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जैसे मशीन बिगड़ैल

'हंस' पत्रिका के फरवरी अंक में अर्चना वर्मा ने संपादकीय में नारी-पुरुष संबंधों के संदर्भ में सांस्कृतिक हस्तक्षेप, खास तौर पर आधुनिक समय और बदलते मूल्यों को लेकर सारगर्भित संपादकीय लिखा है। उनकी टिप्पणी कि प्रकृति को ढकने से ही संस्कृति के पाखंड की शुरुआत होती है, मुझे अच्छी लगी। मैं अरसे से दोस्तों मित्रों को कहता रहा हूँ कि मानव मस्तिष्क ने जिन आत्मघाती विचारों और उपकरणों की ईजाद की है, व्यक्ति के स्तर पर उनमें सबसे प्रभावी हैं विवाह और कपड़े। दोस्तों को मेरी टेढ़ी नाक का पता है तो वे मेरी बात सुन हँस देते हैं, पर मैं इस बारे में काफी गंभीर हूँ। मेरा मतलब विशेष संदर्भों के साथ जुड़ा है ओर उनसे अलग हट कर मुझे समझा नहीं जा सकता। अगर कपड़ों के आविष्कार को ठंड की मार या मच्छरों से बचने के लिए माना जाए, तो अलग बात है। मैं उस कपड़े की बात करता हूँ जिसके बारे में अर्चना जी की बात है, जो नग्नता ढकने के लिए हैं।

ब्लॉग में विस्तार से लिखना मुश्किल है, टंकन के लिए समय नहीं है। नग्नता को लेकर इतनी बेवजह की कुंठाएँ मानव मन में इकट्ठी हो गई हैं, सोच कर अजीब लगता है कि वह दुनिया भी कैसी होती जिसमें यौन को शरीर के साथ उसी तरह जोड़ के देखा जाता जैसे बाकी शारीरिक क्रियाओं को देखते हैं। अर्चना जी ने हमारे जैसे लोगों की बात कही है जो शरीर को लेकर हजार पाखंडों के खिलाफ हैं, पर साथ ही इस पाखंड की संस्कृति की वजह से पैदा हुई विकृति के शोषण के भी सख्त खिलाफ हैं। मैंने बहुत पहले 'समकालीन जनमत' में लिखे एक खत में इसे हमारी अंतड़ियों तक का शोषण कहा था। इसके लिए पंजाबी में एक शब्द है 'नंगेज़'। नंगे होने में समस्या नहीं है, पर नंगेज़ से हमें चिढ़ है। इसलिए हम यानी मेरे जैसे लोग व्यापारिक सुंदरी प्रतियोगिताओं या फैशन शो वगैरह से चिढ़ते हैं।

करीब छः साल पहले पंजाब विश्वविद्यालय कैंपस में बाजार में हर दूकान में 'कॉस्मोपोलिटन' पत्रिका के बड़े इश्तिहार लगा करते थे। वक्त इतना बदल चुका था कि अधनंगी महिलाओं की तस्वीरों के बारे में कुछ कहने सोचने का मतलब ही नहीं था। पर उन इश्तिहारों में ऐसे लफ्ज़ होते थे, जो बेहद घटिया किस्म के थे। मुझे अचरज यह होता था कि उन पश्चिमी मुल्कों में जहाँ मैं गया हूँ, इस तरह की हर ओर फेंकी गई नंगेज़ मैंने नहीं देखी। 'प्लेबॉय' या 'पेंटहाउस' जैसी पत्रिकाएँ खुली बिकती हैं, पर यह नहीं कि हर मोड़ पर कोई आपके ऊपर रेंग रेंग कर लार फेंकता बुला रहा हो, आओ खरीदो खरीदो। इस बात से भी मुझे चिढ़ थी कि समाज में मुक्त प्रेम तो क्या होस्टलों में भिन्न लिंग के युवाओं को साथ खाने तक की इजाजत नहीं पर इस तरह का फूहड़पन हर ओर। एकबार कैंपस की एकमात्र फार्मेसी दूकान में पता किया तो जाना कि कंडोम नहीं बिकते। दूकानदार ने ऐसे देखा जैसे बाप रे, यह क्या पूछ रहे हैं? संयोग से उन दिनों मैं शिक्षक संघ का सचिव चुना गया। मैंने अध्यक्ष प्रोo परमात्म प्रकाश आर्य से बात की और हम दोनों व्यापारी संघ के अध्यक्ष के पास पहुँचे। मैंने समझाया कि खूब इश्तिहार लगाइए, कोई बात नहीं, पर साल में दोबार अपने संगठन की ओर से हमारे छात्रों के लिए यौन-शिक्षा और एड्स जागरुकता के शिविर भी लगवाइए। दुर्भाग्यवश हम युवाओं में यौन-शिक्षा को 'कॉस्मोपोलिटन' पत्रिका के बड़े इश्तिहारों से ज्यादा खतरनाक मानते हैं या फिर आर्थिक नुकसान का ध्यान रहा होगा, हुआ यह कि इश्तिहार ही हट गए।

अर्चना जी का संदर्भ बड़ा था, वे मलिका शेरावत और महेश भट्ट की उन बातों के संदर्भ में लिख रही थीं जब वे कहते हैं कि आपको पसंद नहीं है तो मत देखिए। मेरे खयाल में जिन्हें यह अंक मिले वे इसे जरुर पढ़ें।

मैंने पिछले एक चिट्ठे में अपने मित्र की बीमारी ओर उसकी माँ को होस्टल में आने से रोकने की बात का जिक्र किया था। इस पर एक कविता मैंने लिखी थी, चेतन की गुजारिश है कि वह मैं चिट्ठे में डालूँ, तो यह रहीः

एक और औरत


एक और औरत हाथ में साबुन लिए उल्लास की पराकाष्ठा पर है
गद्दे वाली कुर्सी पर बैठ एक औरत कामुक निगाहों से ताक रही है
इश्तिहार से खुली छातियों वाली औरत मुझे देख मुस्कराती है
एक औरत फ़ोन का डायल घुमा रही है और मैं सोचता हूँ वह मेरा ही नंबर मिला रही है

माँ छः घंटों की यात्रा कर आई है
माँ मुझसे मिल नहीं सकती, होस्टल में रात को औरत का आना मना है


(वसुधा-मार्च 2005)

मुझे यह मानने में कोई इतराज नहीं है कि अपने निजी दायरे में खास कर कम उम्र में नंगी तस्वीरें मैंने भी खूब देखी हैं और पेंटहाउस प्रायोजित 'कलीगुला' जैसी फिल्में भी देखी हैं और यह भी कि मैं भी एक पुरुष हूँ जिसमें हर दूसरे पुरुष जैसा एक कुंठित व्यक्तित्व है। इसलिए मैंने हमेशा माना है कि नारीमुक्ति से भी अधिक पुरुषमुक्ति आंदोलन की जरुरत है - अपने आप से और पुरुषप्रधान मूल्यों से मुक्ति का आंदोलन। इस प्रसंग में एक और कविता हैः

आज की लड़ाई

कुछ मर्दों की दास्तान ऐसी
जैसे पहाड़ पर धब्बे
जितना ऊँचा उतना ही नंगा
जबकि ठंडक नहीं
ऊँचाई गंदे नालों की
दुर्गंध पहेली


कुछ पुरुषों की कहानी जैसे मशीन बिगड़ैल
घटिया जितनी उतना ही शोर अंग अंग
हालाँकि मशीनों के होते कुछ रंग
हाथ रखो मशीन पर तो फिसफिसाए
ठीक ठीक दबाओ बटन चले ठीक ठाक


कुछ मर्दों पर रखे हाथों पर चढ़ जाते कीड़े
उनकी लपलपाती जीभें
हाथ रखने वालों की शिराओं में घुसतीं दूर
स्थायी विनाश दिमाग की क्यारिओं का होता
इनकी संगति से


कुछ में से कुछ ओढ़ें
लबादा ज्ञान का संघर्ष का
क्या बताएँ उनकी जैसे शैतान के दूत
कहलाएँ महाऋषि होवें नीच भूत


एक लड़ाई है लड़नी
इन कुछ को स्वयं में जानने की।


(पश्यंतीः जनवरी मार्च 1995)

दूसरी आत्मघाती बात यानी विवाह पर अभी कुछ नहीं - और फिर बड़े बड़े कह गए, मेरी क्या बिसात। मैंने देखा कि इधर प्रेम-श्रेम की टैगिंग वैगिंग का कुछ चल रहा है तो उसमें शादी और प्रेम का काफी घालमेल है। रिवर ने कुछ लिखा है जो बहुत अच्छा लगा हालाँकि उनमें पैंतीस साल पहले की ब्लैक-अमेरिकन पोएट्री का प्रभाव (खास तौर पर निकी जोव्हानी का) दिखता है।
मसिजीवी,
'कुछ में से कुछ ओढ़ें
लबादा ज्ञान का संघर्ष का
क्या बताएँ उनकी जैसे शैतान के दूत
कहलाएँ महाऋषि होवें नीच भूत'
इस पर तो तुम मेरे साथ ही होगे! उम्मीद यह कि
'एक लड़ाई है लड़नी
इन कुछ को स्वयं में जानने की'
में भी साथ रहोगे।

Comments

Atul Arora said…
हँस की आनलाईन कड़ी पर तो अभी संपादकिय नही मिला। क्या किसी के पास इसे स्कैन करने कि सुविधा है?
http://www.hansmonthly.com/
यकीनन साथ हूँ लाल्‍टू।

यह एक खूबसूरत पौस्‍ट है आपकी। प्रिंट आऊट ले रहा हूँ अगले सप्‍ताह 'इंटरनेट की हिंदी' पढ़ाना है उसमें इस्‍तेमाल करूंगा।

हम यहाँ इन सवालों पर माथापच्‍ची करते रहे हैं पर हमेशा सवाल बढ़े हैं जबाब नहीं।

शायद अब सोचने नहीं करने का समय है।
Pratyaksha said…
संपादकीय पढना बाकी है , पर आपका पोस्ट सही लगा.
रिवर की कविता भी शानदार !
प्रत्यक्षा

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