सात
साल पहले किसी पोस्ट में मैंने
ज़िक्र किया था कि हमारी (खासतौर
पर मर्दों की ) भाषा
में स्त्री विरोधी शब्दों के
बारे में हमें सोचना चाहिए।
उसे यहाँ फिर पेस्ट कर रहा
हूँ:
ऐब हो तो कितना
सुबह तेज
कदमों से इंजीनियरिंग कालेज
और स्टेडियम के बीच से डिपार्टमेंट
की ओर चला आ रहा था। दो लड़के
इंजीनियरिंग कालेज की ओर से
मेरे सामने निकले। उनके
वार्त्तालाप का अंशः एक-
यार,
जालंधर देखा
है, कितना
बदल गया है। बहुत बदला है हाल
में। दूसरा- सब
एन आर आई की वजह से है। तुझे
पता है जालंधर में कितने एन
आर आई हैं। अकेले जालंधर में
पंद्रह हजार एन आर आई हैं
भैनचोद, तू
देख ले भैनचोद।
कहते हैं पौने तीन हजार साल पहले सिकंदर ने सेल्युकस से कहा था, सच सेल्युकस! कैसा विचित्र है यह देश! शायद सिकंदर और सेल्युकस के सामने ऐसे ही दो युवक ऐसा ही कोई वार्त्तालाप करते हुए चल रहे होंगे।
पंजाबी इतनी मीठी जुबान है, पर हर दूसरे वाक्य में भैनचोद आने पर एक अच्छी भली मीठी भाषा भी गंदी लगने लगती है। ऐसा नहीं कि हमने कभी गालियाँ नहीं दीं, न ही यह कि गालियाँ सिर्फ पंजाबी में ही दी जाती हैं। पर पढ़े-लिखे लोग बिना आगे-पीछे देखे गालियों का ऐसा इस्तेमाल करें, यह उत्तर भारत में ही ज्यादा दिखता है। सुना है कि दक्षिण में गुलबर्ग इलाके में भी खूब गाली-गलौज चलती है। तमिल में भी जबर्दस्त गालियों की संस्कृति है। कोलकाता में फुटबाल का खेल देखते हुए बड़ी क्रीएटिव किस्म की गालियाँ भी बचपन में सुनी थीं। आखिर एक ऐसे मुल्क में जहाँ हम यह कहते थकते नहीं कि हम औरतों को देवियों का स्थान देते हैं, हमारी जुबान में जाने अंजाने माँ बहनों के लिए ऐसे हिंसक शब्द इतनी बार क्यों आते हैं? मेरे दिमाग में कोई भी महिला देवी नहीं होती। अधिकतर वयस्क महिलाओं को उनके जैविक और लैंगिक स्वरुप में ही मैं देखता हूँ। पर हर दूसरे वाक्य में भैनचोद कोशिश करके भी मैं नहीं कह सकता। तो क्या यह इसलिए है कि मुझे ऐसी गालियों का अर्थ पता है, पर उन युवकों के दिमाग मुझसे ज्यादा साफ और पाक हैं; वे इसमें कोई हिंसक यौनेच्छा न तो देखते हैं, न सोचते हैं। संभव है कि यही सच है, फिर भी कितना अच्छा हो कि ऐसे शब्द भाषा में कम से कम प्रयुक्त हों।
प्रसिद्ध लोक नाटककार गुरशरण भ्रा (भाई) जी ने एकबार आंदोलन चलाया था कि ऐसी गालियाँ इस्तेमाल करने के खिलाफ कानून बने और उस कानून में अलग-अलग श्रेणी के लोगों के लिए अलग-अलग किस्म की सजा का प्रावधान हो। अगर कोई पुलिस वाले को ऐसी गाली बोलते पाया जाए तो उसको सबसे अधिक सजा दी जाए, गैर-पुलिस सरकारी अधिकारियों को उससे कम और साधारण नागरिकों को सबसे कम। तात्पर्य यह था कि माँ बहन को जोड़ कर बनाई गई गालियाँ निश्चित रुप से हिंसक भावनाएं प्रकट करने के लिए इस्तेमाल होती हैं और सरकारी पदों पर नियुक्त लोग जब हिंसक भावनाएं प्रकट करते हैं तो वे अपने पदों का गलत उपयोग भी कर रहे होते हैं, इसलिए उनको अधिक सज़ा मिलनी चाहिए।
1990 में शमशीर नामक एक संस्था, जो खुद को नारी हितों में काम कर रही बतलाती थी, ने शिमला, चंडीगढ़ जैसे शहरों में 'मेरा भारत महान' नामक एक नाटक खेला। इसमें उनके अनुसार 'मध्य वर्ग की सेंसिबिलिटी को झकझोर देने के लिए' महिला चरित्रों ने भाईचोद जैसी गालियों का प्रयोग किया। जब मैंने उनसे कहा कि न केवल वे अपने उद्देश्य में पूरी तरह से असफल हुए हैं, बल्कि जीन्स पहनी शहरी लड़कियों से ऐसी गालियाँ कहलाके उन्होंने गाँवों और छोटे शहर से आए धनी परिवारों के लड़कों को घटिया यौन-सुख पाने का एक मौका दिया तो वे बड़े नाराज़ हुए। मुझे आज भी यही लगता है कि पुरुषों के घटियापन को महिलाओं के घटियापन से दूर नहीं किया जा सकता।
इसी प्रसंग में याद आता है हमारी यूनीवर्सिटी के एक डीन थे, जो कभी नोबेल विजेता खगोल-भौतिकी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक चंद्रशेखर के विद्यार्थी रह चुके थे। औपचारिक सभाओं में भी ये सज्जन माँ बहन की गालियाँ देते थे। चमन नाहल ने अपने उपन्यास 'आज़ादी' में पंजाबी भाषा का गुणगान करते हुए एक चरित्र से कहलवाया है - गंगा का पानी भैनचोद इतना पवित्र है....
कभी कभी ऐसी विकृतियाँ ही जीवन को अर्थ देती हैं। अगर सचमुच हममें कोई ऐब न हो तो जीवन जीने लायक न होगा। पर यह भी हमें ही सोचना है कि ऐब हो तो कितना। (12 नवंबर 2005)
कहते हैं पौने तीन हजार साल पहले सिकंदर ने सेल्युकस से कहा था, सच सेल्युकस! कैसा विचित्र है यह देश! शायद सिकंदर और सेल्युकस के सामने ऐसे ही दो युवक ऐसा ही कोई वार्त्तालाप करते हुए चल रहे होंगे।
पंजाबी इतनी मीठी जुबान है, पर हर दूसरे वाक्य में भैनचोद आने पर एक अच्छी भली मीठी भाषा भी गंदी लगने लगती है। ऐसा नहीं कि हमने कभी गालियाँ नहीं दीं, न ही यह कि गालियाँ सिर्फ पंजाबी में ही दी जाती हैं। पर पढ़े-लिखे लोग बिना आगे-पीछे देखे गालियों का ऐसा इस्तेमाल करें, यह उत्तर भारत में ही ज्यादा दिखता है। सुना है कि दक्षिण में गुलबर्ग इलाके में भी खूब गाली-गलौज चलती है। तमिल में भी जबर्दस्त गालियों की संस्कृति है। कोलकाता में फुटबाल का खेल देखते हुए बड़ी क्रीएटिव किस्म की गालियाँ भी बचपन में सुनी थीं। आखिर एक ऐसे मुल्क में जहाँ हम यह कहते थकते नहीं कि हम औरतों को देवियों का स्थान देते हैं, हमारी जुबान में जाने अंजाने माँ बहनों के लिए ऐसे हिंसक शब्द इतनी बार क्यों आते हैं? मेरे दिमाग में कोई भी महिला देवी नहीं होती। अधिकतर वयस्क महिलाओं को उनके जैविक और लैंगिक स्वरुप में ही मैं देखता हूँ। पर हर दूसरे वाक्य में भैनचोद कोशिश करके भी मैं नहीं कह सकता। तो क्या यह इसलिए है कि मुझे ऐसी गालियों का अर्थ पता है, पर उन युवकों के दिमाग मुझसे ज्यादा साफ और पाक हैं; वे इसमें कोई हिंसक यौनेच्छा न तो देखते हैं, न सोचते हैं। संभव है कि यही सच है, फिर भी कितना अच्छा हो कि ऐसे शब्द भाषा में कम से कम प्रयुक्त हों।
प्रसिद्ध लोक नाटककार गुरशरण भ्रा (भाई) जी ने एकबार आंदोलन चलाया था कि ऐसी गालियाँ इस्तेमाल करने के खिलाफ कानून बने और उस कानून में अलग-अलग श्रेणी के लोगों के लिए अलग-अलग किस्म की सजा का प्रावधान हो। अगर कोई पुलिस वाले को ऐसी गाली बोलते पाया जाए तो उसको सबसे अधिक सजा दी जाए, गैर-पुलिस सरकारी अधिकारियों को उससे कम और साधारण नागरिकों को सबसे कम। तात्पर्य यह था कि माँ बहन को जोड़ कर बनाई गई गालियाँ निश्चित रुप से हिंसक भावनाएं प्रकट करने के लिए इस्तेमाल होती हैं और सरकारी पदों पर नियुक्त लोग जब हिंसक भावनाएं प्रकट करते हैं तो वे अपने पदों का गलत उपयोग भी कर रहे होते हैं, इसलिए उनको अधिक सज़ा मिलनी चाहिए।
1990 में शमशीर नामक एक संस्था, जो खुद को नारी हितों में काम कर रही बतलाती थी, ने शिमला, चंडीगढ़ जैसे शहरों में 'मेरा भारत महान' नामक एक नाटक खेला। इसमें उनके अनुसार 'मध्य वर्ग की सेंसिबिलिटी को झकझोर देने के लिए' महिला चरित्रों ने भाईचोद जैसी गालियों का प्रयोग किया। जब मैंने उनसे कहा कि न केवल वे अपने उद्देश्य में पूरी तरह से असफल हुए हैं, बल्कि जीन्स पहनी शहरी लड़कियों से ऐसी गालियाँ कहलाके उन्होंने गाँवों और छोटे शहर से आए धनी परिवारों के लड़कों को घटिया यौन-सुख पाने का एक मौका दिया तो वे बड़े नाराज़ हुए। मुझे आज भी यही लगता है कि पुरुषों के घटियापन को महिलाओं के घटियापन से दूर नहीं किया जा सकता।
इसी प्रसंग में याद आता है हमारी यूनीवर्सिटी के एक डीन थे, जो कभी नोबेल विजेता खगोल-भौतिकी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक चंद्रशेखर के विद्यार्थी रह चुके थे। औपचारिक सभाओं में भी ये सज्जन माँ बहन की गालियाँ देते थे। चमन नाहल ने अपने उपन्यास 'आज़ादी' में पंजाबी भाषा का गुणगान करते हुए एक चरित्र से कहलवाया है - गंगा का पानी भैनचोद इतना पवित्र है....
कभी कभी ऐसी विकृतियाँ ही जीवन को अर्थ देती हैं। अगर सचमुच हममें कोई ऐब न हो तो जीवन जीने लायक न होगा। पर यह भी हमें ही सोचना है कि ऐब हो तो कितना। (12 नवंबर 2005)
आज
जब हर जगह स्त्री प्रसंग पर
चर्चा हो रही है, इस
बात को मैंने दुबारा सोचा।
मैं अक्सर युवा छात्रों से
कहता हूँ कि हमें छोटी कोशिशें
करनी चाहिए – एक यह भी कि हम
धीरे धीरे ऐसे स्त्री विरोधी
शब्दों का इस्तेमाल कम कर दें
और एक दिन ऐसा आए कि हम बिल्कुल
ही न करें। कुछ लोग कहते हैं
कि दरअसल ये शब्द हमारी भाषा
का हिस्सा बन गए हैं। इनका
अर्थ वैसा नहीं होता जो मैं
कह रहा हूँ। सचमुच ऐसा है नहीं।
अगर ऐसा होता तो हम घरों में,
स्त्रियों
के सामने बेहिचक इनका इस्तेमाल
करते। कई बार 'सभ्य'
समाज में हम
हिंदी में न कह कर अंग्रेज़ी
में कह देते हैं जैसे कि फिर
इनमें निहित हिंसा ज़रा कम
हो जाएगी। गुस्सा आने पर ऐसे
शब्द बेधड़क हमारी ज़ुबान पर
होते हैं। यानी हिंसा ही इन
शब्दों का धर्म और मर्म है।
ग़रीब
कामगार तबकों में ये शब्द आम
बोलचाल के शब्द हैं और इसलिए
मेरी तरह के कई अराजक लोगों
को लगता है कि ऐसे शब्दों का
इस्तेमाल कर हम उनके साथ होने
की घोषणा करते हैं। ग़रीबी
एक भयानक हिंसा है। ग़रीबी
कोई उत्सव मनाने लायक बात नहीं
है। उस हिंसा के साथ स्त्री
विरोधी हिंसा जुड़ जाती है।
कामगारों में अपनी स्थितियों
के प्रति हताशा जतलाने का यह
स्त्री विरोधी तरीका कोई अच्छी
बात नहीं है। इसलिए हमारी
कोशिश यह होनी चाहिए कि हम
चाहे सहानुभूति के साथ ही सही,
किसी भी
स्थिति में इन शब्दों के प्रयोग
का विरोध करें।
यह
तो थी छोटी लड़ाई (छोटी
तो नहीं पर यह खुद से लड़ने की
बात है)।
बड़ी लड़ाई जो इस वक्त लड़नी है,
वह है ये तथा
कथित 'भारतीय
परंपरा' वाले
स्त्री विरोधियों के साथ
जूझने की है। इन अंधकारवादियों
की बकवास को पुरजोर आवाज़ में
निरस्त करना है। हमारी बेटियाँ
जो मर्जी पहनेंगी, जहाँ
जब मर्जी जाएँगी, हम
उनके साथ हैं। ये 'भारत'वादी
अपना 'भारत'
अपने पास
रखें। हम उनके नहीं, अपने
भारत में रहते हैं। यह धरती
कठमुल्लों की बपौती नहीं है।
बेटियाँ, ज़िंदाबाद।
स्त्रियाँ ज़िंदाबाद।
Comments
एक चला गया। मैं ने दूसरे से पूछा कि उस ने एक मिनट की बात में कम से कम बीस बार इन शब्दों का प्रयोग किया है। क्या वह इन से बच नहीं सकता वह शर्मिंदा हुआ लेकिन फिर अपने लिए ही उस गाली का प्रयोग करते हुए बोला आदत पड़ गई है। मैं ने सुझाया कि वह इन से पीछा छुड़ाने का प्रयत्न तो कर सकता है। उस ने कहा अवश्य करूंगा।
लेकिन ये शब्द वास्तव में हमारे समाज की मानसिक अवस्था को भी प्रकट करते हैं। वाकई इन का प्रयोग करना दंडनीय होना चाहिए।
कभी माँ थी मैं तुम्हारी
आज केवल एक स्त्री देह रह गई
क्योंकि तुमने
गुस्से में ही सही
दूसरों को गाली देने के लिए ही सही
‘माँ’ शब्द को
अपशब्दों से जोड़कर
नए शब्दों को पैदा करना सीख लिया है
इस सटीक पोस्ट को पढ़वाने के लिए आभार
बचपन में ग्वालियर में इस गाली का उतना ही उपयोग होते सुना था जितना है, हो, हूँ, था, थी शब्दों का. तब वहाँ लोग इन्हें तकिया कलम के रूप में प्रयोग करते थे.
घुघूतीबासूती