इस आलेख का एक संक्षिप्त प्रारूप आज के जनसत्ता में आया है। कुछ बातें पुरानी हैं जो 11 साल पहले जनसत्ता मेंही छपे एक आलेख में थीं, कुछ इसी ब्लॉग के पुराने चिट्ठों में थींः
लकीरें
खींच कर माँ को बच्चों से जुदा
करने के खिलाफ
एक सत्तर
साला दादी माँ अपने परिवार
के साथ रहना चाहती है; परिवार
तक पहुँचने की उसकी दौड़ दो
मुल्कों के बीच छोटी सी जंग
की शुरूआत है। इस बात को हमें
कई कई बार कहना चाहिए। हो सकता
है कि बार बार कहते रहने से
कभी हम समझ ही जाएँ कि देश,
देश की ज़मीन,
सुरक्षा आदि शब्द
कितने भयानक होते हैं, जब
वे हुक्मरानों और उनके सिपहसालारों
का मसला बनकर पेश आते हैं।
जंग कभी
भी 'छोटी' नहीं
होती। एक सिपाही की मौत एक
इंसान की मौत है। एक वयस्क की
मौत, जिससे उसके
बच्चे अनाथ हो जाते हैं। साहिर
की पंक्तियाँ हैं- 'टैंक
आगे बढ़ें या पीछे हटें, कोख
धरती की बांझ होती है'।
एक सैनिक के मरने या घायल होने
पर सरकार उसे पुरस्कार दे दे
या उसे धन दे दे तो तो उस क्षति
कि पूर्ति नहीं होती जो एक
बाप, भाई या आजकल
की स्त्री सिपाही, माँ
या बहन के अचानक दुनिया से कूच
कर जाने से या घायल होने से
हुई होती है। आम
तौर पर जंग का माहौल ऐसा होता
है कि कोई उस पर सवाल खड़ा करे
तो अपने मुल्क में उसे गद्दार
घोषित कर दिया जाता है। जंग
के कारणों या दो मुल्कों की
सीमा पर परिस्थिति के बिगड़ने
पर जंग के अलावा और क्या विकल्प
हो सकते हैं,
इस
पर व्यापक चर्चा संभव नहीं
होती। दोनों ओर से लड़ो,
मारो
का शोर बढ़ता रहता है। अपने
पक्ष का हर मरने वाला शहीद और
दूसरी ओर का मृत सिपाही जानवर
होता है। दुश्मन को मजा चखा
दो। एक बार अच्छी तरह उनको सबक
सिखाना है। हर
जंग में ऐसी ही बातें होती
हैं। एक जंग खत्म होती है,
कुछ
वर्ष बाद फिर कोई जंग छिड़ती
है। तो क्या दुश्मन कभी सबक
नहीं सीखता!
भारत
और पाकिस्तान के हुक्मरानों
ने पिछले पैंसठ बरसों में चार
ब़ड़ी जंगें लड़ीं। इन जंगों
में कौन मरा?
क्या
आई एस आई के वरिष्ठ अधिकारी
मरे?
क्या
पाकिस्तान के तानाशाह मरे?
नहीं,
जंगों
में मौतें राजनीति और शासन
में ऊँची जगहों पर बैठे लोगों
की नहीं,
बल्कि
आम सिपाहियों और साधारण लोगों
की होती हैं क्या यह बात हर
कोई जानता नहीं है?
ऐसा
ही है,
लोग
जानते हैं,
फिर
भी जंग का जुनून उनके सिर पर
चढ़ता है। लोगों को शासकों
की बातें ठीक लगती हैं;
वे
अपने हितों को भूल कर जो भी
सत्ताधारी लोग कहते हैं,
वह
मानने को तैयार हो जाते हैं।
अगर ऐसा है,
तो
उन मुल्कों में लोकतंत्र पर
सवाल उठना चाहिए,
जहाँ
ऐसी जंगें लड़ी जाती हैं।
इस
बार स्थिति ऐसी है कि दोनों
मुल्कों में माहौल ऐसा है कि
अपनी सरकारों पर से लोगों का
विश्वास उठता जा रहा है। इसलिए
दोनों ओर समझदारी की बातें
पहले की अपेक्षा अधिक सुनने
में आ रही हैं। अंग्रेज़ी के
अखबार 'द
हिंदू'
में परसों
मुख्य पृष्ठ पर खबर छपी कि ऊरी
के निकट चंदौरी गाँव की सत्तर
साला दादी माँ की दौड़ से ऐसे
घटनाक्रम की शुरूआत हुई जिसका
परिणाम दोनों ओर से एकाधिक
जानों के नुक्सान में हुआ है।
एक बूढ़ी औरत सीमा पार कैसै कर
गई, इस
बात से परेशान भारत के सीमारक्षियों
ने गोलीबारी बंद करने की दो-तरफा
शर्तों को तोड़ कर बंकर बनाने
शुरू किए;
पाकिस्तानियों
ने विरोध करते हुए घोषणाएँ
कीं, फिर
गोलीबारी की और भारतीय सिपाहियों
ने जवाबी हमला किया। अंततः
दोनों ओर जानें गईं,
जानें
जो बच सकती थीं। खबर को पढ़कर
लगता है कि तनाव की स्थिति में
भी भारतीय पत्रकारों ने स्थिति
का सही जायजा लेने की कोशिश
की है।
चिंता
की बात यह है कि एक बूढ़ी अम्मा
जिससे किसी ने कभी नहीं पूछा
होगा कि वह किस ज़मीं पर रहना
चाहती है,
वह
परिवार से अलग रहने को मज़बूर
थी तो क्यों -
ऐसे
सवालों की जगह हुकूमतों के
पास नहीं होती। अगर उसे आराम
से जब मर्जी अपने परिवार के
पास जाने की आज़ादी होती तो
वह सीमा पार करने का ग़ैरकानूनी
तरीका क्यूँकर अपनाती। आखिर
किसी और को क्या हक है कि हम
उस इंसान को अपने बच्चों के
पास जाने से रोकें। क्या
देश-प्रेम
इसी को कहते हैं कि हम ज़मीं
पर लकीरें खींच कर एक माँ को
उसके बच्चों से जुदा कर दें!
देश
नामक ऐसी भ्रामक धारणा से
मुक्त होने की कोई आसान राह
नहीं है। व्यावहारिक रुप से
देश की जो धारणा है,
एक
बड़े जनसमुदाय का कम से कम
सिद्धांततः स्वशासन में होना
या अपने चुने प्रतिनिधियों
के द्वारा शासित होना -
यहाँ
हमारा मकसद इसके खिलाफ नारा
बुलंद करना नहीं है -
यह
जानते हुए भी कि जन्म से पहले
हममें से किसी ने भी अपना देश
नहीं चुना। यह भी नहीं कि
भौगोलिक रुप से परिभाषित किसी
देश में बाहर के घुसपैठिए आकर
गड़बड़ी करें तो हम उसका विरोध
न करें। पर देश नामक उस धारणा
का विरोध ज़रूरी है जो निहित
राजनैतिक स्वार्थों से जुड़ी
है और जिसके नाम पर सैनिकों
को जान कुर्बान करनी पड़ती है।
देश सचमुच जो ज़मीन,
हवा
या पानी है,
वह
कभी खिड़की से दिखने तक सीमित
नहीं है,
वह
तो धरती से भी परे न जाने किस
अनंत तक फैली है। कई लोग कहेंगे
कि इस ज़मीन,
हवा
पानी को बचाने के लिए ही तो
सेना की ज़रुरत है। इस तरह की
एक कल्पना ही आज मूर्त रूप से
हमारे सामने है कि इंसान इंसान
के खिलाफ हिंसक है और बचने के
लिए हमें सेनाओं की ज़रुरत
है। इसके बनिस्बत हम चाहते
हैं एक और कल्पना जो अधिक संभव
होनी चाहिए कि इंसान इंसान
से प्यार करता है सबको मान्य
हो।
दुःख
की बात यह है कि अब तक सेनाओं
का उपयोग शासकों ने इंसान का
नुक्सान करने के लिए ही किया
है। आज के समय की ख़ास बात यह
है कि एक ही घटना को लेकर कई
सच निर्मित हो सकते हैं और बड़ी
जल्दी ही इनमें से हर एक दूसरे
से बेहतर और ज्यादा बड़ा सच बन
सकता है। पर कुछ बातें शाश्वत
सच होतीं हैं। आश्चर्य यह होता
है कि कई लोग उनको मानते या
नहीं देख सकते। सेनाएँ हिन्दोस्तान
में या पकिस्तान में कहीं भी
मानवता की रक्षा करने के लिए
नहीं बनाई जातीं। देश नामक
अमूर्त्त कुछ के लिए मरना और
कुछ भी हो,
आखिर
है तो मरना ही। इस सत्य की
भयावहता अपने आप में ही अमानवीय
है -
इसलिए
जब तनाव तीव्र हो तो सिपाही
इधर का हो या उधर का हो,
वह
एक क्रूर दानव ही होता है। हर
इंसान में दानव बनने की संभावना
होती है -
सेनाओं
का वजूद इसी संभावना पर टिका
है। जब हम किसी एक सेना को दूसरी
सेना से बेहतर मानते हैं,
हमारे
अन्दर भी एक दानव ही बोल रहा
होता है। जैसे कई लोगों को यह
भ्रम है कि उनके देश की सेना
में कोई ऐसी खासियत है उसे जो
उसे अन्य दीगर मुल्कों की
सेनाओं से ज्यादा मानवीय बनाती
है। जब कि सच यह है कि सेना में
कोई भी किसी महान इंसान बनने
के इरादे से नहीं जाता,
सैनिकों
को एक ही बात समझाई जाती है कि
उन्हें एक देश नामक कुछ के लिए
लड़ना है। नीचे के तबके के
सैनिकों को लगभग अमानवीय
हालतों में रहकर और लगातार
अफसरों की डाँट-फटकार
सुनते रहकर काम करना पड़ता
है। प्रसिद्ध अमेरिकी इतिहास
लेखक हावर्ड ज़िन जो यहूदी
था और जर्मनी के खिलाफ लड़ा,
उसने
अपने एक प्रसिद्ध साक्षात्कार
में कहा था 'there
are no just wars' (कोई
भी जंग न्याय-संगत
नहीं होती)।
सेनाओं की विलुप्ति में ही
मानव की भलाई है।
यह
आम धारणा है कि युद्ध सरदार
किसी एक मुल्क के साथ जुड़े
होते हैं। सच यह है कि लोगों
की स्वाभाविक देशभक्ति को
राजनेता अपने हितों के लिए
इस्तेमाल करते हैं और राजनेताओं
का इस्तेमाल वे लोग करते हैं
जिनके लिए पैसा और ताकत सबकुछ
है। कल्पना करें कि किसी एक
देश की सेना ने किसी और के हमले
के जवाब में नाभिकीय मिसाइल
दाग दिया। युद्ध सरदारों की
प्रतिक्रिया क्या होगी?
लोग
मानते हैं कि आक्रोश होगा,
बदले
की भावना होगी। मेरा मानना
है कि सचमुच व्यापक आक्रोश
होगा,
पर
युद्ध सरदारों को नहीं,
उन्हें
सिर्फ मजा आएगा। लाखों लोगों
का मारा जाना उनके लिए कोई बात
नहीं है। उनका कोई देश नहीं
है,
कोई
भी उनका अपना नहीं है। उन्हें
बड़ी खुशी होगी कि रास्ता खुल
गया है और अब आतिशबाजी शुरू।
हिंद-पाक
के बीच विवाद का एक मसला है,
यह है
काश्मीर का मसला। काश्मीर के
मसले को औसत भारतीय मुसलमानों
की शरारत और औसत पाकिस्तानी
हिंदुओं की शरारत मानता है,
इसीलिए
दोनों देशों में इस मसले पर
लोकतांत्रिक बहस का गंभीर
अभाव है। काश्मीरी पृथकतावादियों
को फिर भी अखबारों में थोड़ी
बहुत जगह मिलती है,
पर काश्मीर
समस्या पर कैसे विकल्प हमारे
सामने हैं,
इस पर
मुख्यधारा के विचारकों ने
लोकतांत्रिक बहस बहुत कम की
है।
बीसवीं सदी के आखिरी दशकों में विश्व में कई मुल्क टूटे; कई आर्थिक संबंधों में सुधारों के जरिए बहुत करीब हुए। रूस का विभाजन हुआ, चेकोस्लोवाकिया टूटा, दूसरी ओर यूरोपी संघ बना। यूरोप के दस देशों के बीच संधि के अनुसार उनकी सीमाएँ प्राय: विलुप्त हो गईं। पूर्वी तिमोर और उत्तरी सूडान नामक देश पिछले दशक में ही आज़ाद हुए। ऐसी स्थिति में भारत का `काश्मीर हमारा अविच्छिन्न अंग है' कहना और पाकिस्तान का काश्मीर को अपने में शामिल करने की रट बेमानी है। दोनों ओर आम लोगों को इसकी बेहिसाब कीमत चुकानी पड़ी है। भारत को प्रतिदिन सवा सौ करोड़ रूपए काश्मीर पर खर्च करने पड़ते हैं। दोनों मुल्कों के बीच करीब दस हजार वर्ग किलोमीटर की उपजाऊ जमीन अधिकतर बेकार पड़ी रहती है। काश्मीर से गुजरात तक सीमा पर यातायात, व्यापार, सब कुछ कहीं बंद है तो कहीं
बहुत ही सीमित पैमाने में खुला है। विश्व-व्यापार की बदलती परिस्थितियों में यह स्थिति शोचनीय है। मानव विकास के आंकड़ों में विश्व के दो-तिहाई देशों से पीछे खड़े ये मुल्क अरबों खर्चकर आयातित तकनीकी से नाभिकीय विस्फोट करते हैं और शस्त्र बनाने वाले उन मुल्कों को धन भेजते रहते हैं, जो एक अरसे से इकट्ठे होकर अपनी स्थिति मजबूत करने में जुटे हुए हैं।
क्या काश्मीर समस्या का कोई समाधान नहीं है? क्या भारत और पाकिस्तान की जनता इतनी बेवकूफ है कि ये 'यह ज़मीन हमारी है' कहते-कहते खुद को और आनेवाली पीढ़ियों को तबाह कर के ही रहेंगीं। सोचा जाए तो विकल्प कई हैं पर क्या ये शासक आपस में बात करेंगे? क्या ये लोगों को समाधान स्वीकार करने के लिए तैयार करेंगे? क्या विभिन्न राजनैतिक पार्टियाँ सत्ता पाने के लिए काश्मीर के मसले से खिलवाड़ रोकेंगीं?
काश्मीर पर कई बातें आम लोगों तक पहुँचाई नहीं जातीं।
वैकल्पिक समाधान क्या हैं? पहला तो यही कि कम से कम पचीस या पचास सालों तक नियंत्रण रेखा को अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लिया जाए और सीमा पर रोक हटा दी जाए।सांस्कृतिक और व्यापारिक आदान-प्रदान पूरी तरह चालू किया जाए नियत अवधि के बाद मतगणना के जरिए काश्मीर का भविष्य हमेशा के लिए तय हो। पूरे क्षेत्र को असामरिक (डी-मिलिटराइज़ड) घोषित किया जाए और संयुक्त राष्ट् संघ को वहां शांति बहाल करने के लिए कहा जाए। इसका दो-तिहाई खर्च भारत और एक-तिहाई पाकिस्तान दे।
वैकल्पिक समाधान क्या हैं? पहला तो यही कि कम से कम पचीस या पचास सालों तक नियंत्रण रेखा को अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लिया जाए और सीमा पर रोक हटा दी जाए।सांस्कृतिक और व्यापारिक आदान-प्रदान पूरी तरह चालू किया जाए नियत अवधि के बाद मतगणना के जरिए काश्मीर का भविष्य हमेशा के लिए तय हो। पूरे क्षेत्र को असामरिक (डी-मिलिटराइज़ड) घोषित किया जाए और संयुक्त राष्ट् संघ को वहां शांति बहाल करने के लिए कहा जाए। इसका दो-तिहाई खर्च भारत और एक-तिहाई पाकिस्तान दे।
आज स्थिति ऐसी है कि मौजूदा तनाव पर पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट् संघ द्वारा जाँच का सुझाव रखा है, तो इंडिया ने इस सुझाव को खारिज कर दिया है। भला क्यों? दो मुल्कों में तनाव हो तो यू एन ओ जाँच करे तो इसमें बुरा क्या है? यू एन ओ बना ही इसीलिए है कि ऐसी स्थिति में एक निर्णायक भूमिका अपनाए।
हम वर्षों पहले यह मत प्रकट कर चुके हैं कि काश्मीर को पूरी तरह आज़ाद घोषित करना भारत और पाकिस्तान दोनों के हित में हो सकता है। अगर ऐसा हो, आने वाले दशक में आर्थिक संबंधों में सुधार के साथ दक्षिण एशिया के देशों का एक महासंघ बन सकता है। ज़रा सोचिए, हमें कैसा काश्मीर चाहिए, जहाँ हम जाने से डरते हों या जहाँ खुशी से जाएं और सम्मान के साथ लौटें! एक आखिरी विकल्प है दक्षिण एशियाई व्यापार संघ की ओर तेजी से कदम उठाना। हमारा पुराना विचार है कि यह एक तरह हिंद पाक का फिर से इकट्ठा होना जैसा होगा। सोच कर देखें तो करोड़ों खर्च कर एक दूसरे की हत्या करने की तुलना में यह फंतासी भी अधिक संभव होनी चाहिए। हर युद्ध का लंबे समय तक देश की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। आवश्यक सामग्रियों की कीमतें बढ़ती हैं। असुरक्षा का माहौल वर्षों तक बना रहता है।
हम वर्षों पहले यह मत प्रकट कर चुके हैं कि काश्मीर को पूरी तरह आज़ाद घोषित करना भारत और पाकिस्तान दोनों के हित में हो सकता है। अगर ऐसा हो, आने वाले दशक में आर्थिक संबंधों में सुधार के साथ दक्षिण एशिया के देशों का एक महासंघ बन सकता है। ज़रा सोचिए, हमें कैसा काश्मीर चाहिए, जहाँ हम जाने से डरते हों या जहाँ खुशी से जाएं और सम्मान के साथ लौटें! एक आखिरी विकल्प है दक्षिण एशियाई व्यापार संघ की ओर तेजी से कदम उठाना। हमारा पुराना विचार है कि यह एक तरह हिंद पाक का फिर से इकट्ठा होना जैसा होगा। सोच कर देखें तो करोड़ों खर्च कर एक दूसरे की हत्या करने की तुलना में यह फंतासी भी अधिक संभव होनी चाहिए। हर युद्ध का लंबे समय तक देश की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। आवश्यक सामग्रियों की कीमतें बढ़ती हैं। असुरक्षा का माहौल वर्षों तक बना रहता है।
दक्षिण एशिया के आम आदभी का भाग्य फिलहाल तो किसी समाधान से दूर ही नजर आता है। ऐसे में देश की जनता को तय करना है कि इस जुनून में उसका क्या फायदा हो रहा है। अगर देश में लोकतंत्र है तो लोगों को सरकार से पूछना होगा कि आखिर काश्मीर मसले पर वह पाकिस्तान से बात करने में कतराती क्यों है? देशहित या सत्ता का लालच - शासकों की नीतियों की प्रेरणा का स्रोत सचमुच क्या है? अभी तो ऐसा लगता है कि जहाँ एक ओर आतंकवादी गुटों को पाकिस्तान की हुकूमत के कुछ हिस्सों का सक्रिय समर्थन है, वहीं दूसरी ओर कई मामलों में भारत की सरकार का रवैया नैतिक दृष्टि से सरासर गलत है। हमें देर-सबेर यह समझना होगा कि बड़ी ज़मीन से देश बड़ा नहीं होता है। जंगखोरी किसी भी मुल्क की तबाही की गारंटी है। हमारे संसाधन सीमित हैं। काश्मीर समस्या के सभी विकल्प तकलीफदेह हो सकते हैं, पर इस भावनात्मक जाल से हमें निकलना होगा और देश की बुनियादी समस्याओं के मद्देनजर दुनिया के और मुल्कों की तरह हमें भी कुछ तकलीफदेह निर्णय लेने होंगे। इसमें जितनी देर होगी, उसमें हमारी ही हार है।
जहाँ तक जंग का सवाल है, अनगिनत विचारकों ने यह लिखा है कि `सीमित युद्ध' या `लिमिटेड वार' नाम की कोई चीज अब नहीं है। दोनों मुल्कों के पास नाभिकीय शस्त्र हैं। दोनों ओर कट्टरपंथ और असहिष्णुता है। अगर जंग छिड़ती है तो दोनों मुल्क में लाखों लोगों को जानमाल का गंभीर खतरा है और इस बंदरबाँट में अरबों रूपयों के शस्त्र और जंगी जहाज बेचनेवाले मुल्कों को लाभ ही लाभ है। प्रसिद्ध अमेरिकी काथाकार रे ब्रेडबरी ने 1949 में नाभिकीय युद्ध के बाद की स्थिति पर एक कहानी लिखी थी, जिसमें अगस्त 2026 के बारे में कल्पना करते हुए सिर्फ एक कुत्ते को जीवित दिखाया है। इंसान की बची हुई पहचान उसकी छायाएँ हैं जो विकिरण से जली हुई दीवारों पर उभर गई हैं। बाकी उस की कृतियाँ हैं- पिकासो और मातीस की कृतियाँ जिन्हें आखिरकार आग की लपटें भस्म कर देती हैं। कहानी के अंत में कुत्ते की मौत के साथ इंसान की पहचान भी विलुप्त हो जाती है। नाभिकीय शस्त्रों का इस्तेमाल ऐसी कल्पनाएँ पैदा कर सकता है। वास्तविकता कल्पना से कहीं ज्यादा भयावह है।
अब नाभिकीय या ऐटमी युद्ध की जो क्षमता भारत और पाकिस्तान के पास है, उसकी तुलना में हिरोशिमा नागासाकी पर डाले एटम बम पटाखों जैसे हैं। अमेरिका जैसे देशों की अर्थ-व्यवस्था शस्त्र बनाने और उनका सौदा करने पर बुरी तरह निर्भर है। भारत में भी ऐसे निहित स्वार्थों की कमी नहीं जो शस्त्र व्यापार को फायदा का सौदा मानते हैं। नाभिकीय शस्त्र इसी कड़ी में एक और भयंकर कदम है। मौत के सौदागरों पर किसको भरोसा हो सकता है? जो राष्ट्रभक्ति या धर्म के नाम पर दस लोगों की हत्या कर सकते हैं, वे दस लाख लोगों को मारने के पहले कितना सोचेंगे, कहना मुश्किल है। पारंपरिक युद्ध में भारत की जीतने की संभावना अधिक है। पाकिस्तान के राष्ट्रीय बजट का सामरिक खाते में जो भी अनुपात खर्च होता हो, कुल निवेशित राशि में वह भारत की बराबरी नहीं कर सकता। अगर पारंपरिक युद्ध में पाकिस्तान हारता है तो वह ऐटमी शस्त्रों का उपयोग करने को मजबूर होगा। जवाबी कार्रवाई में भारत भी ऐसा ही करेगा। इसके बाद की स्थिति में कम से कम सौ सालों तक दक्षिण एशिया क्षेत्र में जी रहे लोगों को इस भयंकर तबाही का परिणाम भुगतना पड़ेगा। आज सीना चौड़ा कर निर्णायक युद्ध और मुँहतोड़ जवाब की घोषणा करने वालों के कूच करने के बाद की दसों पीढ़ियों तक विनाश की यंत्रणा रहेगी। लिमिटेड वार की जगह हमें आलआउट यानी पूर्णतः नाभिकीय युद्ध ही झेलना पड़ेगा।
इसलिए भारत पाक तनाव के बारे में हर समझदार व्यक्ति को गंभीरता से सोचना होगा। मीडिया की जिम्मेदारी इस मामले में कहीं ज्यादा है। आम लोगों को भड़काना आसान है। देश की मिट्टी, हवा पानी से हम सबको प्यार है। वतन के नाम पर हम मर मिटने को तैयार हो जाते हैं। इस भावनात्मक जाल से लोगों को राजनेताओं ने नहीं निकालना। यह काम हर सचेत व्यक्ति को करना है। जहाँ पाकिस्तान में सभ्य समाज का नारा दे रहे कुछ लोग जंग के विरोध में खड़े हुए हैं, उसी तरह हमें भी समझना होगा कि इस वक्त सबसे वड़ा संकट जंगखोरों द्वारा हम और आनेवाली पीढ़ियों को निश्चित विनाश की ओर धकेला जाना है। इसी लिए अरस्तू से लेकर आइंस्टाइन तक हर जागरुक चिंतक ने संकीर्ण अर्थों में देशभक्ति को लिए जाने के खिलाफ कहा है। आइंस्टाइन का कहना था - 'देशभक्ति के नाम पर आदेश मिलते ही बेमतलब की हिंसा, सीनाजोरी, और ऐसी तमाम जघन्य मूर्खताओं से मुझे घोर नफ़रत है।' रे ब्रैडबरी की अगस्त 2026 की कल्पना को साकार करना भी हमारे हाथों में है, जब उसी कहानी में शामिल सेरा टीसडेल की एक कविता की पंक्तियाँ मानव विहीन दुनिया को यूँ बयाँ करती हैं - हम न होंगे, बहार होगी, फुहारें होंगी। यह भी काश्मीर समस्या का एक विकल्प है। जंगखोरों के पास काश्मीर समस्या का यही एक समाधान है। न्यूक्लीयर बटन यानी नाभिकीय शस्त्रों का इस्तेमाल और कुछ ही मिनटों में कहानी खत्म। क्या यही विकल्प हम चाहते हैं?
नहीं, सीमा के दोनों ओर जंग का विरोध करने वालों की भी एक फौज है और वह छोटी नहीं बहुत भारी फौज है। लोग शांति चाहते हैं। हम शिक्षा, रोजगार और स्वस्थ जीवन चाहते हैं। इसलिए काश्मीर समस्या के समाधान के लिए जंग के खिलाफ हम खड़े होंगे। बहुत दीवानगी है, लोग जान पर खेल कर प्यार की बात करने को मैदान में उतरे हुए हैं। काश्मीर के लोगों को भी यह अधिकार मिले कि वे सुरक्षित जीवन बिता सकें और अपने बच्चों को पढ़ते लिखते और खेलते देख सकें - जंग विरोधी मुहिम में यह भी हमें कहना है। बच्चों से मिलने के लिए रेशमा बी को छिप कर सीमा पार न करनी पड़े, कोई भी खुले आम आसानी से सीमा के आर पार आए जाए, यह हमारी माँग है।
हम उम्मीद करते
रहेंगे कि और अधिक लोग इस अमन
की फौज में शामिल हो जाएँ।
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