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पत्राचार से तालीम पर सवाल


पत्राचार से तालीम पर सवाल कुछ और भी हैं

('राष्ट्रीय सहारा' में 9 नवंबर 2017 को 'संजीदा होना होगा' शीर्षक से प्रकाशित)



सुप्रीम कोर्ट ने हाल में एक अहम फैसला दिया है कि तकनीकी शिक्षा पत्राचार के माध्यम से नहीं की जा सकेगी। सतही रूप से यह बात ठीक लगती है कि तकनीकी तालीम घर बैठे कैसे हो सकती है। खास तौर पर जब ऊँची तालीम के मानकीकरण करने वाले आधिकारिक इदारे यूजीसी और एआईसीटीई ने जिन सैंकड़ों डीम्ड यूनिवर्सिटीज़ को इस तरह के पत्राचार के कार्यक्रम चलाने की इजाज़त नहीं दी है, तो उनकी डिग्री को सचमुच मान्यता नहीं मिलनी चाहिए।



अधिकतर लोगों के मन में वाजिब सवाल यह भी है कि ऐसे मुल्क में जहाँ आधी से अधिक जनता मिडिल स्कूल तक नहीं पहुच पाती है और जहाँ सरकार 'स्किल इंडिया' जैसे छलावों से अधिकतर युवाओं को मुख्यधारा की तालीम से अलग कर रही है, तो ये लोग कहाँ जाएँगे? ऐसा अनुमान है कि इस फैसले का असर उन हजारों युवाओं पर पड़ेगा, जिन्हें 2005 के बाद पत्राचार से तकनीकी कोर्स की डिग्री मिली है। उनके सर्टीफिकेट अमान्य हो जाएँगे और इसके आधार पर मिली नौकरियों से उन्हें निकाल दिया जा सकता है या आगे पदोन्नति से उन्हें रोका जा सकता है। 2005 से पहले भी पाँच साल तक ऐसी डिग्री पाने वालों को दुबारा एआईसीटीई अनुमोदित इम्तिहान पास करने होंगे।

पत्राचार से जुड़े कई सवाल और हैं, जैसे किसी संस्थान को अपना क्षेत्र अपने मुख्य कैंपस से कितनी दूर तक रखने की अनुमति है, इत्यादि। इन पर भी अदालतें समय-समय पर राय देती रही हैं। यह सब इसलिए मुद्दे बन जाते हैं कि बहुत सारी डीम्ड यूनिवर्सिटी फर्जी सर्टीफिकेट जारी करती रही हैं। पंजाब में गाँव में डॉक्टर के पास मदुराई के विश्वविद्यालय की डिग्री हो तो शक होता है कि क्या माजरा है। इसलिए सतही तौर पर लगता है कि सुप्रीम कोर्ट का यह कदम सराहनीय है।



पर पत्राचार पर इन सवालों से अलग कई बुनियादी सवाल हैं। आखिर पत्राचार से पढ़ने की ज़रूरत क्यों होती है? जो लोग ग़रीबी या और कारणों से नियमित पढ़ाई रोक कर नौकरी-धंधों में जाने को विवश होते हैं, उनके लिए पत्राचार एक उत्तम माध्यम है। नौकरी करते हुए पत्राचार से पढ़ाई-लिखाई कर वे अपनी योग्यता बढ़ा सकते हैं और अपनी तरक्की के रास्ते पर बढ़ सकते हैं। पत्राचार का मतलब यह नहीं होता कि पूरी तरह घर बैठकर ही पढ़ाई हो; बीच-बीच में अध्यापकों के साथ मिलना, उनके व्याख्यान सुनना, यह सब पत्राचार अध्ययन में लाजिम है। जाहिर है इस तरह से पाई योग्यता को मुख्य-धारा की पढ़ाई के बराबर नहीं माना जा सकता है। साथ ही, ऐसे विषय जिनमें व्यावहारिक या प्रायोगिक ज्ञान ज़रूरी हो, उनमें पत्राचार से योग्यता पाना मुश्किल लगता है। इसलिए ज्यादातर पत्राचार से पढ़ाई मानविकी के विषयों में होती है। वैसे ये बातें तालीम से जुड़ी बातें हैं। कोई कह सकता है कि ऐसी समस्याओं का निदान ढूँढा जा सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी जैसे कुछ तकनीकी विषय ऐसे हैं, जिन पर कुछ हद तक पत्राचार से पढ़ाई हो सकती है। जिस तरह की कुशलता की ज़रूरत बाज़ार में है, कॉल सेंटर में काम जैसी कुशलता इससे मिल सकती है। पर गहरा सवाल यह है कि क्या हम मुल्क के नौजवानों को बाज़ार के पुर्जों में तब्दील कर रहे हैं? क्या पत्राचार से पढ़ने वाले युवा अपनी मर्जी से ऐसा कर रहे हैं या कि वे मुख्यधारा से अलग पढ़ने को मजबूर हैं?



कहने को मौजूदा हुकूमत का जुम्ला है - मेक इन इंडिया। जुम्लेबाजी से चीन जैसे विकसित मुल्क के खिलाफ हौव्वा खड़ा किया जा सकता है, देश के संसाधनों को जंगों में झोंका जा सकता है, पर असल तरक्की के लिए मैनुफैक्चरिंग या उत्पादन के सेक्टर में आगे बढ़ना होगा। पर मुख्यधारा की तालीम से वंचित रख युवाओं को 'स्किल' के नाम पर उत्पादन के सेक्टर से हटाकर कामचलाऊ अंग्रेज़ी और हाँ-जी हाँ-जी सुनाने वाली सेवाओं में धकेला जाएगा तो 'मेक' कौन करेगा? आज तकनीकी तालीम का अधिकतर, तक़रीबन 95%, निजी संस्थानों के हाथ में है। सरकारी मदद से चलने वाले संस्थानों में सिर्फ तेईस आई आई टी, बीसेक आई आई आई टी, इकतीस एन आई टी के अलावा यूनिवर्सिटीज़ में इंजीनियरिंग कॉलेज हैं। इसी तरह मेडिकल कॉलेज भी सरकारी बहुत कम ही हैं। यानी कि तकनीकी तालीम में पिछड़े तबकों के लिए आरक्षण का फायदा नाममात्र का है। निजी संस्थानों में आरक्षण उन पैसे वालों के लिए है, जो कैपिटेशन फीस देते हैं। सरकारी एलीट संस्थानों से पढ़कर बड़ी संख्या में छात्र विदेशों में चले जाते हैं। संपन्न वर्गों से आए इन छात्रों में देश और समाज के प्रति वैसे ही कोई प्रतिबद्धता कम होती है। आम युवाओं को इन संस्थानों तक पहुँचने का मौका ही नहीं मिलता है। कहने को भारत दुनिया में सबसे अधिक इंजीनियर पैदा करता है, पर इनमें से ज्यादातर दोयम दर्जे की तालीम पाए होते हैं। यही हाल डॉक्टरों का भी है। ऐसा इसलिए है कि पूँजीपतियों के हाथ बिके हाकिमों को फर्क नहीं पड़ता है कि मुल्क की रीढ़ कमजोर हो रही है, उन्हें सिर्फ कामचलाऊ सेवक चाहिए जो मौजूदा व्यापार की शर्तों में फिट हो सकें।



इसलिए ज़रूरी यह है कि मुख्यधारा के निजी संस्थानों में पिछड़े तबकों के लिए दरवाजे खोले जाएँ। तालीम सस्ती और सुगम हो कि हर कोई योग्यता मुताबिक इसका फायदा उठा सके। यह ज़रूरी नहीं है कि व्यावहारिक तालीम हमेशा अंग्रेज़ी में ही हो। चीन-जापान और दीगर मुल्कों की तर्ज़ पर हिंदुस्तानी ज़ुबानों में तकनीकी साहित्य लिखने को बढ़ावा दिया जाए, ताकि पिछड़े तबके से आए युवाओं को तालीम हासिल करने में दिक्कत न हो।



अगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सरकार पर दबाव बढ़ता है कि वह सब के लिए समान तालीम का निजाम बनाने की ओर बढ़े तो यह अच्छी बात होगी। आज युवाओं में गैरबराबरी के खिलाफ आक्रोश बढ़ता जा रहा है और हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ग़लत राजनीति शुरू हो जाए। सही लड़ाई ज़मीन पर चल रही है और वह स्कूल से लेकर कॉलेज तक समान तालीम की लड़ाई है।





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