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अगड़म बगड़म


कुछ साल पहले मैंने सुकुमार राय की अनोखी कृति 'आबोल ताबोल' से अनूदित कविताएँ पोस्ट की थीं। 1988 में अशोक अग्रवाल ने संभावना प्रकाशन से मेरी अनूदित ऐसी 20 कविताओं की पुस्तिका प्रकाशित की थी। ये नॉनसेंस कविताएँ हैं और इनका अनुवाद कठिन काम है। मुझमें हमेशा एक असंतोष की भावना रह गई थी कि अनुवाद ठीक हुआ नहीं है। डेढ़ साल पहले काफी मेहनत से प्रो. सुवास कुमार के साथ बैठ कर मैंने दुबारा यह काम किया और इस बार विजय गुप्त ने साम्य पत्रिका की पुस्तिका के रूप में इसे छापा है। इसकी भूमिका के लिए विजय जी ने भी लिखा और हमने भी एक लेख तैयार किया। मेरा यह लेख संक्षिप्त रूप में तीन साल पहले अंग्रेज़ी में निकलती पत्रिका 'हिमाल' में छपा था। यहाँ हिंदी में पूरे आलेख को पेस्ट कर रहा हूँ। पुस्तिका का आवरण बनतन्वी दासमहापात्रा ने तैयार किया है। प्रति (कीमतः 30/-) के लिए लिखें:- श्री विजय गुप्त, ब्रह्म रोड, अम्बिकापुर 497001, जिला - सरगुजा, ..



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भूमिका
भारतीय उपमहाद्वीप की तमाम भाषाओं में आधुनिक काल में बच्चों के लिए लेखन की प्रचुरता की वजह से बांग्ला की अलग पहचान है। बांग्ला साहित्य में ऐसा कोई प्रतिष्ठित लेखक या कवि नहीं है, जिसने बच्चों के लिए लगातार न लिखा हो। उन्नीसवीं सदी में भारत में आधुनिक मुद्रण तकनीक के आने के थोड़े समय बाद से ही बांग्ला भाषा में बच्चों के लिए पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगीं। आज भी कोलकाता के सालाना 'पूजोवार्षिकी' और ढाका में ईद पर प्रकाशित संग्रहों में बच्चों को तरह तरह के लघु उपन्यास, कहानियाँ और कविताएँ आदि पढ़ने को मिलते हैं। ये रचनाएँ सामाजिक विषयों से लेकर जासूसी या व्यंग्य आदि हर तरह की होती हैं।
बांग्ला में बाल साहित्य की ऐसी पत्रिकाएँ हैं, जो कई दशकों से लगातार प्रकाशित हो रही हैं। इनमें से लेखक और गीतकार उपेंद्रकिशोर रायचौधरी द्वारा 1913 में आरंभ की गई 'संदेश' पत्रिका बांग्ला भाषा की धरोहर बन गई है। उनकी मृत्यु के बाद उनके बड़े बेटे सुकुमार राय ने संपादन का भार सँभाला। उपेंद्रकिशोर की सबसे प्रसिद्ध कृति 'गूपी गाईन बाघा बाईन' पर सुकुमार के बेटे सत्यजित राय ने इसी शीर्षक की फिल्म बनाई, जिसका भारतीय फिल्मों के इतिहास में अनोखा स्थान है। सत्यजित राय की प्रतिष्ठा अंतर्राष्ट्रीय स्तर की है, फिल्मों के अलावा छोटे बड़े हर उम्र के पाठकवर्ग के लिए उन्होंने विज्ञान कथाएँ, जासूसी और अन्य रोचक कहानियाँ भी लिखी हैं; पर उनके पिता सुकुमार राय के बारे में हिंदी के पाठकों को कम ही जानकारी उपलब्ध है। सुकुमार की अभिनव कौशल से भरपूर 'नानसेंस' गद्य और पद्य रचनाओं ने बांग्ला में बाल साहित्य में नई परंपराओं का निर्माण किया।

सुकुमार राय अद्भुत प्रतिभा से संपन्न थे। उनका जन्म 1887 ईस्वी में हुआ। 36 साल की कम उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई। दो विषयों में ससम्मान (आनर्स) कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातक (बी एस सी) डिग्री के बाद अपनी मेधा के बल पर उन्हें इंग्लैंड के मैंचेस्टर कालेज में फोटोग्राफी और प्रिंटिंग टेक्नोलोजी का अध्ययन करने के लिए वजीफा (गुरूप्रसन्न स्कालरशिप) मिला। विदेश में रहते हुए वे स्थानीय साहित्यिक माहौल में सरगर्म रहे। वे एक कुशल गायक और अभिनेता भी थे। ऐसा संभव है कि उनपर लूइस कैरल ('एलिस इन वंडरलैंड – आश्चर्यलोक में एलिस' के रचयिता) का प्रभाव रहा हो। सत्यजित राय के अनुसार, “कैरल की कृति 'Jabberwocky (जैबरवोकी - एलिस इन वंडरलैंड में एक कविता)' में रचित प्राणी कल्पना लोक से आए थे, पर सुकुमार के चरित्र, जैसे भी वे हैं, हर रोज की परिचित दुनिया से आए हुए थे। और उनमें से कई सचमुच बंगाल की ही उपज थे, जैसे "हुकोमुखो हैंग्ला (हुक्कामुखी भुक्खड़)"

बांग्लाभाषियों के लिए सुकुमार राय की रचनाएँ nonsense यानी 'बेतुकी' विधा में सर्वश्रेष्ठ हैं (चूँकि 'बेतुकी' शब्द का अर्थ तुक का न होना भी होता है, इसलिए यह उपयुक्त शब्द नहीं लगता। संभवतः 'अण्डबण्ड', 'ऊटपटाँग', पद्य-लफ्फाजी या 'गप्पोड़ी' जैसा कोई शब्द बेहतर हो, लेकिन हम यहाँ 'नानसेंस' का ही इस्तेमाल करेंगे) । पर इस विधा में आलोचना कर्म न के बराबर है। यह सचमुच बड़ी अजीब बात है कि हालाँकि बांग्ला में वयस्क साहित्य के लिए सचेत और उत्तम रुचि के पाठक बनाने में बाल साहित्य का बहुत बड़ा अवदान है, बच्चों के लिए लिखे गए विपुल साहित्य भंडार का आलोचनात्मक विश्लेषण बहुत कम हुआ है। इन रचनाओं के स्रोत और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। संभवतः बच्चों के लिए लिखी सामग्री को ऐसा नहीं माना गया है कि उस पर गंभीर आलोचना लिखी जाए।


असंभव के छंद
सुकुमार राय के बारे में उनके समकालीन कवि चारुचंद्र बंद्योपाध्याय ने लिखा हैः - "उनका वाक्य सरस था, उनकी रचना सरस थी, उनका संग सरस था, उनका व्यवहार सरस था। उनके स्वभाव में आनंदमयता थी। इसी स्वभावसिद्ध आनंदमयता की वजह से दोस्तों की मजलिसों में वे आनंद का केंद्र होते थे और वे जो कुछ भी लिखते, वह आनंद से भरपूर होता।" स्वभाव से रसिक और विनोद प्रिय होने के साथ ही सुकुमार राय तर्कशील प्रवृत्ति के थे। उन्होंने बच्चों के लिए अंधविश्वास के खिलाफ आलेख लिखे हैं। पर उनको मुख्यतः नानसेंस कविता और गद्य रचनाओं के लिए ही जाना जाता है। उन्होंने अपनी इन रचनाओं में आधुनिक सोच से जुड़े नए खयाल और नए शब्द शामिल किए। इनमें कई शब्द अंग्रेज़ी के भी हैं, जो व्यंग्य विनोद के लिए सफलता पूर्वक प्रयुक्त हुए हैं; और कुछ तो बड़े तकनीकी किस्म के भी हैं। सुकुमार ने विशुद्ध नानसेंस में खुद को बाँध नहीं रखा, बेतुकी लगती बातों के जरिए न केवल समकालीन, बल्कि सर्वकालीन सत्य की ओर उन्होंने अक्सर संकेत किए हैं। ऐसा करते हुए उन्होंने ऐसे जीव-जंतुओं को रचा, जो बच्चों और बड़ों, सबको भाते हैं। उनके रचना काल में बंगाल में साक्षरता देश के अन्य इलाकों से बेहतर थी, पर फिर भी यह काफी कम थी। इसलिए उस जमाने में उनका पाठक वर्ग मूलतः शिक्षित और संपन्न भद्रलोक समुदाय और उनके बच्चों का था। परवर्त्ती काल में साक्षरता बढ़ने पर 'आबोल ताबोल' जैसी कृतियों को घर-घर पढ़ा जाने लगा।

सुकुमार राय 'आबोल ताबोल' की काव्यात्मक 'भूमिका' में पाठकों को 'असंभबेर छंदे (असंभव के छंदों में)' प्रवेश करने का न्यौता देते हैं। संग्रह की पहली कविता से ही पाठक अद्भुत लोक से परिचित होता है। संकर जंतुओं का आश्चर्यलोक हमारे सामने है-
बत्तख था, साही भी, (व्याकरण को गोली मार)
बन गए 'बत्ताही' जी, कौन जाने कैसे यार!



बत्तख और साही मिलकर बत्ताही बन गए हैं। सुकुमार अच्छे चित्रकार भी थे। पाठ में मजेदार तस्वीरों का अंकन कर आमोद-विनोद को बढ़ाना उन्हें बखूबी आता था। 'टैंस गोरू' (ठसकदार गाय) जैसी कई रचनाओं में वे बर्त्तानवी व्यवस्था की लालफीताशाही (जो आज की व्यवस्था पर भी लागू होती है) पर कस कर व्यंग्य करते हैं। वे राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से भी प्रभावित थे। उनकी रचनाओं में कई सामाजिक विषयों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी दिखलाई पड़ती है।
बांग्ला समाज पर सुकुमार राय का गहरा प्रभाव है। आज बांग्ला भाषा में इस्तेमाल किए जा रहे कई (तकरीबन सौ) शब्द सुकुमार की देन हैं। पहले से प्रचलित 'छड़ा' (बच्चों के लिए लिखी गई मुकरी जैसी रचनाएँ) की विधा में उच्च-स्तरीय नानसेंस लाकर उन्होंने बाल साहित्य में एक ऐसी शुरुआत की जिसका प्रभाव आजतक है। पर स्वयं सुकुमार राय अपने समय की उपज थे। वर्ग आधारित समाज में रहते हुए किसी भी व्यक्ति में अपने समय के सभी पूर्वाग्रह मौजूद होते हैं। सुकुमार राय इससे अछूते नहीं हैं। पर उनकी रचनाएँ हमें उल्लास की ऐसी स्थिति में ले जाती हैं कि हम या तो इन पूर्वाग्रहों पर ध्यान नहीं दे पाते या उन्हें नज़रअंदाज कर देते हैं। उदाहरण के लिए उनकी कविता 'सोत पात्रो (सत् पात्र या अच्छा वर)' की ये पंक्तियाँ देखें -
बुरा नहीं, वर अच्छा है -
रंग का थोड़ा कच्चा है;
और लगता उसका चेहरा कैसा
थोड़ा थोड़ा उल्लू जैसा।
शिक्षा-दीक्षा? बतलाता हूँ -
अध्ययन पर उसकी आता हूँ!
उन्नीस बार घायल हो हो कर
मैट्रिक में रह गया अटक कर।
धन-संपत्ति? कुछ नहीं है भाई-
दुःख में दिन और रात बिताई।



कहना मुश्किल है कि सुकुमार यहाँ अपने समय में प्रचलित पाखंडों का, जैसे वैवाहिक संबंधों में बाधा डालने वाले पड़ोसियों का मजाक उड़ा रहे हैं, या स्वयं उनसे ग्रस्त हैं। जैसा भी है, उनके लेखन में ऐसी विसंगतियाँ अक्सर नज़र आती हैं। समकालीन मध्यवर्ग के संस्कारों और मर्यादाओं के पैमाने में उनके श्लील-अश्लील विचार को समझा जा सकता है। एक उदाहरण है - 'हैंग्ला'। इस शब्द का एक आम गाली की तरह प्रयोग होता है। सामान्य तौर पर इसका अर्थ ऐसे सस्ती प्रकृति के व्यक्ति से है, जो किसी चीज के प्रति अपने लोभ पर नियंत्रण नहीं रख पाता। सुकुमार ने ऐसे शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया है। इनमें से कई मुहावरे बन गए हैं, जैसे - हुकोमुखो हैंग्ला (हुक्कामुखी भुक्खड़), नोंग्रामुखो शुट्को (गंदी शक्ल और सूखी काया वाला) आदि। इसी तरह जंतुओं के प्रति आम तौर पर प्रचलित हिंसात्मक शब्दों का इस्तेमाल भी उन्होंने किया है, जैसे -
ज़िंदा ऐसे साँप दो 
ला कर मेरे पास रखो !
मार पीट डंडा,
कर  दूँगा ठंडा!

संभावना यह भी बनती है कि बच्चों पर हम बड़ों का या सामाजिक व्यवहारों पर पड़े असर को लेकर व्यंग्याभिव्यक्ति की जा रही हो! लिंगभेद के प्रसंग में भी सुकुमार के लेखन में तत्कालीन मूल्य और पूर्वाग्रह देखे जा सकते हैं। बांग्ला में क्रियापद से लिंग निर्णय कर पाना संभव नहीं होता। इसके परिणामस्वरूप कर्त्ता के लिंग की पहचान के लिए प्रसंग को समझना जरूरी होता है। बांग्लाभाषी पाठक को संदर्भों को समझने में कोई दिक्कत नहीं आती और वह सहज ही लिंग निर्णय कर लेता है। सुकुमार राय की प्रसिद्ध गद्य रचना '----' (----- अर्थात जिसका कोई सिर पैर न हो) में कथा का नायक एक बच्चा है जो सो गया है और लूइस कैरल की फंतासी की तरह उसका आश्चर्य लोक के जंतुओं के साथ सामना होता है (जिनमें वास्तव जगत के मानवों की तरह खासियत हैं); और वह उनसे बातचीत करता है। अगर किसी बांग्लाभाषी से पूछा जाए कि उन्हें कैसे पता कि कहानी का बच्चा पुरुष लिंग का यानी लड़का है तो उनमें से अधिकतर इसका जवाब न दे पाएँगे। एक संवेदनशील मित्र का कहना है कि कहानी के अंत में जब बच्चा जग जाता है तो उसका मामा आकर उसका कान पकड़कर खींचता है, इससे पता चलता है कि वह लड़का है। आमतौर पर लड़कियों को कान पकड़कर नहीं खींचा जाएगा। कम से कम मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए यह बात सही है।
पूर्वाग्रहों को नज़रअंदाज़ करें तो हम पाएँगे कि सुकुमार सामान्य से हटकर अलग दिखती शक्लों का हास्य-व्यंग्य के लिए बड़ी कुशलता के साथ इस्तेमाल करते हैं। उनके एक प्रसिद्ध चरित्र, 'पागला दाशू' (पगला दासू), का विवरण देखिए -
उसकी शक्ल, बातचीत और चाल से यह स्पष्ट था कि उसका दिमाग कुछ ढीला है। उसकी आँखें बड़ी और गोल थीं, ज़रूरत से ज्यादा बड़े कान थे, सिर में बिखरे हुए बालों का जाल था।...वह जब जल्दी से चलता या हड़बड़ी में बात करता है, तब उसके हाथ-पैरों का उछलना देखकर झींगा मछली का खयाल आता है।
ऐसे विवरण को सीधे सीधे किसी के प्रति नफरत की अभिव्यक्ति कहकर खारिज करना ठीक न होगा, खासकर जब हम उस युग की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हैं। उस युग में आकृति को प्रकृति का लक्षण माना जाता था। यह भी कहा जा सकता है कि अगर हर बात को सही वैचारिक पलड़े पर रख कर ही तौला जाए तो हास्य-व्यंग्य के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। ज्यादा सही यही कहना होगा कि सुकुमार इस तरह के लेखन में जीवन की निष्ठुर सच्चाइयों की ओर संकेत कर रहे हैं। पर ऐसी सामग्री का उपयोग आज कैसे हो रहा है, इस बारे में सतर्क पहना जरूरी है। ऐसे पाठ का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, उस पर मनोवैज्ञानिक शोध किया जाए तो महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकल सकते हैं।
शब्दकल्पद्रुम
सुकुमार राय का शब्द- चयन का भंडार रोचक है। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह बांग्ला का शब्द-भंडार भी संस्कृत, फारसी और देशज स्रोतों से समृद्ध हुआ है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में बंगाल में नवजागरण के साथ ही पुनरुत्थान-वादी प्रवृत्तियाँ भी सक्रिय थीं। भाषा पर इसका प्रभाव साफ दिखता है। सदी के अंत तक बांग्ला भाषा से फारसी मूल के शब्दों को निकाल कर इसे संस्कृतनिष्ठ करने की प्रवृत्ति के बारे में कइयों ने टिप्पणी की है। इस प्रवृत्ति को सबसे अधिक बढ़ावा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने दिया। रवींद्रनाथ ठाकुर और उनके समकालीन रचनाकारों ने रुढ़ क्रियारूपों का उपयोग कम किया, पर संस्कृतनिष्ठता काफी हद तक बरकरार रही। सुकुमार राय आधुनिकतावादी थे और उनकी वाक्-विदग्धता कमाल की थी। उन्होंने संस्कृत शब्दों के ध्वन्यात्मक सौंदर्य का बखूबी इस्तेमाल किया। उदाहरण के लिए, 'आबोल ताबोल' की कविता 'शब्दकल्पद्रुम' (शीर्षक अपने आप में बखूबी से मृदंग के बोल सा पैदा करता है) में मुहावरे की तरह इस्तेमाल होने वाले आम शब्दों (चाँद का डूबना, फूल की गंध का बहना, आदि) के साथ ध्वनि बोधक शब्दों को जोड़कर अद्भुत शिल्प रचा गया है। इस कविता और ऐसी ही कई अन्य कविताओं में देशज शब्दों का बहुतायत से इस्तेमाल हुआ है। पर तत्सम शब्दों की तादाद फारसी शब्दों की तुलना में अधिक है।
सुकुमार राय ने अनेकार्थी शब्दों का उपयोग बढ़-चढ़ कर और भरपूर कुशलता के साथ किया है। 'शब्दकल्पद्रुम' में एक पंक्ति है - 'फूल फोटे? ताई बोलो, आमि भाबि पोटका!' (फूटा (खिला) फूल? ऐसा बोलो! मुझे लगा बम (पटाखा) था!)'फोटे' शब्द का बम फटना या फूल की पंखुड़ियों का खिलना दोनों अर्थों में इस्तेमाल होता है। ऐसा ही कौशल उनकी गद्य कृतियों में भी दिखता है। एक कुशल भाषाविद् की तरह वे पाठक की विनोदप्रियता को जगाते हैं। उनका 'लक्खनेर शक्तिशेल (लक्ष्मण का शक्तिवाण)' आज भी व्यंग्य रचना के रुप में बहुत पढ़ा जाता है। इसे समकालीन राजनैतिक दलों के प्रति व्यंग्य की तरह पढ़ा जा सकता है। उनकी रचनाओं में राजा जैसे चरित्र हमेशा ही बड़े दयनीय से दिखते हैं - 'गंध विचार' ऐसी ही एक कविता है। शिक्षा व्यवस्था पर भी वे बार-बार चुटकी लेते हैं। 'समझाकर कहना' और 'विज्ञान शिक्षा' जैसी कविताओं में यही अंदाज़ दिखता है, जहाँ जबरन बच्चों को पढ़ाने या उन पर ज्ञान थोपने का मजाक उड़ाया गया है।
सुकुमार राय एक ऐसे दुर्लभ मेधावी बहुप्रतिभा संपन्न व्यक्ति थे, जिसे आज के जमाने का कोई वीडियोगेम और वाल्ट डिस्नी का हल्ला पछाड़ नहीं सकता। समय के साथ उनकी कई कविताएँ और अधिक प्रासंगिक बनती जा रही हैं। गंभीर स्थितियों को भी हास्य में बदलने की अद्भुत क्षमता उनमें थी। कइयों का मानना है कि 36 से भी कम उम्र में मृत्यु के ठीक पहले आसन्न मृत्यु के बारे में अपनी अंतिम रचना में उन्होंने लिखा ('आबोल ताबोल' संग्रह की इसी शीर्षक की आखिरी कविता) -
आदिम समय का चाँदिम हिम
गाँठ में रखा घोड़े का डिम*
हुईं नींद से आँखें भारी,
गीत की लड़ियाँ खो गईं सारी।
(घोड़े का डिम*= घोड़े का अंडा=शून्य, कुछ नहीं)
ऐसा कमाल का दार्शनिक व्यक्तित्व सुकुमार का था। मृत्यु के कुछ समय पहले तक, 'नींद से आँखें भारी' होने की स्थिति में भी वे अपनी संदेश पत्रिका के लिए लिखने और तस्वीरें बनाने का काम करते रहे। स्वभाव से विनोदी प्रवृत्ति के और हास्य रसिक होते हुए भी (जीवन की नश्वरता पर टिप्पणी देखिए - 'गाँठ में रखा घोड़े का डिम') सुकुमार वस्तुतः अपने काम में बहुत गंभीर थे। मानवीय मूल्यों में भी वे अतुलनीय थे। चारुचंद्र बंद्योपाध्याय ने लिखा हैः- “उनके आत्मीय मित्रों की अस्वस्थता के दौरान उनके सेवाभाव से और स्वयं उनकी लंबी बीमारी के दौरान उनको जानकर उनके हृदय की महानता का परिचय हमें हुआ। मित्र अजितकुमार चक्रवर्त्ती की अंतिम पीड़ा के समय जिस तरह सपत्नीक सुकुमार बाबू ने तन-मन-धन की चिंता न करते हुए उनकी सेवा की थी, यह देखकर पति पत्नी दोनों के प्रति मेरी श्रद्धा सौगुना बढ़ गई।" मौत का सामना करते हुए भी सुकुमार को निरंतर कार्यरत देखकर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर भी प्रभावित हुए। उन्होंने लिखाः- “मौत के दरवाजे पर खड़े होकर भी वे (सुकुमार) असीम जीवन का जयगान गाते रहे। उनकी रोगशय्या के पास बैठकर और उस गान के सुर से मेरा चित्त पूर्ण हुआ।"
अनुवाद अपने आप में कठिन काम है। यह और भी भारी हो जाता है जब नानसेंस का अनुवाद करना हो। अनूदित कविता कभी भी मूल रचना के बराबर नहीं हो पाती, यह सर्वविदित है। नानसेंस कविता का अनुवाद कैसा जोखिम भरा काम है, सुधी पाठक इसकी कल्पना कर सकते हैं। खासकर सुकुमार राय का लेखन जो महज निरर्थक और बेमतलब की बातों का समूह नहीं, बल्कि सारगर्भित नानसेंस है, इसका अनुवाद कहीं से भी मूल के बराबर नहीं हो सकता। फिर भी जैसा कि इस्पानी भाषा के कथाकार गाब्रिएल गार्सिया मार्ख़ेज़ के अंग्रेज़ी अनुवादक ग्रेगरी राबासा का कहना हैः- 'अनुवाद अपने आप में एक सर्जनात्मक काम हो सकता है' ('A translation can be creative in its own right...')। अतः साहित्यिक अनुवाद को पुनर्रचना कहना बेहतर है। खुद मार्ख़ेज़ ने राबासा के बारे में कहा हैः- 'उन्होंने मूल रचना की खूबसूरती बढ़ाई है' ('He has enhanced the beauty of the original')। सांस्कृतिक समानताओं की वजह से एक ओर तो भारतीय भाषाओं में लिखी रचनाओं का आपस में अनुवाद काफी हद तक सार्थक और सहज है, दूसरी ओर यही एक बहुत बड़ी कठिनाई भी है। अन्यथा नितांत एक ही जैसे और परिचित से लगते विषय में एक ही शब्द बांग्ला और हिंदी में अलग अलग अर्थों में प्रयुक्त हो सकता है। कभी कभी यह फर्क बहुत ही सामान्य होता है, पर इससे प्रसंग बदल जाता है। बांग्ला और खड़ीबोली हिंदी का एक फर्क यह भी है कि कर्त्ता के लिंग, वचन आदि के साथ जिस तरह हिंदी में क्रियापद का रूप बदलता रहता है, बांग्ला में ऐसा कम ही होता है। संस्कृत की तरह बांग्ला में शब्दों की मात्राओं से ध्वन्यात्मक लय आसानी से बनती है। खड़ी-बोली हिंदी का मिजाज और मुहावरा अलग है। क्षेत्र की व्यापकता की वजह से किसी भी शब्द के चयन को लेकर संशय रह जाता है कि वह संपूर्ण हिंदी क्षेत्र में एक ही तरह से पढ़ा जाएगा या नहीं। ध्वन्यात्मकता, लय और अर्थ में कैसे तालमेल रखा जाए, यह जद्दोजहद भी चलती रहती है। हमारी पूरी कोशिश यह है कि यह अनुवाद मूल के अधिक से अधिक करीब हो और साथ ही रस में भी कोई कमी न रह जाए। इन दोनों बातों को ध्यान में रखते हुए ऐसे कई शब्दों का हमने इस्तेमाल किया है, जो हिंदी में कम प्रचलित हैं या वस्तुतः हिंदी के नहीं हैं, पर जिनमें से अधिकतर में बांग्ला भाषा का स्पर्श-गंध मौजूद है। भौंचकराए, किंभुत्, किच्छु, मच्छी, मरम्मात, पाछे, हाँसे, आसे-पासे, नयान, डाके, बाड़ी, मिलबे, हाड़गोड़ आदि इनके कुछ उदाहरण हैं। स्थानीय बोलियों और भाषाओं के मिजाज़ के मुताबिक पाठक इसमें जोड़ घटा सकते हैं। आश्चर्य नहीं कि एक ही रचना के अनेकानेक अनुवाद प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
हिंदी और उत्तर भारतीय अन्य भाषाओं के व्यापक भौगोलिक क्षेत्र में लोक संस्कृति की वाचिक परंपरा में बच्चों और बड़ों सबके बीच अलग अलग किस्म की नानसेंस रचनाएँ मिलती हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। बेतुकापन, उलटबाँसी और तांत्रिकों की 'संध्याभाषा' जैसी परंपराएँ लोक मानस में जीवंत हैं, क्योंकि इससे बाल-सुलभ मनोदशा में पहुँचा जा सकता है। कबीर की इन पंक्तियों को देखिएः-



कागा कापड़ धोवन लागै, बकुला किरपे दाँता
माखी मूड़ मुड़ावन लागी, हम हूँ जाव बराता।


बारात जाने के लिए कौवा कपड़े धो रहा है, बगुला दातौन कर रहा है; मक्खी केश-विन्यास कर रही है। हिंदी क्षेत्र की भाषाओं और बोलियों में तरह-तरह की लोरियाँ, कबीरा, जोगीड़ा, बच्चों के खेल-गीत नानसेंस वाले 'सेंस' से भरे हुए मिलते हैं। अंग्रेज़ी और दीगर भाषाओं में नानसेंस की पुरानी परंपरा है, जहाँ कई बार अभिव्यक्तियाँ इतनी स्पष्ट न होकर सचमुच ऊटपटाँग सी होती हैं। इनको साहित्यिक विधा की तरह लेने में एक दुविधा बिम्बग्रहण की समस्या की रही है। George A. Miller के आलेख 'Images and Models, Similes and Metaphors' (A. Ortony, Metaphor and Thought, Cambridge University Press, 1980) में उद्धृत यह कविता देखिएः-
One bright day in the middle of the night
Two dead boys got up to fight
Back to back they faced each other
Drew their swords and shot each other
A deaf policeman heard the noise
And came and killed those two dead boys

एक दिवस जब खिली धूप थी मध्य रात्रि को
दो मृत बच्चे उठ आपस में भिड़े हुए थे
मुँहामुँही थे वार कर रहे पीठ सटाकर
खींच कटार दाग दी गोली इक दूजे पर
सिपाही बहरा दौड़ा आया आवाजें सुनकर
दोनों मृत बच्चों का उसने दिया कत्ल कर।
(अनु० सुवास कुमार)



पंजाब में लोहड़ी के त्यौहार के दौरान गाया जाता 'सुंदरी वे मुंदरिए...' और मध्य प्रदेश के कई क्षेत्रों में 'पोसम राजा' जैसे अनेक गीतों को इकट्ठा कर उन पर काम किया जाना ज़रुरी है। पर्याप्त ध्यान के बिना ये गीत धीरे धीरे विलुप्त हो जाएँगे। हमारी उम्मीद है कि 'अगड़म बगड़म' के इस प्रकाशन से इस दिशा में जागरुकता फैलेगी। नानसेंस की अच्छी समझ गंभीर साहित्य के लेखन में प्रेरणा का काम करती है। नागार्जुन ('मंत्र' या अन्य कविताएँ), रघुवीर सहाय ('अगर कहीं मैं तोता होता' आदि कविताएँ), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ('बतूता का जूता' आदि) या अन्य कई कवियों की रचनाओं में हम यह बात देख सकते हैं। अन्यथा गंभीर या वैचारिक सामग्री को रसीले तरीके से सीधे पाठक के अंतस् तक पहुँचाने का इससे बेहतर तरीका और कोई नहीं है।
हिंदी में सुकुमार की कृतियों को पाठकों के सामने लाने का पहला प्रयास लाल्टू ने 1988 में किया था और 'आबोल ताबोल' की बीस कविताएँ 'अगड़म बगड़म' शीर्षक से पुस्तक रूप में कथाकार प्रकाशक अशोक अग्रवाल (संभावना प्रकाशन) के तत्वावधान में प्रकाशित हुई थीं। साथ ही गद्य कृति 'हयवरल' का अनुवाद भी प्रकाशित हुआ था। गद्य का अनुवाद तो काफी हद तक संतोषजनक था, पर 'अगड़म बगड़म' पर और काम किया जाना जरूरी था। वर्षों तक इस पर सोचते रहने के बाद संपूर्ण 'आबोल ताबोल' का अनुवाद अब पाठकों के सामने आ रहा है। सुधी पाठक आंचलिक से लेकर व्यापक स्तर तक हर तरह के शब्द, मिजाज़ और अंदाज़--बयाँ का लुत्फ उठा पाएँगे, ऐसा हमारा विश्वास है।
अनुवाद पर काम करते हुए कई साथियों से हम बातचीत करते रहे और शब्दों के सही अर्थों को जानने में उनकी मदद लेते रहे। मेरे वरिष्ठ वैज्ञानिक साथी अभिजित मित्रा को हमने जब तब फोन कर तंग किया और उन्होंने हमेशा पूरी गंभीरता के साथ हमारे सवालों का जवाब दिया। भौतिक शास्त्री अशोक चैटर्जी ने एक कविता का अपने ढंग से अनुवाद कर हमें अपना काम और बेहतर करने में मदद की। इन सभी साथियों को हमारा धन्यवाद। 

                                                                                     - अनुवादक द्वय
                                                                                      हैदराबाद, 2011

Comments

uma said…
achchha anuwad, aapka mail id ya no chaiye
उमा जी, आपने अपना ईमेल पता तो लिखा ही नहीं, यह रहा मेरा -
laltu10 at gmail.com

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('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख) ' मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती ' - मिर्ज़ा ग़ालिब ' काल , तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। /  इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ ' - शमशेर बहादुर सिंह ; हिन्दी कवि ' मैं जा सकता हूं / जिस किसी सिम्त जा सकता हूं / लेकिन क्यों जाऊं ?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय , बांग्ला कवि ' लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर  हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए  तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी हमारी हर सोच जीवन - केंद्रिक है , पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों - कलाकारों ने जितना सृजन किया है , उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति - सापेक्ष होती हैं , यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है , देर - सबेर हम सब को मौत का सामना करना है , और मरने पर हम निष्क्रिय...

फताड़ू के नबारुण

('अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित) 'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण! 1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हू...

 स्त्री-दर्पण

 स्त्री-दर्पण ने फेसबुक में पुरुष कवियों की स्त्री विषयक कविताएं इकट्टी करने की मुहिम चलाई है। इसी सिलसिले में मेरी कविताएँ भी आई हैं। नीचे उनका पोस्ट डाल रहा हूँ।  “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” ----------------- मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपन...