सतह
से उठते सवाल :
'सतह
से उठता आदमी'
में
से निकलते कुछ सवाल
-('नया पथ' के ताज़ा अंक में प्रकाशित लेख)
कहा
जा सकता है कि 'सतह
से उठता आदमी' मूलत:
एक अस्तित्ववादी
रचना है। गौरतलब बात यह है कि
जब यह कहानी लिखी गई तब विश्व
साहित्य में अस्तित्ववादी
चिंतन अपने शिखर पर था। पर
अस्तित्ववाद आखिर है क्या?
अस्तित्ववाद
पर आलोचकों की कई तरह की राय
रही है। अक्सर अस्तित्ववाद
का उल्लेख आलोचना की गंभीरता
मात्र जताने के लिए होता है;
सचमुच
आलोचक क्या कहना चाहता है या
साफ नहीं होता। अस्तित्ववाद
जीवन में किसी बृहत्तर मकसद
को ढूँढने से हमें रोकता है।
पर 'सतह
से उठता आदमी' कहानी
हमें अपने अस्तित्व का एक बड़ा
मकसद ढूँढने को कहती है,
बशर्ते
हमारी संवेदनाएं बिल्कुल
कुंद न हो गई हों, जिसका
खतरा आज व्यापक है। हमारी
कोशिश यहाँ गंभीर आलोचना की
नहीं, महज
एक खुले दिमाग से पुनर्पाठ
की है।
'सतह
से उठता आदमी' में
तीन मुख्य चरित्र हैं -
कन्हैया
लेखक का प्रतिरूप है या कथावाचक
की भूमिका में है, कृष्णस्वरूप
उसका मित्र है, जो
कभी ग़रीब होता था और अब अच्छी
नौकरी मिल जाने से आर्थिक रूप
से बेहतर स्थिति में है,
और रामनारायण,
जिसे
कृष्णस्वरूप जीनियस मानता
है, जो
कभी धनी घर का बिगड़ा लड़का था
और अब बौद्धिक उलझनों में खोया
हुआ शख्स है। चरित्रों को
भरपूर उभारा गया है, जैसा
अमूमन उपन्यास लेखन में होता
है, पर
यह एक कहानी है, उपन्यास
नहीं। पर चरित्रों के उभार
पर ध्यान देना ज़रूरी है,
नहीं तो
सतह से उठने की सतही समझ भर रह
जा सकती है।
कौन
है जो सतह से उठता है?
क्या वह
कन्हैया है, या
कृष्णस्वरूप या रामनारायण?
किस सतह
से कोई उठता है? कहाँ
पर, कहाँ
तक उठता है? कहानी
के आखिर में कन्हैया अकेले
में गटर में थूकता है। क्या
यह सतह से उठने की स्थिति है?
हम किसी
एक समझ को प्रतिष्ठित न कर
अलग-अलग
संभावनाओं को सामने आने दें
तो बेहतर होगा।
कन्हैया
और कृष्णस्वरूप पुराने दोस्त
हैं। दोनों के बचपन और किशोर
उम्र मुफलिसी में ग़रीबी में
बीते हैं। सालों बाद कन्हैया
कृष्णस्वरूप से मिलता है तो
उस पता चलता है कि कृष्णस्वरूप
संपन्न हो चुका है, पर
संस्कारों से वह अभी भी आम
ग़रीबों जैसा ही है। कृष्णस्वरूप
के घर पर ही रामनारायण कन्हैया
से इस तरह मिलता है, जैसे
कि उनमें पुरानी पहचान हो,
पर सचमुच
वे पहले कभी मिले नहीं हैं।
रामनारायण धनी माँ-बाप
का लड़का है, जिनमें
आपसी मेल नहीं है। रामनारायण
बहुत पढ़ा-लिखा
है और अपने पिता की तरह ही
आड़ंबरों से बचता है, पर
वह कुछ हद तक विक्षिप्त भी है।
कृष्णस्वरूप की माली हालत
में बदलाव में रामनारायण की
माँ का हाथ है और लगता है इस
वजह से रामनारायण कृष्णस्वरूप
के साथ अपमानजनक ढंग से बातचीत
करता है।
राजकमल
से प्रकाशित नेमिचंद्र जैन
द्वारा संपादित रचनावली के
तीसरे खंड में यह कहानी संकलित
है। इस संस्करण में अक्सर कुछ
लफ्ज़ों को भारी टाइप शैली
(bold) में
रखा गया है। मसलन इस कहानी में
'भई
वाह! उन
दिनों कृष्णस्वरूप रोज गीता
पढ़ता था' वाक्य
में 'गीता'
पर जोर है।
क्या यह मुक्तिबोध का खुद का
किया हुआ है, या
संपादकीय निर्णय है - यह
सवाल शोध का विषय है। 'उन
दिनों' यानी
वे जो मुफलिसी के दिन थे। जाहिर
है कि 'उन
दिनों' कहते
हुए इसके बाइनरी विलोम 'इन
दिनों' की
ओर भी संकेत रहता है - इन
दिनों क्या वह गीता पढ़ता है?
इस पर कहानी
में कोई तथ्य उजागर नहीं होता,
पर हो सकता
है कि इन दिनों वह गीता नहीं
पढ़ता। गीता का पढ़ा जाना या न
पढ़ा जाना क्या बतलाता है?
भारतीय
मानस में खास कर जिन्हें अब
हिन्दू कहा जाता है, गीता
को सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ मानना
आम बात है, वैसे
ही जैेसे और समुदायों में
बाइबिल, कुरान,
गुरु ग्रंथ
साहब आदि को सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ
मान लिया जाता है। गीता में
सांख्य और योग के महत्वपूर्ण
तत्व हैं और इनका इस्तेमाल
कृष्ण द्वारा अर्जुन को जंग
लड़ने के लिए तैयार करने के लिए
किया गया है। एक स्वच्छंदतावादी
(ऐनार्किस्ट)
नास्तिक
गीता को कैसे देखेगा?
इसके
मद्देनज़र और यह ध्यान में
रखते हुए कि अक्सर मुक्तिबोध
को मार्क्सवाद के दायरे में
रखकर देखा गया है, यह
बात गौरतलब है कि गीता लफ्ज़
बोल्ड फोंट में है। इससे
मुक्तिबोध का कैसा पाठ बनता
है? अगर
यह संपादकीय हस्तक्षेप है,
तो क्या
किसी विशेष पाठ को सामने लाने
की, उभारने
की कोशिश है?
कहानी
पढ़ कर यह भी लगता है मुक्तिबोध
हमें नैतिकता बोध की ओर ले जा
रहे हैं, पर
क्या सचमुच ऐसा है? क्या
कृष्णस्वरूप में नैतिकता बोध
खत्म हो गया है कि वह अपने
आदर्शों को छोड़कर अचानक मिल
रही सुविधाओं को एक के बाद एक
ग्रहण करता गया है? वह
कृष्णस्वरूप जो 'कहा
करता था, “चाहिए,
चाहिए,
चाहिए"
ने सभ्यता
को विकृत कर डाला है,
मनुष्य-संबंध
विकृत कर दिए हैं। तृष्णा बुरी
चीज़ है। हमारा जीवन कुरुक्षेत्र
है। वह धर्मक्षेत्र है। हर
एक को योद्धा होना चाहिए।
आसक्ति बुरी चीज़ है',
वही आज
'खुशहाल
तो है ही, खुशहाली
से कुछ ज्यादा है। उसकी चाल-ढाल
बदल गई है। वह मोटा हो गया है।
पेट निकल आया है। ढाई सौ रुपए
का सूट पहनता है।' इस
नैतिकता बोध में नया कुछ नहीं
है। आज के घोर पूँजीवादी,
नवउदारवादी
युग में तो इसे ओल्ड-फैशन्ड
ही कहा जाएगा। जो खुशहाल है
या खुशहाली से कुछ ज्यादा है,
उसे लेकर
परेशानी क्यों। दुनिया जाए
भाड़ में, समाज
में दलित, पिछड़े,
ग़रीब हों
तो हों, पैसे
कमाओ, जै
सिरीराम बोलो, ऐश
करो, दारु-शारु
पिओ और खर्राटे मारते हुए सोओ।
कृष्णस्वरूप ही तो आज का नॉर्मल
है, समाज
के लिए परेशानी का सबब तो
रामनारायण है, भले
ही जिसकी 'बात
में मजा आता है,’ जिसका
'भाषा
पर प्रचंड अधिकार है।‘ फिर
भी अगर ऐसा है कि कहानी के
केंद्र में नैतिकता का सवाल
है तो यह महज अस्तित्ववादी
रचना नहीं है।
कृष्णस्वरूप
के किरदार का एक मजेदार पक्ष
यह है कि 'उन
दिनों' उसके
सपने में शंकराचार्य,
महात्मा
गाँधी और जवाहरलाल भी आते थे।
ऐसा वह कहता था। कहानी में
हमें पता चलता है कि कृष्णस्वरूप
सचमुच कन्हैया को प्रभावित
करता था। लेकिन किस ढंग से?
इसके
बाद का कथन है कि 'उसको'
फ़िलॉसफ़ी
की ज़रूरत थी, इसलिए
कि 'उसका
जीवन दुर्दशाग्रस्त था।'
किसको?
कृष्णस्वरूप
को ही शायद, क्योंकि
जीवन तो उसका दुर्दशाग्रस्त
था। कन्हैया के बारे में भी
हम बाद में जान पाते हैं कि
उसका जीवन भी कृष्णस्वरूप
जैसा ही रहा होगा। तो फ़िलॉसफ़ी
की ज़रूरत कन्हैया को भी थी।
कन्हैया कथावाचक की भूमिका
में है, या
कथावाचक हमें कहानी की दुनिया
को कन्हैया की नज़रों से दिखलाना
चाहता है। तो क्या मुक्तिबोध
अपनी उलझनों को ही हमारे सामने
रख रहे हैं? मुक्तिबोध
उलझे हुए तो थे ही, यह
एक बात उनके बारे में साफ कही
जा सकती है कि अपने वक्त के और
दीगर रचनाकारों की तुलना में
मुक्तिबोध में बौद्धिक सवालों
को लेकर जद्दोजहद कहीं ज्यादा
सघन थी।
मुक्तिबोध
जिस वक्त और जिन परिस्थितियों
में रहकर साहित्य-लेखन
कर रहे थे, उनको
जीते हुए वे उन्नीसवीं सदी
के अंत या बीसवीं सदी के शुरुआत
तक की यूरोपी आधुनिकता के
प्रभाव से अछूते नहीं रह सकते
थे। उनके पास 'फ़िलॉसफ़ी
ऑफ द ऐबसर्ड' की
जगह नहीं थी। या जगह बहुत थी
तो वह शंकराचार्य, महात्मा
गाँधी और जवाहरलाल से अलग
मार्क्स को जगह दे सकती होगी,
पर आधुनिक
भारत का जो अति-यथार्थ
उनके सामने खुलता जा रहा था,
उसके लिए
सही फ़िलॉसफ़ी क्या हो सकती है,
यह सवाल
उन्हें तड़पाता होगा। मसलन
कहानी में हम देखते हैं कि
रामनारायण देखने में भयानक
है। उसमें से 'अज्ञात,
अप्राकृतिक
विचित्रता' का
भय जन्म लेता है। जाहिर है कि
इस किरदार को भयानक शक्ल देते
हुए कथाकार हमसे मुखातिब है।
हम अपनी उस भयानक या विक्षिप्त
शक्ल को देखने को मजबूर हो
जाते हैं, जो
न्याय पर अन्याय की जीत सह
नहीं पाता, जो
तड़पता रहता है।
‘कन्हैया
ग़रीबी को, उसकी
विद्रूपता को, और
उसकी पशु-तुल्य
नग्नता को जानता है। साथ ही
उसके धर्म और दर्शन को भी जानता
है। गाँधीवादी दर्शन ग़रीबों
के लिए बड़े काम का है। वैराग्य
भाव, अनासक्ति
और कर्मयोग सचमुच एक लौह-कवच
है, जिसको
धारण करके मनुष्य आधा नंगापन
और आधा भूखापन सह सकता है। ...
उसके आधार
पर आत्मगौरव, आत्मनियंत्रण
और आत्मदृढ़ता का वरदान पा सकता
है।' - यह
कौन चीख रहा है? आगे
और है - ‘ग़रीबी
एक अनुभावत्मक जीवन है। कठोर
से कठोर यथार्थ चारों तरफ़ से
घेरे हुए है, एक
विराट नकार, एक
विराट शून्य-सा
छाया हुआ है। लेकिन, इस
शून्य के जबड़ों में मांसाशी
दाँत और रक्तपायी जीभ हैं।'
तो क्या
गीता, गाँधीवादी
दर्शन, शंकराचार्य
और जवाहरलाल उन्हें उसी कठोर
यथार्थ में दिखते हैं?
अव्वल तो
कहानी में कहानी होना पहली
शर्त है, दर्शन
हो तो बढ़िया, न
हो तो भी ठीक। अगर बौद्धिकता
में जाना ही है तो हजार साल
पहले के पुनरुत्थानवादी
वेदांती और अपने समय में पश्चिम
के शांतिवादियों से प्रभावित
घोषित राष्ट्रपिता और इतिहास
में रुचि रखते एक राष्ट्रनेता
का नाम एक साथ क्यों? क्या
यह महज उलझन है, या
बयान है? इस
रचना के दो ही दशकों बाद कुछ
मार्क्सवादी चिंतकों ने गीता
में मुक्तिकामी सोच प्रतिष्ठित
करने की कोशिश की थी। भारतीय
वाम चिंतन में ऐसी उलझनों की
भरमार है।
क्या
मुक्तिबोध के लिए जीवन का कोई
तार्किक आधार था? क्या
जीवन का कोई मकसद है -
क्या वह
मकसद अपने वक्त के दक्षिण
एशिया में महानायक रह चुके
शंकर, गाँधी
और नेहरू जैसे नामों में है,
या वह उस
'अनुभवात्मक
जीवन' में
ही कहीं है, जो
ग़रीबी है? एक
साहित्य-रचना
के रूप में 'सतह
से उठता आदमी' में
सबसे बड़ी खूबी यह है कि इन
सवालों को मुक्तिबोध खुला
छोड़ देते हैं, जो
कि उनके समकालीन ही नहीं,
बाद के
रचनाकारों में भी विरल है।
कन्हैया को जीवन की सचाइयों
का पता है, पर
उसके साथ हम कृष्णस्वरूप और
जीनियस रामनारायण के खेल को
निर्लिप्त भाव से देखते हैं।
खेल कहें या कि पुराने ढंग से
भव-लीला
कहें। यह जो नए पुराने के बीच
का आवागमन है, इसमें
मुक्तिबोध अद्वितीय हैं।
कहानी में दुर्योधन की प्रसिद्ध
उक्ति 'जानामि
धर्मं न च मे प्रवृत्ति/
जानाम्यधर्मं
न च मे निवृत्तिः/ केनापि
देवेन हृदिस्थितेन/यथा
नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि'
का इस्तेमाल
किया गया है। कृष्णस्वरूप का
दुर्योधन धर्म-अधर्म
के सामान्य द्वंद्वों में से
आराम से गुजरता है। जो भी
सही-ग़लत
है, वह
सब विधि का विधान है, इस
को मानने वाला हीनता से ग्रस्त
ग़रीब कृष्णस्वरूप बाद में
स्वेच्छा से खुद को बदलता है।
हो सकता है कि तब भी वह 'यथा
नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि'
मानता हो,
या कि उसके
लिए इसे मानते रहना मजबूरी
है, क्योंकि
ऐसा न हो तो वह भयानक दिखता
रामनारायण जो उसके अंदर भी
कहीं बैठा है, उसे
जीने न देगा।
नैतिकता
बोध के सवाल रुकते नहीं हैं।
जो शानदार खूबसूरत है,
क्या वह
सचमुच शानदार और खूबसूरत है?
रामनारायण
के पिता जात-पात
नहीं मानते, हरि
का नाम लेते हैं तो उनकी शानदार
खूबसूरत पत्नी उन्हें ताना
देकर कहती है कि 'जाओ,
उस रंडी
के पास जाकर बैठो।' एक
उदार पुरुष अपनी खूबसूरत,
पर रुढ़िवादी
पत्नी के साथ कैसे निभाए,
अहंकारी
माँ रामनारायण को उशृंखल बनने
से कैसे रोके, ये
अस्तित्व के सामान्य संकट
है। पर इन सबके साथ कृष्णस्वरूप
में आ रहे बदलाव, उसके
अंदर का लोलुप, महत्वाकांक्षी
इंसान जो सतह से ऊपर उठने को
बेताब है, उसके
संकट विकट हैं। अपने विपन्न
अतीत से निकलकर सुविधाओं से
लदते रह कर भी वह लाचार है कि
वह भयानक दिखता रामनारायण
उसे हेय नज़रों से देखे,
उसे दुत्कारे
और वह कुछ न कर पाए, सिर्फ
इसके कि वह कहता रहे कि 'सचमुच
जीनियस' है।
'उन
दिनों' का
उसका गीता पाठ, उसके
सपने में आते महानायक,
सभी इन
दिनों बेअसर हैं।
हम
इन सवालों का जवाब नहीं ढूँढेंगे,
क्योंकि
जवाब तो हमें मालूम हैं।
कृष्णस्वरूप के अंदर कोई रोता,
चिंघाड़ता
होगा, यह
हम जानते हैं क्योंकि हम सब
अपनी-अपनी
सतह से उठने की प्रक्रियाओं
में फँसे हुए हैं। ये प्रक्रियाएँ
हमारे निजी दायरों में चल रही
हैं और ये हमारे बड़े सामाजिक
दायरों में भी चल रही हैं। इस
लिए यह कहानी सिर्फ आत्म-अन्वेषण
नहीं है। हम चीख चिल्ला कर झूठ
को सच कहने वालों के साथ खड़े
हो जाते हैं, हत्यारों
को जन-गण-मन
अधिनायक बना देते हैं। हमारे
अंदर कोई हमें रोकने की,
सचेत करने
की कोशिश करता है, तो
हम उसे जीनियस कह कर अपने से
दूर कर लेते हैं, उसकी
झिड़कों को झेल लेते हैं। हम
जानते रहे, देखते
रहे कि देश की आधी जनता को और
विपन्नता की ओर धकेला जा रहा
है, और
हममें इतना भी विवेक नहीं बचा
रहा कि हम भयानक दिखते जीनियसों
को पहचान कर वापस अपने अंदर
कभी देख सकें।
अच्छी
अस्तित्ववादी रचना में उदासीनता
लाजिम है, हालाँकि
अक्सर ऐसी रचनाएँ पढ़ने के बाद
मुख्य बोध अवसाद का होता है।
पर मुक्तिबोध का उदासीन कथावाचन
दरअसल उदासीन है नहीं,
और समझौतों
के किस स्तर तक हम गिर सकते
हैं, जो
उठना है, वह
किस गटर में गिरना है,
कन्हैया
इसे थूकता हुआ हमें दिखलाता
है। मुक्तिबोध हमें कहानी
में सीधे नहीं कहते कि हम नैतिक
सवालों पर गौर करें, पर
पूरी कहानी इसी संकट पर केंद्रित
है। कन्हैया की कहानी हमारी
कहानी है। यह बस दुनिया को
देखना भर नहीं है, उसे
और उस-में
जीना है। हम कितना उठ रहे हैं
और कितना गटर में गिर रहे हैं,
यह केंद्रीय
सवाल बन कर सामने आता है। इसलिए
अस्तित्ववादी होते हुए भी यह
कहानी बहुत कुछ और है।
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