My Photo
Name:
Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Sunday, February 19, 2006

यातना

लिखूँ तो क्या लिखूँ।
लंबे समय से सब कुछ ही गोलमाल लगता रहा है।
जो ठीक लगता है, वह ठीक है क्या?
जो गलत वह गलत?

शायद ऐसे ही समय में
ईश्वर जन्म लेता है।

*******************

यातना

तालस्ताय ने सौ साल पहले भोगा था यह अहसास
जो बहुत दूर हैं उनसे प्यार नहीं है
दूर देशों में बर्फानी तूफानों में
सदियों पुराने पुलों की आत्माएँ
आग की बाढ़ में कूदतीं

निष्क्रिय हम चमकते पर्दों पर देखते
मिहिरकुल का नाच

जो बहुत करीब हैं उनसे नफरत
करीब के लोगों को देखना है खुद को देखना
इतनी बड़ी यातना
जीने की वजह है दरअसल

जो बीचोंबीच बस उन्हीं के लिए है प्यार
भीड़ में कुरेद कुरेद अपनी राह बनाते
ढूँढते हैं बीच के उन लोगों को
जो कहीं नहीं हैं

समूची दुनिया से प्यार
न कर पाने की यातना
जब होती तीव्र
उगता है ईश्वर
उगती दया
उन सबके लिए
जिन्हें यह यातना अँधेरे की ओर ले जा रही है

हमारे साथ रोता है ईश्वर
खुद को मुआफ करता हुआ।

(पश्यंती; अप्रैल-जून २००१)

*********************************

फिर दिल्ली

दस दिन पहले क्या हुआ
ऐक्सीडेंट हुआ
कैसे
मोबाइल पकड़े लड़की डिवाइडर से उतरी
और ऐेन दो मोटरबाइक्स के सामने
मोटरबाइक्स वालों ने मारा ब्रेक क्रररररंच्च्च्च्च्च्च्.......
पीछे की गाड़ी वाले ने मारा एक मोटरबाइक को धड़ाम
सवार गिरा, लोगों ने उठाया, उठ कर वह लड़की की ओर हाथ उठाके बोला - क्या .........
लड़की अलमस्त सड़क पार बस स्टैंड पर खड़ी होकर मोबाइल पर बातें करती रही
पीछे की गाड़ी में कौन था
मैं था, मेरा मित्र शुभेंदु, यानी कि रामपुर घराने के उस्ताद हाफिज मुहम्मद खाँ का शिष्य और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ऊँची हस्ती और हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय से भागा और यहाँ हैदराबाद सेंट्रल यूनीवर्सिटी में आया प्रोफेसर शुभेंदु घोष और थे दिल्ली से ही आए दो और जीवविज्ञानी कान्फरेंस में कान कटवाने आए थे।
जब गाड़ी चली तो दिल्लीवालों ने कहा (मैंने नहीं) शुकर है दिल्ली नहीं है, अब तक मार-लड़ाई शुरु हो गई होती।
तो दोस्तो चाहे ठहरा या ठहरी, दिल्ली तो दिल्ली है।
शुभेंदु परेशान है - वह दिल्ली वापस जाना चाहता है।

*********************************

रहा मेरा नियमित का रोना तो खबर यह है कि एयरटेल के मोबाइल कनेक्शन दिलाने वाले ने करीब हजारेक रुपए लेकर छः महीने वाला कनेक्शन तो दे दिया। फॉर्म भरते समय यह भी भरना था कि आयकर पैन कार्ड का नंबर क्या है। दो दिन लगे चंडीगढ़ से नंबर पता करने के। फिर बताया कि मैंने पहचान प्रमाण स्वरुप पासपोर्ट का तस्वीर वाला पन्ना तो फोटोकापी कर दिया पर पता वाला पन्ना नहीं किया। हालाँकि चंडीगढ़ के उस फ्लैट को मैं छः साल पहले छोड़ चुका था, पर वह भी भिजवा दिया। पर कनेक्शन कट गया। तो हफ्ते से दौड़भाग चल रही है। तीन दिन पहले दुबारा फ़ॉर्म भरा है। यह है निजीकरण की सच्चाई। और बचाव में सरकारी दमनतंत्र के कानून हैं - ओ, यहाँ आंध्र प्रदेश में बहुत सख्ती है साब,.........

मेरे भारत महान में यह प्रोफेसरों के साथ होता है। और आम आदमी, मतलब वही रामू, श्यामू, रिफ रैफ............वे इंसान थोड़े ही हैं!

Labels:

2 Comments:

Blogger Pratyaksha said...

"हमारे साथ रोता है ईश्वर
खुद को मुआफ करता हुआ।"

"मेरे भारत महान में यह प्रोफेसरों के साथ होता है। और आम आदमी, मतलब वही रामू, श्यामू, रिफ रैफ............वे इंसान थोड़े ही हैं! "

सही लिखा !

12:10 PM, February 20, 2006  
Blogger मसिजीवी said...

"शायद ऐसे ही समय में
ईश्वर जन्म लेता है।"

हे ईश्‍वर।। ईश्‍वर के जन्‍म लेने का महूर्त फिर आ गया क्‍या ? इधर आसाराम, सुधॉंशु महाराज, रामदेव ... और न जाने क्‍या क्‍या की बढ़ती दुकानदारी से आशंका तो मुझे भी हो रही थी। खैर चलिए उससे भी निपटेंगें कहीं संन तो नहीं रहं होंगे ये साहब ? वैसे शालिनी (http://1jharokha.blogspot.com/2006/02/blog-post_08.html) को तो यही लगता है।

7:47 PM, February 22, 2006  

Post a Comment

<< Home