हे गति के अखिल नियम............
मेरे पहले पाँच दिन यहाँ ऐसे गुजरे कि जैसे सदियों की थकान खत्म हो गई। ट्रेन में मुझे बिल्कुल सामने दो बर्थ वाले कूपे में ही जगह मिल गई और दूसरा बर्थ खाली था। इसलिए यात्रा बड़ी बोरिंग रही। कुछ विज्ञान और कुछ 'हंस' का जनवरी अंक पढ़ता रहा। खिड़की से अधिकतर समय कुछ दिखता नहीं था। जितना देखा, वह सतपुड़ा के जंगलों का नजारा था। जब भी इधर से गुजरा हूँ, आँखों से इस परिवेश को जी भर भर के पीने की कोशिश की है। सुनील की तरह अच्छा डिजिटल कैमरा होता भी तो भी बतला नहीं पाता कि यहाँ कि जमीन और हरियाली मुझे कितनी भाती है।
यहाँ आया तो पहली फैकल्टी मीटिंग में आधा वक्त इस बात पर चर्चा हुई कि जीवन विद्या शिविर में क्या क्या हुआ और छात्रों की बातें क्या क्या थीं वगैरह। यह बड़ा अद्भुत अनुभव था कि खुद संस्थान निर्देशक इस शिविर में भाग लेकर अपने अनुभव सुना रहे थे। पंजाब विश्वविद्यालय में दुपहियों में आने वाला हर कोई कैंपस में घुसते ही हेलमेट उतार देता है। यहाँ बाहर हाईवे पर बिना हेलमेट आप स्कूटर चला सकते हैं, पर अंदर सख्ती है कि हेलमेट पहनना होगा। वैसे तो यह एक प्रतीक की तरह है कि मूल्यों का कितना अंतर है। कैंपस का बड़ा भाग वाहनों के लिए प्रतिबंधित है। पं वि वि में देखते देखते हर विभाग के सामने की हरी ज़मीन पार्किंग लॉट में तबदील हो गई। पर सबसे रोचक बात मैं नीचे लिख रहा हूँ।
१९८५ में चंडीगढ़ पहुँच कर तीन महीने मैं होस्टल में ठहरा था (यहाँ भी ऐसा है, पर एक अलग से ऐटेच्ड बाथरुम वाले एग्ज़ीक्क्यूटिव विंग में है)। मेरे प्रयास से एक दीवार पत्रिका की शुरुआत हुई थी, जिसका संपादन वगैरह छात्रों ने ही किया था। सिर्फ इसलिए नहीं कि मैं अमरीका से लौटा था, जहाँ विश्वविद्यालय के होस्टल में छात्र अपने साथी (बॉय/गर्ल) के साथ सहवास तक करते हैं, पर इसलिए भी कि मैंने आई आई टी के होस्टल देखे थे, जहाँ भिन्न लिंग के छात्रों के साथ खाने या देर रात तक साथ पढ़ने लिखने आदि पर रुकावट नहीं थी, मुझे यह बड़ा अजीब लगा कि पं वि वि में लिंगभेद पृथक्करण को सख्ती से लागू किया जाता है। मेरी समझ यह भी थी (आज भी है) कि युवा छात्रों में कई तरह की समस्याएं इसी कारण से थीं। चाहे अब चेहरा सफेदी से ढका हुआ है, पर वहाँ कैंपस में युवाओं के बीच बैठ कर मुझे हमेशा तनाव का अहसास हुआ है। मेरा मतलब जेंडर या लिंगभेद के तनाव से ही है।यहाँ मुझे लगा कि उस तनाव से मैं मुक्त हूँ। यहाँ मेस में युवा छात्र एकसाथ खाना खाते हैं.
सभ्य लोग ऐेसी बातें सोचा नहीं करते, पर मैं जरा टेढ़ी नाक वाला हूँ (ध्यान से मेरी शक्ल देखें), तो उन दिनों मैंने छात्रों से ही बात की कि भई यह किस सदी में बैठे हो, इसे बदलो। (मैंने तो शिक्षक संघ का अध्यक्ष बनने के बाद कुलपति से भी कह दिया था कि बच्चों के एकसाथ खाने की व्यवस्था करवा दीजिए, कैंपस की आधी समस्याएँ खत्म हो जाएंगी। कुलपति को मेरी टेढ़ी नाक ज़रुर दिख गई होगी)। तो छात्रों ने मुझे जो कहा वह मुझे भूलता नहीं। इसे सांप्रदायिक पूर्वाग्रह कहें या वर्ग आधारित पूर्वाग्रह कहें, पता नहीं, उनकी धारणा थी अरे सर, आप नहीं जानते ये जो गाँवो से जट्ट लड़के आते हैं, ये बहुत बदमाश हैं। यानी कि मेरे खयाल से उनका मतलब यह था कि बहुत बड़ी तादाद में मानसिक रुप से विकृत युवा विश्वविद्यालय में पढ़ने आ गए थे। मैंने मजाक में उनसे कहा भी कि विश्वविद्यालय बंद कर दो और मानसिक रोगों का चिकित्सालय खोल दो।
जहाँ भी पैसा अधिक लगा है, वहाँ नियम कानून उदार हैं, जहाँ आम लोग शामिल हैं, वहाँ प्रतिबंध ही प्रतिबंध हैं। पैसे वाले लोग या वर्ग गरीबों को इस तरह से ही देखते हैं। सिर्फ पैसे की बात नहीं, शक्ति समीकरण में जो पीछे है, उसी के प्रति यह हेय भावना है। गाँवो से जट्ट लड़के शहरों के लड़कों की तुलना में शक्ति समीकरण में पीछे हैं, तो वे जँगली गँवार हैं। एक बार तो हद ही हो गई थी। मेरा मित्र कवि रुस्तम, मुझसे दो साल बड़ा है। सेना की नौकरी छोड़कर पढ़ने आ गया। एकबार उसे स्लिप डिस्क हो गया तो डॉक्टर ने कहा कि बिस्तर पर आराम करो। उसकी माँ छः घंटे की यात्रा कर उससे मिलने पहुँची तो उसे होस्टल में घुसने ही न दिया गया। किसी तरह मेरे घर पहुँची और रात मेरे यहाँ बिताई। का कहें, दुनिया बनाने वाले, क्या तूने दुनिया बनाई...........
यहाँ तीन दिनों से छात्रों का सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था। मेरे लिए अनोखा अनुभव था। आमंत्रित कलाकारों में पहली रात मंजुला रामस्वामी और उनके पिता के नृत्य शाला के बच्चों का भरतनाट्यम और कल रात आराभी स्कूल से आए बच्चों के वायलिन अॉनसॉमबल की कमाल की प्रस्तुतियाँ देखीं। मैं स्वयं अपनी अँधेरी दुनिया में खोया हुआ था, इसलिए संभवतः इतना आनंद न उठा पाया जितना हो सकता था, पर ऐसी उम्दा स्तर की प्रस्तुतियाँ देखते हैं तो पुरानी एक कविता की पंक्तियों की तरह चीख पड़ने का मन करता है - हे गति के अखिल नियम............या कविगुरु की तरह "आकाश भरा सूर्य तारा, विश्व भरा प्राण, ताहार ही माझखाने आमि पेयेछि मोर स्थान, विस्मये जागे आमार गान....."
अँधेरी दुनिया मेंः जिस दिन यहाँ पहुँचा, उसी दिन एक घोर निजी संकट आ दिमाग पर भारी हो बैठा। कहाँ तो यहाँ आकर क्या देखा, कैसा लगा, यह लिखना था और कहाँ सुबह-शाम रुआँसे होकर घूम रहे हैं। मैंने लिखा था न नीला मेरा मनपसंद रंग है (ओ या, आय सिंग मी' ब्लू....ज़....)। आज ठीक हूँ, पर यह संकट चलेगा। वैसे तो पता नहीं कितने सालों से चल ही रहा है, आदत ही पड़ गई है। जैसे दूसरों को समझाते हैं, खुद को भी समझाते हैं - देख लाल्टू, मसिजीवी के फोटोग्राफ देख (मतलब वो जो ठंड की कहर वाला) और भूल जा कि ग़मी ने तुझ ही से सौदा किया है। पहले दिन कुछ दोस्तों को बतलाया, तो चेतन ने मेरी 'हर कोई' कविता पढ़कर कहा कि मुझे लगा तुमने आज ही लिखी है। तकलीफ में भी हँस पड़े कि हर मौसम के लिए पुराना कुछ लिखा मिल ही जाता है।
चेतन ने टिप्पणी भेजी हैः
मैं में कुछ छूट गया है?
"सच
मैं
वही अराजक
तुम्हारी कामना
वही अबंध
तुम्हारा ढूँढना"
अगर अराजक कामना है, और अबंध ढूँढना, तो "सच मैं" कुछ अधूरा लगता है.
**********************************
मेरी कविताओं में शब्दों को रुक रुक कर पढ़ना जरुरी है।
सच (यह है कि)
मैं (हूँ)
वही अराजक
तुम्हारी (चिरंतन) कामना
वही अबंध
तुम्हारा (चिरंतन कुछ/किसी को) ढूँढना....
अपनी कविता की व्याख्या करना पाप है चेतन, इसमें मुझे मत फँसाओ। अब प्रत्यक्षा डाँटेंगीं कि उन्होंने 'वाह' कुछ और सोच कर लिखा था। (बाकी और भी हैं डाँटने वाले, न ही लिखूँ बेहतर.........)
मेरे पहले पाँच दिन यहाँ ऐसे गुजरे कि जैसे सदियों की थकान खत्म हो गई। ट्रेन में मुझे बिल्कुल सामने दो बर्थ वाले कूपे में ही जगह मिल गई और दूसरा बर्थ खाली था। इसलिए यात्रा बड़ी बोरिंग रही। कुछ विज्ञान और कुछ 'हंस' का जनवरी अंक पढ़ता रहा। खिड़की से अधिकतर समय कुछ दिखता नहीं था। जितना देखा, वह सतपुड़ा के जंगलों का नजारा था। जब भी इधर से गुजरा हूँ, आँखों से इस परिवेश को जी भर भर के पीने की कोशिश की है। सुनील की तरह अच्छा डिजिटल कैमरा होता भी तो भी बतला नहीं पाता कि यहाँ कि जमीन और हरियाली मुझे कितनी भाती है।
यहाँ आया तो पहली फैकल्टी मीटिंग में आधा वक्त इस बात पर चर्चा हुई कि जीवन विद्या शिविर में क्या क्या हुआ और छात्रों की बातें क्या क्या थीं वगैरह। यह बड़ा अद्भुत अनुभव था कि खुद संस्थान निर्देशक इस शिविर में भाग लेकर अपने अनुभव सुना रहे थे। पंजाब विश्वविद्यालय में दुपहियों में आने वाला हर कोई कैंपस में घुसते ही हेलमेट उतार देता है। यहाँ बाहर हाईवे पर बिना हेलमेट आप स्कूटर चला सकते हैं, पर अंदर सख्ती है कि हेलमेट पहनना होगा। वैसे तो यह एक प्रतीक की तरह है कि मूल्यों का कितना अंतर है। कैंपस का बड़ा भाग वाहनों के लिए प्रतिबंधित है। पं वि वि में देखते देखते हर विभाग के सामने की हरी ज़मीन पार्किंग लॉट में तबदील हो गई। पर सबसे रोचक बात मैं नीचे लिख रहा हूँ।
१९८५ में चंडीगढ़ पहुँच कर तीन महीने मैं होस्टल में ठहरा था (यहाँ भी ऐसा है, पर एक अलग से ऐटेच्ड बाथरुम वाले एग्ज़ीक्क्यूटिव विंग में है)। मेरे प्रयास से एक दीवार पत्रिका की शुरुआत हुई थी, जिसका संपादन वगैरह छात्रों ने ही किया था। सिर्फ इसलिए नहीं कि मैं अमरीका से लौटा था, जहाँ विश्वविद्यालय के होस्टल में छात्र अपने साथी (बॉय/गर्ल) के साथ सहवास तक करते हैं, पर इसलिए भी कि मैंने आई आई टी के होस्टल देखे थे, जहाँ भिन्न लिंग के छात्रों के साथ खाने या देर रात तक साथ पढ़ने लिखने आदि पर रुकावट नहीं थी, मुझे यह बड़ा अजीब लगा कि पं वि वि में लिंगभेद पृथक्करण को सख्ती से लागू किया जाता है। मेरी समझ यह भी थी (आज भी है) कि युवा छात्रों में कई तरह की समस्याएं इसी कारण से थीं। चाहे अब चेहरा सफेदी से ढका हुआ है, पर वहाँ कैंपस में युवाओं के बीच बैठ कर मुझे हमेशा तनाव का अहसास हुआ है। मेरा मतलब जेंडर या लिंगभेद के तनाव से ही है।यहाँ मुझे लगा कि उस तनाव से मैं मुक्त हूँ। यहाँ मेस में युवा छात्र एकसाथ खाना खाते हैं.
सभ्य लोग ऐेसी बातें सोचा नहीं करते, पर मैं जरा टेढ़ी नाक वाला हूँ (ध्यान से मेरी शक्ल देखें), तो उन दिनों मैंने छात्रों से ही बात की कि भई यह किस सदी में बैठे हो, इसे बदलो। (मैंने तो शिक्षक संघ का अध्यक्ष बनने के बाद कुलपति से भी कह दिया था कि बच्चों के एकसाथ खाने की व्यवस्था करवा दीजिए, कैंपस की आधी समस्याएँ खत्म हो जाएंगी। कुलपति को मेरी टेढ़ी नाक ज़रुर दिख गई होगी)। तो छात्रों ने मुझे जो कहा वह मुझे भूलता नहीं। इसे सांप्रदायिक पूर्वाग्रह कहें या वर्ग आधारित पूर्वाग्रह कहें, पता नहीं, उनकी धारणा थी अरे सर, आप नहीं जानते ये जो गाँवो से जट्ट लड़के आते हैं, ये बहुत बदमाश हैं। यानी कि मेरे खयाल से उनका मतलब यह था कि बहुत बड़ी तादाद में मानसिक रुप से विकृत युवा विश्वविद्यालय में पढ़ने आ गए थे। मैंने मजाक में उनसे कहा भी कि विश्वविद्यालय बंद कर दो और मानसिक रोगों का चिकित्सालय खोल दो।
जहाँ भी पैसा अधिक लगा है, वहाँ नियम कानून उदार हैं, जहाँ आम लोग शामिल हैं, वहाँ प्रतिबंध ही प्रतिबंध हैं। पैसे वाले लोग या वर्ग गरीबों को इस तरह से ही देखते हैं। सिर्फ पैसे की बात नहीं, शक्ति समीकरण में जो पीछे है, उसी के प्रति यह हेय भावना है। गाँवो से जट्ट लड़के शहरों के लड़कों की तुलना में शक्ति समीकरण में पीछे हैं, तो वे जँगली गँवार हैं। एक बार तो हद ही हो गई थी। मेरा मित्र कवि रुस्तम, मुझसे दो साल बड़ा है। सेना की नौकरी छोड़कर पढ़ने आ गया। एकबार उसे स्लिप डिस्क हो गया तो डॉक्टर ने कहा कि बिस्तर पर आराम करो। उसकी माँ छः घंटे की यात्रा कर उससे मिलने पहुँची तो उसे होस्टल में घुसने ही न दिया गया। किसी तरह मेरे घर पहुँची और रात मेरे यहाँ बिताई। का कहें, दुनिया बनाने वाले, क्या तूने दुनिया बनाई...........
यहाँ तीन दिनों से छात्रों का सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था। मेरे लिए अनोखा अनुभव था। आमंत्रित कलाकारों में पहली रात मंजुला रामस्वामी और उनके पिता के नृत्य शाला के बच्चों का भरतनाट्यम और कल रात आराभी स्कूल से आए बच्चों के वायलिन अॉनसॉमबल की कमाल की प्रस्तुतियाँ देखीं। मैं स्वयं अपनी अँधेरी दुनिया में खोया हुआ था, इसलिए संभवतः इतना आनंद न उठा पाया जितना हो सकता था, पर ऐसी उम्दा स्तर की प्रस्तुतियाँ देखते हैं तो पुरानी एक कविता की पंक्तियों की तरह चीख पड़ने का मन करता है - हे गति के अखिल नियम............या कविगुरु की तरह "आकाश भरा सूर्य तारा, विश्व भरा प्राण, ताहार ही माझखाने आमि पेयेछि मोर स्थान, विस्मये जागे आमार गान....."
अँधेरी दुनिया मेंः जिस दिन यहाँ पहुँचा, उसी दिन एक घोर निजी संकट आ दिमाग पर भारी हो बैठा। कहाँ तो यहाँ आकर क्या देखा, कैसा लगा, यह लिखना था और कहाँ सुबह-शाम रुआँसे होकर घूम रहे हैं। मैंने लिखा था न नीला मेरा मनपसंद रंग है (ओ या, आय सिंग मी' ब्लू....ज़....)। आज ठीक हूँ, पर यह संकट चलेगा। वैसे तो पता नहीं कितने सालों से चल ही रहा है, आदत ही पड़ गई है। जैसे दूसरों को समझाते हैं, खुद को भी समझाते हैं - देख लाल्टू, मसिजीवी के फोटोग्राफ देख (मतलब वो जो ठंड की कहर वाला) और भूल जा कि ग़मी ने तुझ ही से सौदा किया है। पहले दिन कुछ दोस्तों को बतलाया, तो चेतन ने मेरी 'हर कोई' कविता पढ़कर कहा कि मुझे लगा तुमने आज ही लिखी है। तकलीफ में भी हँस पड़े कि हर मौसम के लिए पुराना कुछ लिखा मिल ही जाता है।
चेतन ने टिप्पणी भेजी हैः
मैं में कुछ छूट गया है?
"सच
मैं
वही अराजक
तुम्हारी कामना
वही अबंध
तुम्हारा ढूँढना"
अगर अराजक कामना है, और अबंध ढूँढना, तो "सच मैं" कुछ अधूरा लगता है.
**********************************
मेरी कविताओं में शब्दों को रुक रुक कर पढ़ना जरुरी है।
सच (यह है कि)
मैं (हूँ)
वही अराजक
तुम्हारी (चिरंतन) कामना
वही अबंध
तुम्हारा (चिरंतन कुछ/किसी को) ढूँढना....
अपनी कविता की व्याख्या करना पाप है चेतन, इसमें मुझे मत फँसाओ। अब प्रत्यक्षा डाँटेंगीं कि उन्होंने 'वाह' कुछ और सोच कर लिखा था। (बाकी और भी हैं डाँटने वाले, न ही लिखूँ बेहतर.........)
Comments
यह कविता की व्याख्या को कविगण पाप क्यूँ समझते हैं। मैं भी पहले इस बात पर एक बार डांट खा चुका हूँ। यदि कोई मूढ़ मगज कविता को न समझने की बडाए समझ जाता है तो कवि का तो एक और प्रशंसक ही पैदा हुआ या फिर यह एटलस शरग्ड वाली फिलासफी है।
पंकज
"मैं" को मैंने पहले इसी तरह पढ़ा था जैसी अब तुमने व्याख्या की है, लेकिन
फिर "तुम्हारा ढूँढना" अधूरा लगा. मुझे लगता है कि यहाँ ellipsis
("...") का प्रयोग जरूरी है, तुम कहते हो कविता में punctuation नहीं
करते. अगर तुम "Eats, shoots and leaves" और "Eats shoots and leaves"
के फर्क़ को नज़रअंदाज़ करना कविता का जरूरी हिस्सा मानते हो, तो कवि तुम हो
और मैं संपादक नहीं!
- चेतन