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Showing posts from 2017

नया साल मुबारक

कुछ तो शरारत का हक मुझे भी :-) आसान कविता यह कविता आसान कविता है फूल को फूल और चिड़िया को चिड़िया कहती है मोदी को मोदी और हिटलर को हिटलर कहती है बात तुम तक ले जाती है प्रगति - प्रयोग - छायावाद नहीं यहाँ तक कि रेटोरिक भी नहीं है गद्यात्मक है , पर पद्य है आदर्श कविता है दिमाग के तालों को खोलने की कोशिश इसमें नहीं है पढ़कर कवि को दरकिनार करने वाले खेमेबाज लोग इसे तात्कालिक नहीं कहेंगे इस पर जल्द ही किसी मुहल्ले से कोई सम्मान घोषित होगा बिल्कुल आसान है कविता जैसे सुबह का नित्य - कर्म इसे साँचा मानकर चल सकते हैं इसके आधार पर छपने लायक कविताएँ लिख सकते हैं गौर करें कि इसमें कोई हिन्दू या मुसलमान नहीं है दलित आदिवासी स्त्री तो क्या पंजाबी बंगाली नहीं है कुछ नहीं कहती सिर्फ इसके कि बात आप तक ले जाती है बात कोई बात है ही नहीं तो मैं क्या करूँ।          (बनास जन - 2017) मुश्किल कविता ज़ुबान मुश्किल बातां मुश्किल कविता हे कि क्या हे रे हल्लू हल्लू असर डालते हौला कर दिया रे भगाओ इसको अरे मुश्किल अपने ग़ालिब क्या थोड़ा थे होनाइच ह...

हम नहीं हटे, डर हटा पीछे कदम दो-चार

आज 'द लल्लनटॉप' में आ रही कविताएँ -  #1) यह मुश्किल साल था इतना चाहता हूं कि सामने दिखते दरख्त पर चढ़ने की मुकम्मल तैयारी कर सकूं मसलन आबिदा परवीन की गायकी छूट न जाए तनाव के पल कैसे कटेंगे उसके बिना कुछ जैज़ बाजा भी साथ हो कि डालों पर फुदकने का मन हो तो… यह मुश्किल साल था अब जान चुका हूं कि आने वाला हर साल मुश्किल ही होगा इसलिए बिरियानी का पैक साथ ले जाना है भले सब्जियां खाने की उम्र हो गई है पर मछली थोड़े ही छोड़ सकते हैं बुर्ज़ुआ आदतें हैं तो जिन और टॉनिक भी चाहिए; दरख्त पर साथी और भी होंगे सबने कुछ इंतज़ाम किया ही होगा कि साथ-साथ सितारों को देखें नीहारिकाएं और हर कहीं प्यार अनंत कल्पना करें कि सितारों के आगे से धरती कैसी दिखती होगी इस तरह भूल जाएं थोड़ी देर सही बीते साल भर की मुश्किलें बीच-बीच में उतरना तो पड़ेगा अभी ज़मीं पर रंग खिलने बाक़ी हैं हमारे बच्चे जो युवा हो रहे हैं रंगों की तलाश में जुटे हैं उनकी कविताएं सुननी हैं कुछ उन्हें सुनानी हैं कोई साथी दरख्त से उतर रहा होगा देखेंगे हम उसका उतरना फिर सपनों में तैयारी करेंगे खुद उतरने की इस तरह यह धरती यह कायनात बे...

जो उठना है, वह किस गटर में गिरना है

सतह से उठते सवाल : ' सतह से उठता आदमी ' में से निकलते कुछ सवाल - ('नया पथ' के ताज़ा अंक में प्रकाशित लेख) कहा जा सकता है कि ' सतह से उठता आदमी ' मूलत : एक अस्तित्ववादी रचना है। गौरतलब बात यह है कि जब यह कहानी लिखी गई तब विश्व साहित्य में अस्तित्ववादी चिंतन अपने शिखर पर था। पर अस्तित्ववाद आखिर है क्या ? अस्तित्ववाद पर आलोचकों की कई तरह की राय रही है। अक्सर अस्तित्ववाद का उल्लेख आलोचना की गंभीरता मात्र जताने के लिए होता है ; सचमुच आलोचक क्या कहना चाहता है या साफ नहीं होता। अस्तित्ववाद जीवन में किसी बृहत्तर मकसद को ढूँढने से हमें रोकता है। पर ' सतह से उठता आदमी ' कहानी हमें अपने अस्तित्व का एक बड़ा मकसद ढूँढने को कहती है , बशर्ते हमारी संवेदनाएं बिल्कुल कुंद न हो गई हों , जिसका खतरा आज व्यापक है। हमारी कोशिश यहाँ गंभीर आलोचना की नहीं , महज एक खुले दिमाग से पुनर्पाठ की है। ' सतह से उठता आदमी ' में तीन मुख्य चरित्र हैं - कन्हैया लेखक का प्रतिरूप है या कथावाचक की भूमिका में है , कृष्णस्वरूप उसका मित्र है , जो...

बोले तो आस्मां में सूराख बनते चले हैं

हर सुबह सुबह - सुबह शोर। आस्मां नींद में डूबा होता है , उसे झकझोर कर , धकेल कर ,  खड़ा किया जाता है। आस्मां उठ कर धरती को ढक लेता है और हम दिनभर  सच देखने से बच जाते हैं। पहले यह जिम्मेदारी मुर्गों की होती थी कि आस्मां को जगाने की कवायद में  लोगों को तैयार करें। आजकल मोर आगे आने लगे हैं। वक्त ने सचमुच जमाना  बदल दिया कि हमें सच से बचाने नए जानवर सामने आ गए। मसलन एक और खुदकुशी। जो मरता है वह खबर बन जाता है। मीडिया चाहे  न चाहे , लोग हवाओं के लिए कान चौड़े कर लेते हैं। खबर किधर से किधर  बहती है , लोग सूँघकर जान लेते हैं। कोई आस्मां को देख मुतमइन हो जाता है  कि वह हमें सच से बचा लेगा। कोई सच सच सच सच रटने लगता है। थक  जाता है कोई और कोई सो जाता है। क्या है कि दुष्यंत ने उछाल दिया था तबियत से पत्थर। बोले तो आस्मां में सूराख बनते चले हैं। (बनास जन  : जुलाई-सितंबर 2017)

आन फ्रांक, आखिरी बार मर जाओ

आन फ्रांक , तुम्हारी डायरी कब रुकेगी ! मैं सत्य - कथाएँ नहीं पढ़ता कभी तो लिखना बंद करो चारों ओर हँसते खेलते लोग छंद - लय में नाचते - गाते लोग खलनायक बन जाते हैं अब और नहीं सहा जाता लिखना बंद करो आखिरी बार मर जाओ भूल जाएँ हम तुम्हें याद रखें कि कोई था जिसे हम भूलना चाहते हैं डरता हूँ कि तुम मेरी बेटी हो।                                          (बनास जन  : जुलाई-सितंबर 2017) Anne Frank, when will you stop writing your journal! I do not read true stories Please stop writing All around us, decent folks Smiling and dancing in tune Are turning into villains I cannot take it any more Stop writing  Die forever now  Let me forget you Let me remember you as one we want to forget  I fear that you are my daughte...

16 दिसंबर 2002: हमारे समय की राजनीति

(पंद्रह साल पुराना लेख) दैनिक भास्कर,  चंडीगढ़ , सोमवार 16 दिसंबर 2002 यह हमारे समय की राजनीति  है !   प्रसिद्ध अफ्रीकी-अमेरिकी कवि लैंग्सटन ह्यूज की पंक्तियां हैं - एक अपूर्ण स्वप्न का क्या हश्र होगा ? क्या वह धूप में किशमिश दाने जैसा सूख जाएगा ? या एक घाव सा पकता रहेगा - और फिर दौड़ पड़ेगा ? क्या वह सड़े मांस सा गंधाएगा ? या दानेदार शहद सा मीठा हो जाएगा ? शायद वह एक भारी वजन सा दबता जाएगा ? या वह विस्फोट बन फटेगा ? इस साल लैंग्सटन ह्यूज की शतवार्षिकी मनाई जा रही है। इस देश में अंग्रेजी साहित्य पढ़ने वाले लोग भी इस बात से अनजान ही हैं। जैसे पंजाब में करतार सिंह सराभा से अनजान युवाओं की पीढ़ी है। अपने समय की सीमाओं से जूझकर बेहतरी का सपना देखने वालों को हम तब याद करते हैं , जब हम में अपने सपनों को पूरा करने के लिए निरंतर संघर्ष की हिम्मत होती है। परिस्थितियों से हारते हुए हमारे सपने घाव से पकते हैं , उनमें से सड़े मांस की बदबू निकलती है। और विस्फोट जब होता है , तो उसमें जुझारू संघर्षों की जीत नहीं , अज्ञानता और पिछड़ेपन का का...

पत्राचार से तालीम पर सवाल

पत्राचार से तालीम पर सवाल कुछ और भी हैं (' राष्ट्रीय सहारा ' में 9 नवंबर 2017 को ' संजीदा होना होगा ' शीर्षक से प्रकाशित ) सुप्रीम कोर्ट ने हाल में एक अहम फैसला दिया है कि तकनीकी शिक्षा पत्राचार के माध्यम से नहीं की जा सकेगी। सतही रूप से यह बात ठीक लगती है कि तकनीकी तालीम घर बैठे कैसे हो सकती है। खास तौर पर जब ऊँची तालीम के मानकीकरण करने वाले आधिकारिक इदारे यूजीसी और एआईसीटीई ने जिन सैंकड़ों डीम्ड यूनिवर्सिटीज़ को इस तरह के पत्राचार के कार्यक्रम चलाने की इजाज़त नहीं दी है , तो उनकी डिग्री को सचमुच मान्यता नहीं मिलनी चाहिए। अधिकतर लोगों के मन में वाजिब सवाल यह भी है कि ऐसे मुल्क में जहाँ आधी से अधिक जनता मिडिल स्कूल तक नहीं पहुच पाती है और जहाँ सरकार ' स्किल इंडिया ' जैसे छलावों से अधिकतर युवाओं को मुख्यधारा की तालीम से अलग कर रही है , तो ये लोग कहाँ जाएँगे ? ऐसा अनुमान है कि इस फैसले का असर उन हजारों युवाओं पर पड़ेगा , जिन्हें 2005 के बाद पत्राचार से तकनीकी कोर्स की डिग्री मिली है। उनके सर्टीफिकेट अमान्य हो जाएँगे और इसके आधार...