शहर में
एक बहुत बड़ा छोटा शहर और
निहायत ही छोटा सा एक
बड़ा शहर होता है

जहाँ लड़कियाँ
अंग्रेज़ी पढ़ी होती हैं
इम्तहानों में भूगोल इतिहास में भी
वे ऊपर आती हैं
उन्हें दूर से देखकर
छोटे शहर की लड़कियों को बेवजह
तंग करने वाले आवारा लड़के
ख्वाबों में - मैं तुम्हारे लिए
बहुत अच्छा बन जाऊँगा -
कहते हैं

ड्राइवरों वाली कारों में
राष्ट्रीय स्पर्धाओं में जाती लड़कियाँ
तन से प्रायः गोरी
मन से परिवार के मर्दों सी
हमेशा गोरी होती हैं

फिल्मों में गोरियाँ
गरीब लड़कों की उछल कूद देखकर
उन्हें प्यार कर बैठती हैं
ऐसा ज़िंदगी में नहीं होता

छोटे शहर की लड़कियों के भाइयों को
यह तब पता चलता है
जब आईने में शक्ल बदसूरत लगने लगती है
नौकरी धंधे की तलाश में एक मौत हो चुकी होती है
बाकी ज़िंदगी दूसरी मौत का इंतज़ार होती है

तब तक बड़े शहर की लड़कियाँ
अफसरनुमा व्यापारी व्यापारीनुमा अफसर
मर्दों की बीबियाँ बनने की तैयारी में
जुट चुकी होती हैं

उनके बारे में कइयों का कहना है
वे बड़ी आधुनिक हैं उनके रस्म
पश्चिमी ढंग के हैं
दरअसल बड़े शहर की लड़कियाँ
औरत होने का अधकचरा अहसास
किसी के साथ साझा नहीं कर सकतीं
इसलिए बहुत रोया करती हैं
उतना ही
जितना छोटे शहर की लड़कियाँ
रोती हैं

रोते रोते
उनमें से कुछ
हल्की होकर
आस्मान में उड़ने
लगती है
ज़मीन उसके लिए
निचले रहस्य सा खुल जाती है

फिर कोई नहीं रोक सकता
लड़की को
वह तूफान बन कर आती है
पहाड़ बन कर आती है
भरपूर औरत बन कर आती है
अचंभित दुनिया देखती है
औरत।

13 comments:

निर्मला कपिला said...

bahut hee badiya kavita hai alag si shabad nahi soojh rahe kehne ke liye

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत बहुत सच्ची और अच्छी कविता।
पर, लाल्टू जी वर्डवेरीफिकेशन क्यों टांगा है,इसे हटा ही दीजिए प्लीज!

लाल्टू said...

बीच में कुछ अजीब से characters वाली टिप्पणियाँ आने लगी थीं। लगा कि word verification से कम से कम automated comments रोके जा सकते हैं। आप कहते हैं तो हटा दूँगा।

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प है .सच बयानी का अंदाज.......हम तो वैसे भी मानते है ....बड़े शहर की हो या छोटे शहर की ......औरत होने पर एक सी लगती है लड़किया

शिरीष कुमार मौर्य said...

मेरी बहुत प्रिय कविता. जिन दिनों मैं पहली बार प्रकाशित हुआ था और हिन्दी कविता संसार मेरे लिए बहुत नया नया-सा था, तब की कविता. संकलन मेरे पास है.

अनिल कान्त said...

behtreen andaj hain ji
sach likha hai

Puja Upadhyay said...

amazing...बेहतरीन...बहुत ही अच्छी लगी.

Vikash said...

kahne ke liye shabd nahi juta paoonga.

प्रदीप कांत said...

Achchi kavita

GopalJoshi said...

"एक बहुत बड़ा छोटा शहर" और "निहायत ही छोटा सा एक बड़ा शहर होता है"

"लड़कियाँ तन से प्रायः गोरी मन से परिवार के मर्दों सी हमेशा गोरी होती हैं"

"अचंभित दुनिया देखती है" औरत।

Thats make you unique !!! अनदाजे बय़ा कुछ और.....

Anonymous said...

धन्यावाद ।

अजेय said...

maza aa gaya!

अजेय said...

maza aa gaya!